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चंद राजवंश का इतिहास
भाग - 04
चंद राजवंश का भौगोलिक क्षेत्रफल
चंद वंश की प्रारंभिक राजधानी चंपावत में थी जो काली और चंपावती नदी के तट पर स्थित थी। चंदों का राज्य प्रारंभ में केवल काली नदी के निचले तराई भाग तक ही सीमित था। किंतु बाद में चंद राजवंश का सबसे प्रतापी शासक गरुण ज्ञानचंद ने राज्य विस्तार के फलस्वरुप तराई भाबर का संपूर्ण क्षेत्र सोर, सीरा, दारमा-जोहर, ब्यास-चौदांस, गंगोली-मणकोट क्षेत्र व अल्मोड़ा जनपद का समूचा पश्चिमी भाग अपने राज्य शामिल कर लिया। ज्ञानचंद के बाद भारती चंद ने डोटी (नेपाल) की राजधानी अजमेर व जुराईल-दिवाइल कोट तक विजय पताका फहराई। चंद वंश का 45वां शासक बालों कल्याण चंद ने चंदों की राजधानी चंपावत से अल्मोड़ा में स्थानांतरित की। चंद वंश से संबंधित ताम्रपत्रों में राजधानी को बुंगा, रसजबुंगा, राजपुर, राजधाई कहा जाता था और राज महल को चौमहल कहा जाता था। चंदों ने तराई भाग पर रुद्रपुर, काशीपुर, बाजपुर नगरों का निर्माण कराया। चंद वंश कुमाऊं का मुहम्मद तुगलक कहे जाने वाला शासक 'देवी चंद' ने अपनी की राजधानी 'देवीपुर' में बनाई थी।
चंद राजवंश की प्रशासनिक, राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक व्यवस्था
चंद वंश की प्रशासन व्यवस्था
कुमाऊं में चंद शासकों की शासन व्यवस्था पर मुगल शासन का प्रभाव पड़ा था। बालों कल्याण चंद ऐसा पहला शासक था जिसने अपने शासनकाल के दौरान 'स्थानीय स्वायत्त' तथा 'पंचायती पद्धति लागू' की थी। चंद प्रशासन का विभाजन इस प्रकार बटां हुआ था। चंद राज्य - मंडल - देश - परगना - गर्खे - गांव (ग्राम) । प्रशासन की सबसे छोटी इकाई परगना थी जबकि राज्य में सबसे छोटी इकाई गांव थी। तराई क्षेत्र में बाजबहादुर चंद ने 'पट्टी' नामक प्रशासनिक इकाई की स्थापना की। जो परगना से छोटा किंतु गांंव से बड़ी होती थी।
चंद राज्य
चंद राजाओं द्वारा विजित क्षेत्र को चंद राज्य कहा जाता था। राजा ही राज्य का सर्वोच्च शासक होता था । वही प्रधान न्यायाधीश भी। चंद राजाओं की उपाधि श्रीराजाधिराज, महाराजाधिराज थी । राजा के सलाहकारों (परामर्शदाता) को 'पौरी पन्द्रह बिस्वा' कहा जाता था। जिनमें मुख्य रुप से महरा, फर्त्याल, समस्त ब्राह्मण कुल शामिल था। चंदो का शासन तंत्र एक तरह का पंचायती राज तंत्र था किंतु इसी के साथ निरंकुश राजतंत्र भी उदाहरण मिलते हैं।
मंडल
चंद राज्य को 2 मंडलों में बांटा गया था।
- सामंतों के अधीन चंद शासक - जिन राज्यों पर राजा विजय करते थे उनके पूर्व शासकों को ही अपने अधीनस्थ सामंत के रूप में नियुक्त करते थे। सामंतों को राजा 'रजवार' उपाधि धारण करने की छूट थी। उन्हें 'ठक्कुर' भी कहा जाता है। ये सामंत राजा को वार्षिक कर देते थे।
- राजा द्वारा शासित - दूसरा मंडल राजा द्वारा शासित होता था।
देश
मंडलों के नीचे 'देश' होते थे कई परगनों को मिलाकर देश बनते थे - जैसे तल्ला देश, मल्ला देश आदि।
परगना
प्रशासन की सबसे छोटी इकाई को परगना या गर्खे के कहा जाता था। चंद काल के समकालीन प्रमुख परगने इस प्रकार थे - काली कुमाऊं, सोर, सीरा, फल्दाकोट, पाली पछाऊ, कोटली इसके अतिरिक्त 6 परगने तराई भाबर में थे - बगसी, माल, बुक्साड़, मुंडिया, किलपुरी, व छीनकी परगना .
परगने दो प्रकार के थे :-
- नागरिक अधिकारी के अधीन - नागरिक परगने के अधिकारी को 'सीकदार' कहा जाता थाा।
- सैन्य कमांडर के अधीन - सैनिक कमांडर के अधिकारी को 'बख्शी' कहा जाता था दरअसल चंद राजाओं के सेनापति को बख्शी कहा जाता था।
गर्खे
परगने गर्खों में विभक्त थे - काली कुमाऊं व माल में जिन्हें पट्टी कहते थे और सोर व सीरा और अन्य परिवारों में गर्खे कहते थे। गर्खे के प्रशासक को 'नेगी' कहा जाता था ।
गर्खे (गांव)
गर्खे गांव में विभक्त थे अर्थात एक से अधिक गांव को गर्खे कहा जाता था। जैसे - वर्तमान समय में एक या एक से अधिक गांव को मिलाकर ग्राम पंचायत बनती है। उसी प्रकार एक या एक से अधिक गांव मिलाकर गर्खे या परगना बनाए जाते हैं। गांव के मुखिया को 'सयाणा या बूढ़ा' कहते थे। सर्वप्रथम सोमचंद ने गांव में बूूूढ़ा व सयाणों की नियुक्ति की थी।
सैन्य व्यवस्था
राजा के बाद युवराज ही सेना का सर्वोच्च सेनापति होता था युवराज का कार्य कामकाज में अपने पिता की सहायता करना होता था राजा के बूढ़े आसक्त हो जाने पर वही सेना का नेतृत्व करता था। लख्मीचंद की गढ़ देश की सीमावर्ती प्रदेश पर विजय के दौरान त्रिमल चंद ने सेनापति के रूप में युद्ध लड़ा। चंद राजाओं के सेनापति को सामान्यतः 'बक्शी' कहा जाता था। बाहरी युद्ध के समय राजा स्वयं में जाता था और उसके साथ युवराज, मंत्री, बक्शी, वैद्य, गुप्तचर आदि भी जाया करते थे।
राज्य की सुरक्षा की दृष्टि से सोमचंद ने चार किलेदार नियुक्त किए थे। कार्की, बोरा, ताड़गी व चौधरी जो मूलतः नेपाल के मूल निवासी थे। जिन्हें 'चाराल' या 'चार बूढ़ा' कहा जाता था। सोमचंद ने मेहरा व फर्त्याल को मंत्री व सेनापति बनाया था। अकबर के समकालीन रुद्र चंद ने कुमाऊं में स्थायी सेना के लिए 'मिलिट्री कैंप' की स्थापना की थी।
राजधानी में गुप्तचर प्रणाली स्थापित थी गुप्त चारों के माध्यम से आंतरिक अशांति व बाहरी आक्रमण की सूचना राजा को दी जाती थी । गुप्तचरों का काम प्रायः वेश्याएं, परिव्राजक व वैद्य किया करते थे।
न्याय व्यवस्था
चंद काल में राजा सर्वोच्च न्यायाधीश होता था किसी भी देशद्रोही, उपद्रवी अथवा राज विरोधी को वही फांसी दे सकता था। फांसी ऊंचे पहाड़ में दी जाती थी, जिसे 'शूली का डाणा' कहा जाता था। लक्ष्मी चंद ने न्याय के लिए न्योवली व विष्टावली वाली नामक कचरिया बनाई थी।
- न्योवली - यह कचहरी समझ जनता के लिए थी
- विष्टावली - यह कचहरी सैनिक मामलों के न्याय के लिए थी।
इसके अलावा 'पंच नवीसी' नामक पंचायती-कचहरी भी चंदों के समय थी। इसी को 'चारथान' कहते थेे। दंडाधिकारी को 'डंडैै' कहा जाता था। 'डंडै' छोटे-छोटे झगड़ों के लिए अर्थ-दंंड वसूला करता था, और बड़े अपराध के लिए अपराधी को स्वयं कारागार में डाल सकता था। फांसी की सजा पेड़ में लटकाकर तथा जीवित ही बोरों में डालकर नदी मेंं बहाकर दी जाती थी।
चंदो की आर्थिक व्यवस्था
उत्तराखंड पर्वतीय एवं वनों का क्षेत्र वाला राज्य था इसकी आय खनिजों, औषधि और भोटांतिक व्यापार से होती थी लेकिन राज्य का आय का मुख्य स्रोत भू-राजस्व था। इसके अलावा चंद शासक 36 प्रकार के राजकर जनता से वसूला करते थे जिन्हें 'छत्तीसी' कहते थे। इन्हें थातवान, परगना अधिकारी, सिकदार वसूल करके 'राजकोष' में जमा करते थे। कौटिल्य के सप्तांग राज्य सिद्धांत के अंतर्गत 7 अंगो का वर्णन मिलता है उनमें एक कोष है। चंद शासन के काल में 1/6 भाग कर के रूप में वसूला जाता था इसे 'गल्ला पछाड़ा' कहते थेे । प्रत्येक गांव से मालगुजारी वसूलने के लिए पधान नियुक्त किए जाते थे। पधान पद वंशानुगत होता था । पधान के नीचेेेेेे 'कोटल' होता था। जो पधान के लेखक का काम करता था।
टकसाल नीति - सिक्कों का प्रचलन (चंद वंश)
चंद राजाओं के अभी तक अपने कोई सिक्के नहीं मिले हैं। उनके समय में सैनिकों व अन्य राज्य कर्मचारियों को काम के बदले जमीन दी जाती थी जिनसे संबंधित ताम्रपत्र व कागज के पट्टे अभी तक मिलते रहते हैं। नगद लेनदेन कम ही होता था। चंदो के राज्य में दिल्ली के सिक्के प्रचलित थे। चंद राजाओं के दिल्ली के सुल्तानों व बादशाहों के साथ राजनीतिक संबंध थे और अपने राज्य में उन्हीं की मुद्राओं से लेनदेन करते रहते थे। अलाउद्दीन खिलजी द्वारा प्रचलित जीतल व मुगल शासकों की मोहरें भी यहां पाई गई हैं। अवध के नवाब मंसूर अली खान के सिक्के यहां जो रूहेलों द्वारा लाए गए थे। मोहम्मद बिन तुगलक के ताम्र सिक्के भी यहां मिलते हैं। सन 1982 में गंगोलीहाट के कालिका मंदिर के पास देवदार वृक्षों के झुरमुट के नीचे एक व्यक्ति को जमीन के अंदर घड़े में 300 तांबे के सिक्के मिले थे। यह तांबे के सिक्के सभी एक सेे नहींं थे कोई बड़ा था कोई छोटा था। यह सभी सिक्के अलग-अलग सुल्तानों द्वारा जारी किए गए थे ।
चंदो की भूमि बन्दोबस्त नीति
- विष्णुप्रिति या गूंठ भूमि - ऐसी भूमि जो ब्राह्मणों व मंदिरों को दान दी जाती थी।
- रौत - ऐसी भूमि जब राजा किसी सैनिक को बहादुरी और पराक्रम के लिए जमीन देता था।
थातवान - चंदो के समय राजा जिनको 'रौत व गूंठ' के रूप में जमीन देता था अर्थात जब राजा द्वारा किसी विद्वान ब्राह्मण, वीरता प्राप्त सैनिक को भूमि दी जाती थी तो उसे 'थातवान' कहा जाता था।
सिरतान - यह थातवान की भूमि पर अस्थायी कृषि करता था और नगद के रूप में थातवान को कर देता था उसे सिरतान कहते थे।
खायकर - जो कर अनाज व नगदी दोनों के रूप में देता था। उसे खायकर कहा जाता था।
कैनी - चंदू के समय कैनी भू-दास होते थे। इसके अलावा छ्यौड़ा घरेलू नौकर या दास होते थे। व दासियों को छ्योड़ी कहा जाता था।
भूमि माप
चंद काल में भूमि मापन की ईकाई मुख्य रूप से नाली, ज्यूला, अधाली व मसा आदि थी। एक मसा 2 किलो सेेेेेेे कम व ज्यूूूला 10 कुंतल के बराबर होता था और अधाली लगभग 15 किलो या आठ नाली होता था। बीस नाली भूमि जो एकड़ के बराबर होती थी जिसेेे विश्वा कहा जाता था।
चंद राजवंश के प्रमुख कर (tax)
चंदों के समय सभी करों के नाम "छत्तीस रकम व बत्तीस कलम" था जिसके अंदर 68 कर थे। जिनमें से कुछ प्रमुख का इस प्रकार है:-
- ज्यूलिया - नदी पुल पर लगने वाला कर इसे सांगा कहते हैं।
- सिरती कर - यह एक प्रकार का नगद कर था और प्रायः माल भाबर व भौटिया व्यापारियों से वसूला जाता था।
- राखिया - रक्षाबंधन बाद जनेऊ संस्कार के समय भसुरा जाता था
- मांगा - युद्ध के समय लिया जाने वाला कर
- बैकर - अनाज के रूप में देय कर
- कटक - सेना के लिए लिया जाने वाला कर
- टांड कर - सूती वस्त्रों के बुनकरों से लिया जाने वाला कर
- मिझारी - कामगारों से लिया जाने वाला कर
- साहू - लेखक को देय कर, जिसे साउली भी कहा जाता था।
- कूत - नगद के बदले दिए जाने वाला का कर
- सीकदार नेगी - परगनाधिकारी को देय कर
- कनक - शौका व्यापारियों से स्वर्ण धूल के रूप में कर
- डाला - गांव के सयाणे को देय कर
- मौ - हर परिवार पर लगा हुआ कर
- भाग कर - घराटों पर लगने वाला कर
- न्यौवली कर - न्याय पाने के लिए देय कर
- बजनिया - राजा के नर्तकों व नर्तकों के लिए कर
- चोपदार - राजा के मालवाहक यह सामान ढोने वालों के लिए कर
- कमीनचारों - सयानचारी - सायनो देेय कर जो किसानों से वसूल करते थे।
- हिलयानी (अधूल कर) - बरसात में सड़कों की मरम्मत के लिए लिए जाने वाला कर
- पौरी कर - राजधानी की रखवाली के लिए देय कर इसे पहरी भी कहा जाता था।
चंदो की सामाजिक व्यवस्था
चंद राजा चंदवंशीय राजपूत थे। चंदो के समाज का वही परंपरागत ढांचा था जो देश के मैदानी भागों में था उनके समय में देश के मैदानी भागों में राजपूत राजाओं का ही शासन था। वे सूर्य व चंद्र को अपना मूल पुरुष मानते थे। और सूर्यवंश और चंद्रवंश नाम से अपना मूल प्रतिस्थापित करते थे। चंद वंश के समकालीन भारत में अरबों का आक्रमण बढ़ गया था। जिस कारण मैदानी भाग से अनेक जाति धर्म के लोग यहां आकर बस गए। कहा जाता है कि जोशी व पंत नामक ब्राह्मण कुमाऊं में महाराष्ट्र से आए थे। वहीं बसेड़ी राजपूत राजस्थान के बांसवाड़ा से आए थे। राजपूत के दो प्रकार थे आर्य राजपूत व खस राजपूत। खस राजपूत यहां के मूल निवासी थे जबकि चंद शासक आर्य राजपूत थे जो बाहरी भागों से यहां लाए गए थे।
कुमाऊं में ब्राह्मणों को 3 वर्गों में बांटा गया है :-
- चौथानी
- पंचबिढ़िया
- खस ब्राह्मण
कुमाऊं में वैश्य वर्ग के लिए साहू का प्रयोग किया जाता था। यह भी प्रायः बाहरी इलाकों से यहां आए थे। शूद्र वर्ण में विभिन्न जातियों का उल्लेख मिलता है जो शिल्पकर्म से संबंध रखते थे। इन्हीं में से मंदिरों के निर्माता होते थे। कुमाऊं में दीवारों व शिलालेखों पर लिखने (उत्कीर्ण) का काम सुनार व टम्टा करते थे। इनके वर्ग के अंतर्गत कुछ ऐसी जातियां थी जिनका राज परिवार से सीधा संबंध होता था। 'पौड़ी पन्द्रह बिस्वा' में समस्त जन सामान्य समा जाते थे राजकोली राज परिवार के लिए कपड़े बुनते थे। टम्टा ताम्रपत्र बनाकर उन्हें उत्कीर्ण करने का काम करते थे। 'पौरी' राजमहल की चौकीदारी करते थे। चंद राजाओं ने समाज के जिस वर्ग को भी जो काम सौंपा उसी काम के आधार पर उस व्यक्ति का जाति-नाम बना डाला। जैसे - फुलेरिया, पनेरु, दुर्गापाल, मठपाल, कांडपाल, मटियानी, भंडारी, सोनार, लोहार आदि। यहां नागों की अनेक जातियां थी जिनमें सोर नामक नाग जाति विशेष उल्लेखनीय थी पिथौरागढ़ जनपद का पुराना नाम 'सोर' था। कुमाऊं के इस भाग में 'सोर नागों' का प्रभुत्व था। चंपावत में उस काल में 'नव नाग' राज्य करते थे वहां के एक सूर्य मंदिर की शिला पर जयनाग के पुत्र शंभू नंदी द्वारा सूर्य मंदिर का निर्माण करने का उल्लेख मिलता है।
चंदों की धार्मिक एवं सांस्कृतिक व्यवस्था
चंद राजा शिव के उपासक थे। चंद काल में कुमाऊं के प्रत्येक भाग में कत्यूरी शैली में विभिन्न देवी देवताओं के मंदिर बने थे। चंद राजाओं द्वारा बनाए गए मंदिरों में चंपावत का नागनाथ अत्यधिक प्रसिद्ध है इसके अतिरिक्त अल्मोड़ा के रत्नेश्वर , सोमेश्वर, कपिलेश्वर, दीप चंद्रेश्वर, भैरव, क्षेत्रपाल, बागेश्वर, गरुड़ का गरुड़ेश्वर आदि प्रमुख है । त्रिमल चंद में जागेश्वर में भी मंदिर बनवाए थे। बागेश्वर का शिव मंदिर मूलतः कत्यूरी राजाओं द्वारा बनाया गया था किंतु 1602 ईस्वी में इसका जीर्णोद्धार द्वार लक्ष्मीचंद ने किया था। पिथौरागढ़ में दिडनस कासनी, मसोली, नकुलेश्वर, चौपाला, डीडीहाट के पास मढ़ का सूर्य मंदिर, रामायण, रामेश्वर, बूढ़ा केदार आदि के मंदिर भी चंदों ने बनवाए थे। बैजनाथ के मंदिरों में लक्ष्मी नारायण का मंदिर चंदो ने बनवाया था।
कुमाऊं में बौद्ध धर्म अत्यधिक लोकप्रिय था। बौद्धचल, असुर चला, बौधान आदि बातों के प्रतीक हैं। अस्कोट के पास सिंगोली में बौद्ध मठ रहे हैं। मंदिरों को 'मठ' या 'मोड़ा' कहने का रिवाज बौद्ध मठ से प्रारंभ हुआ। बौद्धों के बज्रयान, मंत्रीयान व कालचक्र यान का प्रभाव यहां के गोरखपंथी समाज में आज भी देखने को मिलता है
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