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महरुढ़ी कस्तूरी मृग अनुसंधान केंद्र

महरुढ़ी कस्तूरी मृग अनुसंधान केंद्र (बागेश्वर) कस्तूरी मृग - उत्तराखंड का राज्य पशु  कस्तूरी मृग के महत्व को देखते हुए उत्तराखंड राज्य सरकार ने कस्तूरी मृगों के संरक्षण के लिए 2001 में राज्य पशु घोषित किया। वर्ष 1972 में कस्तूरी मृग संरक्षण के लिए केदारनाथ वन्य जीव विहार के अंतर्गत कस्तूरी मृग विहार की स्थापना की गई । और वर्ष 1974 में बागेश्वर जनपद में महरूड़ी कस्तूरी मृग अनुसंधान की स्थापना की।                    महरूड़ी कस्तूरी मृग अनुसंधान केन्द्र  यह केंद्र कस्तूरी मृग संरक्षण और अनुसंधान के लिए समर्पित है जो एक लुप्तप्राय प्रजाति है, बागेश्वर जनपद गठन से पूर्व महरूड़ी कस्तूरी मृग अनुसंधान केन्द्र की स्थापना वर्ष 1974 में पिथौरागढ़ जनपद में की गई थी। किन्तु 15 सितंबर 1997 में बागेश्वर जनपद के गठन के पश्चात् वर्तमान में यह केंद्र उत्तराखंड राज्य के बागेश्वर जिले में महरूढ़ी धरमघर नामक स्थान पर स्थित है।                  महरुढ़ी कस्तूरी मृग अनुसंधान केन्द्र  *कुछ पुस्तकों में इसकी स्थापना का समय 1977 दिया गया है। और आयोग ने परीक्षा में यह प्रश्न अनेक बार पूछा है और आयोग द्वारा स्थापना व

पौड़ी गढ़वाल का इतिहास -1840

         पौड़ी गढ़वाल

         उत्तराखंड का इतिहास

पौड़ी गढ़वाल का इतिहास

मान्यता है कि राजा दुष्यंत और शकुंतला के पुत्र सम्राट भरत के नाम पर हमारे देश का नाम भारत पड़ा। राजा भरत का जन्म पौड़ी गढ़वाल जनपद के कण्वाश्रम आश्रम में हुआ था जो कोटद्वार से लगभग 10 किलोमीटर दूर शिवालिक श्रेणी के हेमकूट और मणिकूट पर्वतों के मध्य में स्थित है। कण्वाश्रम मालिनी नदी के तट पर होने के कारण वर्तमान समय में इस स्थान को चौकीघाट कहा जाता है । कण्वाश्रम आश्रम के अतिरिक्त श्रीनगर, देवलगढ़ और कोटद्वार आदि प्रमुख स्थानों का वर्णन ऐतिहासिक पुस्तकों और महाकाव्य में किया गया है। जिससे ज्ञात होता है कि पौड़ी गढ़वाल का इतिहास आज का ना होकर बरसों पुराना है। प्राचीन काल में यह वैदिक शिक्षा एवं सांस्कृतिक प्रसार का केंद्र था । महाकवि कालिदास ने कण्वाश्रम विद्यापीठ में ही शिक्षा प्राप्त की और यहीं मालिनी नदी के तट पर अभिज्ञान शाकुंतलम की रचना की । महाकवि कालिदास ने इस क्षेत्र को अपनी पुस्तक में किसलय प्रदेश से संबोधित किया है । 
              उत्तराखंड में ऋग्वैदिक काल के समय में सर्वप्रथम कुणिंदों ने राज्य स्थापित किया । इसका उल्लेख महाभारत के सभा पर्व, आरण्यक पर्व,  एवं भीष्म पर्व से मिलता है।  प्राचीन कुणिंदों के समकालीन दो राजनीतिक शक्तियां थी। जहां -

(1) नाग वंश - गंगाद्वार (हरिद्वार) वाला क्षेत्र
(2) कुणिंद वंश - सतलुज से अलकनंदा तक का विस्तृत क्षेत्र
(3) असुरबाण - श्रीनगर और मंदाकिनी के उत्तरी भाग का क्षेत्र
इसके अलावा राज्य में खस , तङगण, किस्म पुरुष आदि जनजातियों निवास कर रही थी। ंंंं

महाभारत के सभा पर्व एवं आरण्यक पर्व  में कुणिंद वंश का राजा सुबाहु का उल्लेख किया गया है। राजा सुबाहु ने अपने राज्य की राजधानी श्रीनगर में स्थापित की थी। श्रीनगर का पुराना नाम ब्रह्मक्षेत्र । कुणिंद वंश के पश्चात जनपद के अधिकांश क्षेत्र मौर्य वंश, कुषाण वंश, गुप्त वंश और कत्यूरी शासकों के अधिकार में रहा।
                हर्षवर्धन की मृत्यु के पश्चात भारतवर्ष के केंद्र में प्रमुख शक्ति के कमजोर होने से सभी छोटे-छोटे क्षेत्रों ने स्वयं को स्वतंत्र घोषित कर दिया। जिसके उपरांत गढ़वाल मंडल में 688 ईस्वी में परमार वंश का उदय हुआ। उत्तराखंड में परमार वंश के संस्थापक कनकपाल को कहा जाता है जिनकी प्रारंभिक राजधानी चांदपुरगढ़ (चमोली) थी । 1490 ईसवी में गढ़वाल वंश के 37वें शासक राजा अजयपाल ने सभी 52 गढ़ों को जीतकर एकछत्र शासन स्थापित किया। अजयपाल ने 1512 ईस्वी में चांदपुरगढ़ से राजधानी देवलगढ़ स्थानांतरित की। और देवलगढ़ कुल देवी राजराजेश्वरी मंदिर का निर्माण कराया लेकिन देवलगढ़ से शासन ठीक ना होने के कारण पुनः अजयपाल ने सन् 1515 में अपनी राजधानी श्रीनगर में स्थापित की।

 समस्त गढ़वाल राजवंशों की राजधानी : श्रीनगर

                जिस प्रकार पूरे भारत के लिए एक समय पाटलिपुत्र और कन्नौज प्रमुख राजधानी थी। मध्यकालीन मुगल काल के समय मुख्य राजधानी दिल्ली थी। ठीक उसी प्रकार उत्तराखंड के गढ़वाल मंडल की प्रमुख राजधानी श्रीनगर रही है। प्राचीन समय से ही यहां पर जितने भी शासक आए सभी ने भौगोलिक दृष्टि को देखते हुए सर्वप्रथम श्रीनगर को राजधानी बनाई। इसीलिए श्रीनगर को 'गढ़वाल का दिल्ली' भी कहा जाता है।                  कनिंघम के अनुसार वर्तमान श्रीनगर की स्थापना 1358 में हुई । श्रीनगर अलकनंदा के बाएं तट पर तथा पौड़ी से 30 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। श्रीनगर को व्यवस्थित तरीके से बसाने का श्रेय कमिश्नर ई. पौ. को जाता है। श्रीनगर पर्यटन की दृष्टि से अत्यधिक महत्वपूर्ण स्थल है। यहां प्रमुख दर्शनीय स्थल धारा देवी मंदिर, कमलेश्वर मंदिर,  केशोराय मठ, शंकर मठ ,  किलकिलेश्वर मंदिर आदि स्थित है । शंकर मठ और किलकिलेश्वर मंदिर का निर्माण आदि गुरु शंकराचार्य ने 800 ईस्वी में कराया था। यहीं पर किलकिलेश्वर शिवरात्रि का मेला लगता है। श्रीनगर के पास ही गोरखनाथ गुफा और श्रीयंत्र शिला (टापू) स्थित है। मोलाराम चित्र संग्रहालय और प्राविधिक शिक्षा निदेशालय श्रीनगर में स्थित है।

               1804 में खुड़बुड़ा के मैदान में प्रदुम्न शाह की हार के बाद गढ़वाल मंडल पर गोरखा सैनिकों का शासन हो जाता है। 1804 से 1815 तक गोरखाओं के शासन करने के पश्चात गढ़वाल मंडल का आधे भाग पर ब्रिटिश सैनिकों द्वारा गोरखा को हराने के बाद ब्रिटिश सरकार का कब्जा होता है और शेष भाग पर टिहरी वंश का उदय होता है। 1815 से 1840 तक ब्रिटिश गढ़वाल की राजधानी श्रीनगर रही और 1840 में ब्रिटिश सरकार ने राजधानी श्रीनगर से पौड़ी में स्थानांतरित कर दी। इस प्रकार ब्रिटिश सरकार द्वारा पौड़ी जनपद का गठन 1840 ईसवी में हुआ। आजादी के बाद 1969 ईस्वी में गढ़वाल मंडल का मुख्यालय पौड़ी में बनाया गया। पौड़ी की अनुकूल जलवायु और बढ़ते आवागमन स्थिति को देखते हुए वर्ष 1992 में हिल स्टेशन में घोषित किया जाता है।

पौड़ी जनपद की भौगोलिक स्थिति


पौड़ी गढ़वाल कंडोलिया पहाड़ी पर स्थित 5329 वर्ग किलोमीटर फैला हुआ जनपद है। जिले का मध्यवर्ती भाग शिवालिक श्रेणी क्षेत्र के अंतर्गत आता है। उतुंग शिखर, किनास पर्वत, कामदेव पर्वत,  शंभु व निशंभु पर्वत शिवालिक श्रेणी के प्रमुख पर्वत हैं। पौड़ी गढ़वाल की सर्वोच्च चोटी किनास पर्वत है, इसके अलावा झिलमिल गुफा, तारा कुंड झील, गंगावसुई घाटी, और खरारी घाटी पौड़ी जनपद में स्थित है। पौड़ी के उत्तर-पूर्व में दूधातोली श्रृंखला है जो पौड़ी, चमोली, अल्मोड़ा जिले में फैला है। दूधातोली श्रृंखला को उत्तराखंड का पामीर भी कहा जाता है। पौड़ी में दूधातोली के पास दुग्ध ताल स्थित है। दुधातोली से पांच नदियां निकलती है -
  • पश्चिमी रामगंगा - यह नदी 155 किलोमीटर बहने के बाद पौड़ी के कालागढ़ नामक स्थान पर राज्य से बाहर हो जाती है। इस नदी पर कालागढ़ बांध परियोजना बनाई गई है जो 126 मीटर ऊंची है।
  • बिनो नदी (वूनों नदी) - बिनो नदी, बिरमा व गगास पश्चिमी रामगंगा नदी की सहायक नदी है।
  • आटागाड़ - यह नदी लगभग 30 किमी० बहने के बाद सिमली (चमोली) में पिंडर नदी से मिलती है।
  • पश्चिमी नायर - पश्चिमी नयार का नाम ढाईज्यूलीगाड है। 
  • पूर्वी नायर - पूर्वी नयार का नाम स्यूंसी गाड है । इसी नदी पर गौरी चीर झरना स्थित है।

नयार नदी

नयार नदी का निर्माण पूर्वी व पश्चिमी नयार का सतपुली के पास मिलने से होता है और नयार नदी, पौड़ी के व्यास घाट के पास फूलचट्टी नामक स्थान पर गंगा में समाहित हो जाती हैं। इसी नदी में मरोड़ा परियोजना बनाई गई है। जबकि इसी नदी में दुनाब जल विद्युत परियोजना बीरोंखाल में निर्माणाधीन है। नयार नदी के तट पर प्रत्येक वर्ष ज्वाल्पा धाम मेला लगता है और सतपुली के पास एकेश्वर मेला व प्रत्येक महाशिवरात्रि के दिन दनगल का मेला लगता है।

पौड़ी जनपद राज्य का सर्वाधिक वन क्षेत्र व सर्वाधिक खुले वन वाला जिला है जो 3271 वर्ग किलोमीटर में फैला हुआ है। राज्य में सर्वाधिक परती भूमि वाला जनपद भी पौड़ी गढ़वाल ही है। वर्ष 1987 में सोन नदी वन्य जीव विहार की स्थापना पौड़ी में की गई जो 301 वर्ग किलोमीटर में फैला है।

पौड़ी जनपद के प्रमुख स्थल


कोटद्वार


कोटद्वार खोह नदी के तट पर स्थित है। कोटद्वार का प्राचीन नाम मोरध्वज है। कोटद्वार के निकट ही मोरध्वज का किला स्थित है यहां पुराने गढ़ो के खंडहर और अवशेष पाए जाते हैं। इस नगर को 'गढ़वाल का प्रवेश द्वार' को कहा जाता है । कुछ वर्ष पहले ही कोटद्वार को 2017 में नगर निगम का दर्जा प्राप्त हुआ है। जबकि 1951 में इसे नगरपालिका घोषित कर दिया गया था। कोटद्वार को 'स्टील सिटी ऑफ उत्तराखंड' कहा जाता है। और 'गढ़वाल का ग्रास्टिगंज' कहा जाता है। कोटद्वार में बुद्धा पार्क , जोसेफ कैथेड्रल चर्च और  प्रसिद्ध सिद्धबली मंदिर  स्थित है। प्रत्येक वर्ष सिद्धबली मंदिर के पास कोटद्वार में खोह नदी के तट पर सिद्धबली मेला लगता है।
            कोटद्वार से  गढ़देश समाचार पत्र (1928) और  गढ़ गौरव (1975) समाचार पत्र का प्रकाशन किया गया। गढ़ गौरव समाचार पत्र के प्रकाशक कुंवर सिंह थे।

लैंसडाउन


लैंसडाउन की स्थापना 4 नवंबर 1887 में हुई। इसका पुराना नाम कालौं-डांडा था। कालौ-डांडा का नाम लैंसडाउन 1890 में ब्रिटिश वायसराय लैंसडाउन के नाम पर पड़ा। लैंसडाउन ने यहां 4 नवंबर 1887 को कर्नल मैन्वेरिंग के नेतृत्व में लैंसडाउन छावनी स्थापित की और ब्रिटिश सरकार ने अल्मोड़ा से  गढ़वाल राइफल्स को स्थानांतरित कर 4 नवंबर 1887 को लैंसडाउन में गढ़वाल रेजीमेंट की स्थापना की । 
                 गढ़वाल राइफल्स की स्थापना का श्रेय सूबेदार बलभद्र सिंह नेगी को जाता है। जिन्होंने साल 1879 में हुए कंधार युद्ध में अद्भुत वीरता और क्षमता का परिचय दिया। इसके लिए उन्हें ‘ऑर्डर ऑफ मैरिट’ से सम्मानित किया गया था। वर्तमान में गढ़वाल राइफल्स का ऑफिस लैंसडाउन में है।     
              1888 ईस्वी में गढ़वाली मैस में बनी लैंसडाउन की सबसे पुरानी इमारत है। सेंट मेरिज गिरजाघर, टिफिन टॉप , व कालेश्वर मंदिर लैंसडाउन में ही स्थित है इसके अतिरिक्त यहां गब्बर सिंह नेगी स्मारक भी स्थित है। प्रत्येक वर्ष लैंसडाउन में ताड़केश्वर महादेव मेला का आयोजन किया जाता है।
               सन् 1922 में बैरिस्टर मुकंदी लाल द्वारा लैंसडाउन से तरुण कुमार पत्रिका का प्रकाशन किया गया। 1935 में हितेषी समाचार पत्र का संपादन रायबहादुर पितांबर ने  और 1939 में कर्मभूमि का संपादन भक्त दर्शन व भैरव दत्त धुलिया ने किया।

पर्यटक स्थल : दुगड्डा


यह नगर ब्रिटिश काल में गढ़वाल का एक प्रमुख व्यापारिक एवं राजनीतिक केंद्र था। दुगड्डा पौड़ी गढ़वाल में लंगूर व सिलगाढ़ नदी के संगम पर स्थित है जो पंडित धनीराम मिश्र ने बसाया था। दुगड्डा का प्राचीन नाम नाथोपुर था। चंद्रशेखर आजाद ने वर्ष 1930 में भवानी सिंह रावत के साथ दुगड्डा आए और जंगलों में 7 दिनों तक पिस्टल चलाने की ट्रेनिंग ली। भवानी सिंह रावत ने दुगड्ड में शहीद मेले की शुरुआत की। वर्ष 1921 में दुगड्डा में गढ़वाल कांग्रेस कमेटी के कार्यकर्ताओं की बैठक हुई थी जिसकी अध्यक्षता पुरुषोत्तम दास टंडन ने की थी।
             जवाहरलाल नेहरू दुगड्डा में दो बार यात्रा 1930 और 1945 पर आए थे। किंतु गढ़वाल कांग्रेस कमेटी के निमंत्रण पर पंडित जवाहरलाल नेहरू 1936 में भी दुगड्डा आए थे।

इसके अलावा गढ़वाल क्षेत्र में कुली बेगार प्रथा, डोला पालकी आंदोलन, आर्य समाज की स्थापना एवं स्वराज प्राप्ति की भावना का जागृत करने का श्रेय इसी नगर को जाता है। दुगड्डा से राष्ट्रीय ज्वाला समाचार पत्र प्रकाशित होता है । 

देवलगढ़


देवलगढ़ की स्थापना कांगड़ा शासक देवल ने की थी जिनके नाम पर इस नगर का नाम देवलगढ़ पड़ा। अजय पाल ने प्रथम बार चांदपुरगढ़ से राजधानी देवलगढ़ पर स्थापित की थी और देवलगढ़ में राजराजेश्वरी देवी मंदिर की स्थापना की। देवलगढ़ सोम का भांडा और नाथ संप्रदाय के काल भैरव का मंदिर भी स्थित है। यह नगर श्रीनगर से लगभग 20 किलोमीटर दूर 4000 फीट की ऊंचाई पर स्थित है।

पौड़ी जनपद से संबंधित महत्वपूर्ण बिंदु

  • बिनसार महादेव का मंदिर पौड़ी गढ़वाल के थलीसैंण शहर में स्थित है। यहां प्रतिवर्ष बिनसर महादेव का मेला दूधातोली पर्वत संख्या में लगता है।
  • कंडोलिया देवता को गढ़वाल में न्याय का देवता कहा जाता है।
  • गेंदा कौथिक का मेला पौड़ी में लगता है।
  • सात खून माफ नामक खेल गिनती मेले को कहा जाता है।
  • मुंडनेस्वर मेला पौड़ी जनपद के कल्जीखाल में लगता है।
  • मनसार मेला पौड़ी में कोट के पास सितोनस्यूं पट्टी में लगता है जहां माता सीता धरती में समाई थी।
  • चूनाधार और रमेशपुर जलप्रपात पौड़ी गढ़वाल में है।
  • उत्यासू बांध पौड़ी गढ़वाल में अलकनंदा नदी पर है।
  • चीला परियोजना पौड़ी में 144 मेगावाट की है।
  • हेमवती नंदन बहुगुणा विश्वविद्यालय की स्थापना 1973 ईस्वी में गढ़वाल विश्वविद्यालय के नाम से हुई थी और अप्रैल 1989 को गढ़वाल विश्वविद्यालय का नाम हेमवती नंदन बहुगुणा विश्वविद्यालय किया गया। हेमवती नंदन विश्वविद्यालय को 15 जनवरी 2009 को केंद्रीय विश्वविद्यालय का दर्जा दिया गया । अब इसे हेमवती नंदन बहुगुणा केंद्रीय विश्वविद्यालय के नाम से जाना जाता है।
  • राज्य के प्रथम जागर महाविद्यालय की स्थापना जयानंद भारती ने श्रीनगर में की थी।
  • वीर चन्द्र सिंह गढ़वाली राजकीय मेडिकल कॉलेज की स्थापना 7 जुलाई 2008 को श्रीनगर में हुई है।
विशेष बात -  पौड़ी गढ़वाल के इतिहास और सम्पूर्ण तथ्यों के अध्ययन के बाद पौड़ी गढ़वाल से संबंधित प्रश्न जरूर हल करें । जिसका लिंक नीचे दिया गया है । और यदि आपको हमारे द्वारा तैयार किए गए लेख पसंद आते हैं तो शेयर कीजिए।

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