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परमार वंश की प्रशासन व्यवस्था (उत्तराखंड)
भाग - 04
परमार वंश का भौगोलिक क्षेत्र
पंवार राज्य गंगा एवं यमुना के मध्य फैला था जिसकी राजधानी श्रीनगर थी उनके राज्य की एक सीमा आगरा नगर से 200 किलोमीटर की दूरी पर थी। पूरा गणराज्य लंबाई में 300 किलोमीटर एवं चौड़ाई में 150 किलोमीटर तक फैला था। परमार वंश की प्रारंभिक राजधानी चांदपुरगढ़ थी जो चमोली के आदि बद्री के आसपास का क्षेत्र था। परमारों का राज्य प्रारंभ में चमोली तक ही सीमित था किंतु बाद में परमार वंश का 37 वां शासक अजयपाल ने 52 गढियों के सामंतों को पराजित कर गढ़वाल में अपना एकछत्र शासन स्थापित किया। जिसके अंतर्गत देहरादून, सहारनपुर, टिहरी, उत्तरकाशी, पौड़ी, बिजनौर का एक भाग तथा चमोली आता था। अजय पाल ने सर्वप्रथम 1512 ईस्वी में चांदपुरगढ़ से राजधानी देवलगढ़ स्थापित की तथा 1515 ईस्वी में पुनः देवलगढ़ से श्रीनगर को अपनी राजधानी बनाई।
प्रशासनिक व्यवस्था
परमार वंश को पंवार वंश के नाम से भी जाना जाता था। पंवार राजा राज्य का सर्वोच्च अधिकारी होता था किंतु राजा निरंकुश नहीं थे वे अपने मंत्रिमंडल के परामर्श से तथा प्राचीन परंपराओं के आदर करते हुए शासन करते थे। पंवार राजा के पुत्र को 'टीका या कुमार' कहा जाता था।
प्रशासन व्यवस्था को सुचारू रूप से चलाने के लिए पंवार शासकों ने मंत्रिमंडल का गठन किया था। मंत्रिमंडल में मुख्तार, गोलदार, फौजदार, चणु, चोपदार और थोकदार आदि प्रमुख पद थे।
- मुख्तार - राज्य का सर्वोच्च मंत्री मुख्तार होता था
- गोलदार - राज्य की राजधानी के सुरक्षा अधिकारी गुलदार होते थे।
- फौजदार - परगने के सैनिक शासक फौजदार कहलाते थे।
- दीवान - आय-व्यय का कार्य के करने वाला अधिकारी को दीवान कहा जाता था।
- चणु - संदेशवाहक को चाणु कहा जाता था
- चोपदार - राजा के साथ चांदी का दंड लेकर चलने वाले सिपाही को चोपदार कहा जाता था।
- थोकदार - परगना में राजस्व वसूली का कार्य थोकदार करते थे जिन्हें 'कमीन व सयाणा' भी कहा जाता था।
थोकदार परगने में प्रत्येक गांव के प्रभावशाली व्यक्ति में से एक किसी एक को 'प्रधान' नियुक्त करता है तथा प्रधान गांव में राजस्व एकत्र करने का काम करता था और वह धनराशि पटवारी को सौंप देता था। प्रधान का पद वंशानुगत होता था। 'औताली' एक प्रकार का राजस्व कर था तथा 'सदाव्रत' वह अनुदान होता था जो धर्मार्थ कार्यों के लिए उपयोग या तीर्थ यात्रियों के भोजन आदि व्यवस्था के लिए प्रयोग होता था।
इसके अलावा पंवार शासकों के मंत्रिमंडल में धर्माधिकारी का प्रमुख स्थान होता था मौलाराम ने इसके लिए ओझागुरु का प्रयोग किया है।
आर्थिक व्यवस्था
राज्य की आय का मुख्य स्रोत 'सिरती' था। भूमिकर को पंवार काल में सिरती कहा जाता था। पंवार शासक कृषि उपज का एक तिहाई कर के रूप में लेते थे जिसे 'तिहाड़' कहा जाता था। साधारण उर्वरता वाली भूमि के उत्पादन का अधेल (आधा भाग) भूमि कर के रूप में लिया जाता था। इसके अलावा पंवार शासक खनिज सम्पत्ति, वन संपत्ति तथा जल संपत्ति जैसे प्राकृतिक साधनों से आए प्राप्त करते थे। राज्य में लोहा, तांबा, ग्रेफाइट, शीशा, अभ्रक, शिलाजीत, आदि मिलते थे। इन सब में सर्वाधिक आय लोहे व ताम्बें की खानों से होती थी ।
भू-व्यवस्था
पंवार वंश की प्रशासन व्यवस्था में कत्यूरी शासकों का प्रभाव देखने को मिलता है। कत्यूरी शासकों के भांति गढ़वाल के शासकों ने भूमि का सर्वोच्च स्वामी राजा होता था। अजयपाल ने भूमिमाप के लिए नापतौल की पद्धति 'पाथा का प्रचलन' प्रयोग कियाा। पंवार राजा निम्नलिखित तीन परिस्थितियों में भू स्वामित्व दूसरों को दे सकता था।
- संकल्प या विष्णु प्रीति - विद्वान ब्राह्मणों को
- रौत - विशिष्ट साहस एवं वीरता प्राप्त करने वाले सैनिकों को
- जागीर - राज्य के अधिकारियों को
थातवान - पंवारों के शासनकाल में भूमि को 'थात' कहा जाता था। जब राजा द्वारा किसी विद्वान ब्राह्मण, वीरता प्राप्त सैनिक या राज के अधिकारियों को भूमि दी जाती थी तो उसे 'थातवान' कहा जाता था। थातवान एक प्रकार से भूस्वामी ही होते था। थातवान राजा द्वारा दी गई भूमि पर पहले से बसे कृषकों को हटा नहीं सकता था।
खायकर - थातवान की भूमि पर बसे किसान थातवान के 'खायकर' कहलाते थे। खायकर भूस्वामी को राजस्व देते थे साथ ही अनेक वस्तुएं भेंट करते थे। इन्हेंं 'खैकर' भी कहा जाता था
कैनी (भू-दास) - थातवान भेंट में मिली भूमि के जिस भाग पर स्वयं खेती करने लगता था उस पर वह नए परिवारों को बसा सकता था, ऐसे परिवार थातवान के 'कैनी' (नौकर) कहलाते थे।
सिरतान - थातवान अर्थात भूस्वामी अपनी भूमि पर कृषकों को स्वेच्छानुसार अस्थायी रूप से बसा देते थे और आवश्यकता पड़ने पर हटा देते थे ऐसे कृषकों को 'सिरतान' कहते थे।
गढ़नरेशों के शासनकाल में भूमि को विभिन्न भागों में बांटा गया था। जैसे - संजायत भूमि, बेनाप भूमि और कैसरे हिन्द भूमि आदि।
- संजायत भूमि - वह भूमि जिसका बंटवारा नहीं किया गया हो तथा जिसका स्वामित्व गांव के संपूर्ण निवासियों के पास हो। ऐसी भूमि को संजायत भूमि कहा जाता था।
- बेनाप भूमि - बेस्ट लैंड जिसमें गांव का स्वामित्व होता था
- कैसरे हिन्द भूमि - बंजर भूमि या जहां कभी खेती ना गई हो। इस प्रकार की भूमि को केसरे हिंद भूमि कहा जाता था इसका स्वामित्व राज्य सरकार के पास होता था।
इसके अलावा गढ़नरेशों के शासनकाल में कृषक सिंचाई के लिए गूल, नौला, खाल, व घराट का प्रयोग करते थे। खेतों की सिंचाई के लिए बनाई गई छोटी नहर को 'गूल' कहा जाता थाा, भूमिगत जल को एकत्र करने के लिए बनाए गए क्षेत्र को 'नौला' कहा जाता था, वर्षा का जल संरक्षण के लिए बनाए गए क्षेत्र को 'खाल' कहा जाता था और पनचक्की या आटा पीसने के लिए प्रयोग किए गए उपक्रम को 'घराट' कहा जाता था।
टकसाल नीति - सिक्कों का प्रचलन
गढ़वाल में 3 राजाओं द्वारा सिक्के डालने का उल्लेख मिलता है यह तीन राजा है - फतेहशाह, प्रदीप शाह व प्रद्युमन शाह। यह मुद्राएं लखनऊ संग्रहालय में रखी हुई है तथा हरीकृष्ण रतूड़ी द्वारा सर्वप्रथम इन्हें प्रकाशित कराए जाने का उल्लेख मिलता है । फतेहशाह ने 'अष्टकोण रजत मुद्रा' जारी की थी इसके अलावा जऊ एक प्रकार की मुद्रा है जो लद्दाख टकसाल में बनती थी। टका व तिमासी का प्रचलन ब्रिटिश शासन में बंद हो गया था। एक तिमासी बराबर 10 टका होता था, 40 टका बराबर एक गढ़वाली रुपया होता था और 50 टका बराबर एक फर्रुखाबादी रुपया होता था।
राजनीतिक व्यवस्था
न्याय व्यवस्था
ग्रामीण तथा राजधानी में साधारण विवादों का निर्णय पंचायत के द्वारा ही होता था। पंचायत के सदस्य प्राचीन परंपराओं से परिचित स्थानीय प्रौढ़ व्यक्ति होते थे जिनसे कोई रहस्य छिपा रह पाना कठिन होता था। वादी-प्रतिवादी, नर-नारी पंचों के सम्मुख बिना किसी संकोच के उपस्थित होकर अपनी अपनी बात रख सकते थे। वकील आदि की आवश्यकता नहीं थी ।पंचायत का निर्णय सभी को मान्य होता था। केवल अधिक गंभीर विवाद पर ही उच्चाधिकारियों तक पहुंचते थे उनके निर्णय से भी असंतुष्ट ना होने पर वादी प्रतिवादी राज दरबार में निवेदन कर सकते थे। सामान्य अपराधों के लिए सामान्य आर्थिक दंड दिया जाता था। विशेष अपराधों के कारण अपराधी की संपत्ति छीन ली जाती थी। हत्या के अपराध में भी प्रतीक दंड ही दिया जाता था। मृत्युदंड बहुत ही कम दिया जाता था। अपराधी का पता लगाने के लिए विभिन्न प्रकार की दिव्य भी प्रचलित थे।
सैन्य व्यवस्था
प्रारंभ में गढ़ सेना विभिन्न पलटन में विभक्त थी जिन्हें लोहवा, 'बाधण' तथा 'सलाण' कहते थे। बाद में मैदानों से आए हिंदू तथा मुसलमान भी भर्तियां की जाने लगे। और व्यवस्था बदल गयी।
परमार शासक भी मुगल बादशाहों के सामान अपने सैनिकों की नियुक्ति स्वयं ना करके अपने 'फौजदार' व 'गोलदार' के द्वारा करवाते थे। अपने अधीनस्थ सैनिकों का वेतन चुकाने के लिए फौजदार को किसी परगने की जागीर तथा गोलदार को नगद राशि भी दी जाती थी। सुदृण शरीर तथा धनुषबाण, ढाल तलवार यदि संभव हो तो बंदूक चलाने का अभ्यास को सैनिक के अवश्यक योग्यता मानी जाती थी।
सांस्कृतिक एवं धार्मिक व्यवस्था
गढ़वाल शासकों की कुलदेवी राजराजेश्वरी को कहा जाता है। पवारों के शासनकाल में गोरखनाथ पंथ संप्रदाय का प्रभाव देखने को मिलता है। गढ़वाल का सबसे प्रतापी शासक अजयपाल भी गोरखनाथ पंथ का अनुयायी था।
साहित्यिक व्यवस्था
गढ़वाल के परमार शासकों ने संस्कृत तथा हिंदी के विद्वानों, कवियों और ज्योतिषीयों के आश्रय दिया था। पंवार शासकों ने जिन विद्वानों को आश्रय दिया उनमें प्रमुख बुद्धिविलास, भरतकवि, मेधाकर, शास्त्री, मौलाराम आदि हैं। इनकी राजभाषा गढ़वाली थी। इसी युग में अनेक पंवाडों की रचना हुई जिनमें से जीतू भगवाल, गढ़सुम्याल, मालु-राजुला, भानु-भौपेला, जगदेव पंवार, रणुरौत, सुरिजनाग आदि प्रसिद्ध है।
पंवार राजवंश की प्रमुख साहित्यिक रचना
रचनाकार पुस्तक/रचना
रत्न कवि - फतेह प्रकाश,
मेधाकर शर्मा - रामायण प्रदीप
जटाधर मिश्र - फतेहशाह कर्ण
भूषण कवि - फतेह प्रकाश ग्रंथ
मतिराम - वृत कौमुदी,
मौलाराम - गढ़राज वंश
कवि शंकर - वास्तु शिरोमणी ग्रंथ
देवराज कृत - गढ़वाल राज्ञा वंशावली
भवानी दत्त - जय-विजय-नाटक
मियां प्रेम सिंह - गुलदस्त तवारिख-इ-कोह
भरतकवि ज्योतिकराय - जहांगीर विनोद
रूपमोहन सकलानी - गढ़वीर महाकाव्य
सभासार ग्रंथ - सुदर्शन शाह
चित्रकला का विकास
पंवार शासकों की सबसे अधिक ख्याति चित्रकारों को आश्रय देने से हुई। पंवारों के शासनकाल में श्यामदास तोमर और उनके वंशजों से राजपूत मित्र कला की पहाड़ी शाखा में एक नई पद्धति का विकास किया जो 'गढ़वाली कलम' के नाम से प्रसिद्ध है। गणराज्य से मुगल शैली के चित्रकला आरंभ करने का श्रेय श्यामदास और उनके पुत्र के केहरदास को जाता है।
मंगत राम के पुत्र मौला राम ने अपने पिता से 'मुगल शैली' की शिक्षा प्राप्त की थी उसकी आरंभिक रचना इसी शैली की थी मौलाराम ने अपने एक उस्ताद मुंशी विलोचन का पुत्र राम सिंह का उल्लेख किया था।
Sources - उत्तराखंड का राजनीतिक इतिहास (अजय रावत),
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