महासागरों का अध्ययन देवभूमि उत्तराखंड द्वारा कक्षा 6 एनसीईआरटी भूगोल की पुस्तक से नोट्स तैयार किए जा रहे हैं। इस लेख में एनसीईआरटी पुस्तक और प्रतियोगी परीक्षाओं से संबंधित महत्वपूर्ण तथ्यों का समावेशन किया गया है। इस लेख में विश्व में कितने महासागर हैं और उनके सीमांत सागरों के साथ प्रमुख जलसंधियों का उल्लेख किया गया है। अतः लेख को अंत तक जरूर पढ़ें। साथ ही विश्व का मानचित्र साथ रखें। पृष्ठभूमि अक्सर फिल्मों में, गानों में, कविताओं में और जिंदगी के उन तमाम पन्नों में "सात समुद्र" का जिक्र सुना होगा। और तो और इस शब्द प्रयोग मुहावरों भी करते हैं। तो क्या आप जानते हैं "सात समुद्र" ही क्यों? और यदि बात सात समुद्र की जाती है तो वे कौन-से सात समुद्र हैं? यूं तो अंक सात का अपना एक ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और धार्मिक महत्व हैं । क्योंकि दुनिया में इंद्रधनुष के रग सात हैं, सप्ताह के दिन सात हैं, सप्तर्षि हैं, सात चक्र हैं, इस्लामी परंपराओं में सात स्वर्ग हैं, यहां तक कि दुनिया के प्रसिद्ध 7 अजूबे हैं। संख्या सात इतिहास की किताबों में और कहानियों में बार-बार आती है और इस वजह से...
उत्तराखंड का आधुनिक इतिहास
भाग -02 (सन् 1857 से सन् 1912 ई. तक)
29 मार्च 1857 में बैरकपुर में भारतीय ब्रिटिश सैनिकों द्वारा चर्बी लगे कारतूस का प्रयोग से इनकार करना एवं मंगल पांडे का बलिदान भारतीय सैनिकों के लिए बारूद में चिंगारी साबित हुआ। इस घटना से लगी आग की लपटों से संपूर्ण भारत में 10 मई 1857 ई. से देश का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम प्रारंभ हुआ। क्रांति की आग की आंच से उत्तराखंड भी अछूता नहीं रह । और उत्तराखंड में 1857 की क्रांति का प्रभाव कुमाऊं के दो स्थानों पर देखने को मिला। जबकि गढ़वाल में क्रांति से संबंधित कोई उल्लेखनीय घटना नहीं घटी थी।
- हल्द्वानी में क्रांति का प्रभाव - 1857 की क्रांति की लपटें बरेली पहुंच चुकी थी जो कि उत्तराखंड से जुड़ा क्षेत्र था। बरेली क्षेत्र का नेतृत्व "खान बहादुर खान" कर रहे थे। उन्होंने सेनापति काले खां के नेतृत्व में क्रांति का विस्तार करने के लिए उत्तराखंड में 1000 सैनिकों की टुकड़ी भेजी। जिसने ब्रिटिश सेना के कैप्टन मैक्सवेल एवं लै. चैपमैन को हराकर कुमाऊं क्षेत्र के हल्द्वानी में 17 सितंबर 1857 को कब्जा कर लिया था। किंतु कुछ ही समय में ग्रीवज एवं मि. रीड के नेतृत्व में अंग्रेजी सेना ने क्रांतिकारियों को हराकर हल्द्वानी में पुनः नियंत्रण स्थापित कर लिया। इस संघर्ष में 114 क्रांतिकारी मारे गए। यद्यपि तराई का एक बड़ा क्षेत्र अब भी क्रांतिकारियों के अधिकार में था । इस असफलता से खान बहादुर विचलित नहीं हुए उसने पुनः एक शक्तिशाली सेना फजल हक के नेतृत्व में हल्द्वानी भेजी और उस पर अधिकार जमा लिया परंतु तत्कालीन कमिश्नर हेनरी रैमजे की कूटनीति के परिणामस्वरूप क्रांतिकारियों की सेना को जल्दी ही हार का सामना करना पड़ा और सेना को वापस बरेली लौटना पड़ा।
- काली कुमाऊं में क्रांति का प्रभाव - 1857 की क्रांति के समय अवध का नवाब वाजिद अली शाह था। उसने काली कुमाऊं के विरुद्ध बिसुंग गांव के "कालू महरा" को क्रांति में कूदने का आग्रह किया साथ ही पूरी सैन्य एवं आर्थिक सहायता देने का आश्वासन भी दिया। कालू महरा काली कुमाऊं का शक्तिशाली एवं साहसी युवा था। कालू महरा ने "क्रांतिवीर संगठन" की स्थापना की । और अंग्रेजों से टक्कर लेना प्रारंभ कर दिया। परंतु कालू महरा एवं उसके साथी बिशन सिंह और आनंद सिंह फर्त्याल पकड़े गए । इनमें से आनंद सिंह एवं विशन सिंह को मार दिया गया। कालू महरा को लंबे समय तक कई जेलों में कैद की सजा भुगतनी पड़ी। काली कुमाऊं से अंग्रेजी सीमा इतना भयभीत रही कि 1937 तक उन्होंने वहां के लोगों को अपनी सेना में भर्ती नहीं किया।
- गढ़वाल क्षेत्र में क्रांति का प्रभाव - गढ़वाल क्षेत्र में 1857 की क्रांति से संबंधित कोई उल्लेखनीय घटना नहीं घटी थी। बल्कि गढ़वाल क्रांति की अपेक्षा कुछ प्रमुख व्यक्तियों द्वारा ब्रिटिश शासन के साथ सहयोग का उल्लेख मिलता है। सन् 1857 की क्रांति के समय नजीबाबाद के एक शक्तिशाली शासक नवाब बम्बू खां द्वारा दक्षिण गढ़वाल पर आक्रमण करने की संभावना थी। पदम सिंह और शिवराम नामक दो गढ़वाली मित्र थोकोदारों ने अधिकारियों की सीमाओं की रक्षा का आश्वासन दिया । अपने द्वारा दिए गए आश्वासन के अनुसार क्रांति के समय पदम सिंह और शिवराम सिंह ने भावर के घाटों की रक्षा की। परिणामस्वरूप क्रांति समाप्त होने के बाद दोनों व्यक्तियों को पुरस्कार के रुप में बिजनौर जिले के कुछ गांव की अलग-अलग जमींदारी प्रदान की।
उत्तराखंड में 1857 की क्रांति का प्रभाव
इस क्रांति का उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्र में कोई प्रभाव नहीं पड़ा। प्रशासन तथा सेना की सतर्कता के कारण उत्तराखंड के मैदानी भागों में भी क्रांति का प्रसार नहीं हो पाया। उत्तराखंड में 1857 की क्रांति का प्रभाव ना पड़ने का मुख्य कारण कुमाऊं कमिश्नर हेनरी रैम्जे की कुशल रणनीति थी। उसने क्रांति को रोकने हेतु ना केवल क्षेत्र में "मार्शल लॉ" लागू किया साथ ही भयपूर्ण दबाव भी बनाया था। उत्तराखंड की जनता को डराने के लिए नैनीताल में गधेरा नामक स्थान पर कुछ क्रांतिकारियों को फांसी में लटकाया । इसके अलावा "ऊंचे टीलों से नदी में गिराकर क्रांतिकारियों को मारा "। इस प्रथा को गढ़वाल एवं कुमाऊं में "चानमारी प्रथा" कहा जाता था।
सन् 1858 ईस्वी में भारत का शासन ब्रिटिश कंपनी के नियंत्रण से जा चुका था । अब शासन भारत ब्रिटिश सरकार के हाथों के प्रत्यक्ष रूप से आ गया था। इस प्रकार कहीं ना कहीं सन् 1858 ई. में उत्तराखंड भी ब्रिटिश सरकार के अधीन आ गया था।
उत्तराखंड में पुनर्जागरण
1858 ईस्वी के पश्चात भारत के अन्य क्षेत्रों की भांति उत्तराखंड में भी शिक्षा, परिवहन, कृषि, संचार इत्यादि आधारभूत क्षेत्र में सुधार कार्य हुए। अंग्रेजों ने भारत में पाश्चात्य शिक्षा का प्रचार एवं प्रसार किया । उत्तराखंड के कई स्थान में पाठशाला एवं विद्यालय खोले गए। यद्यपि शिक्षा संस्थाएं मध्यम तथा हाई स्कूल की शिक्षा तक ही सीमित थी। उच्च शिक्षा हेतु उत्तराखंड के छात्रों को देश के अन्य क्षेत्रों में जाना पड़ता था। इससे उत्तराखंड की जनता को देश के अन्य भागों में भी हो रही हलचल का ज्ञान मिलता था। इसी बीच भारत में भारतीय पुनर्जागरण आंदोलन प्रारंभ हो चुका था और उत्तराखंड इस आंदोलन से अत्यधिक प्रभावित हुआ परिणामस्वरूप उत्तराखंड में डिबेटिंग क्लब की स्थापना हुई।
डिबेटिंग क्लब (1870)
सन् 1870 में राजनीतिक एवं सामाजिक सुधार संगठन के रूप में डिबेटिंग क्लब की स्थापना अल्मोड़ा में हुई। इस क्लब की योजना बुद्धिबल्लभ पंत ने तैयार की थी। इसके संरक्षक चंद वंशज भीम सिंह प्रथम थे। अल्मोड़ा प्रांत के क्षेत्रीय गवर्नर विलियम म्यूर ने क्लब के उद्देश्यों से प्रसन्न होकर कार्यकर्ताओं को क्लब के कार्यों का विवरण प्रकाशित करवाने के लिए एक प्रेस खेल खोलने की सलाह दी । सन् 1871 में प्रेस की स्थापना हुई और अल्मोड़ा अखबार का प्रकाशन प्रारंभ हुआ। अल्मोड़ा अखबार के प्रथम संपादक बुद्धिबल्लभ पंत थे । वर्ष 1883 बुद्धि बल्लभ पंत की अध्यक्षता में इल्बर्ट बिल के समर्थन को लेकर अल्मोड़ा में एक सभा बुलाई गई थी।
उत्तराखंड में सर्वप्रथम प्रकाशित होने वाला समाचार पत्र "समय विनोद" का प्रकाशन 1868 ईस्वी में हुआ था। इसके पश्चात 1871 ईसवी में अल्मोड़ा अखबार और 1902 में गढ़वाल समाचार तथा सन् 1905 में गढ़वाली समाचार पत्र उत्तराखंड की भूमि से प्रकाशित हुए । डिबेटिंग क्लब की स्थापना के अलावा इस काल में उत्तराखंड में समाचार पत्रों तथा अन्य संगठनों का उदय हुआ।
(1) सत्यधर्म प्रकाशिनी सभा (1874)
उत्तराखंड में 20 मई 1874 को नैनीताल में पंडित गजानन छिमवाल एवं रामदत्त त्रिपाठी के नेतृत्व में सत्यधर्म प्रकाशनी सभा की स्थापना की गई। दरअसल स्वामी दयानंद सरस्वती सन् 1854-55 में पंडित गजानंद छिमवाल के साथ प्रथम बार उत्तराखंड में बद्रीनाथ यात्रा पर आए थे। उन्होंने ऋषिताल के तट पर टिकुली रामनगर में तप किया था। इसी बीच कुमाऊं के अन्य क्षेत्रों गरमपानी, रानीखेत, द्वाराहाट इत्यादि का भ्रमण भी किया। दयानंद सरस्वती दूसरी बार सन् 1867 में हरिद्वार कुंभ मेले के दौरान उत्तराखंड आए और पाखंड नामक पताका फहराई साथ ही गजानंद छिमवाल को सत्यधर्म प्रकाशिनी सभा को स्थापित करने की प्रेरणा दी।
(2) उत्तराखंड में आर्य समाज की स्थापना
स्वामी दयानंद सरस्वती द्वारा मुंबई में 10 अप्रैल 1875 ई. में आर्य समाज की स्थापना की गई। और सत्यधर्म प्रकाशिनी सभा को आर्य समाज में शामिल कर लिया गया। उसके बाद सन् 1879 के कुम्भ मेले में पुनः उत्तराखंड आए। 14 अप्रैल 1879 को प्रथम बार देहरादून यात्रा पर आए तथा 29 जून 1879 में देहरादून में आर्य समाज की स्थापना में की। (पुस्तक : भगवान सिंह धामी)
आर्य समाज की स्थापना के साथ उत्तराखंड के विभिन्न क्षेत्रों में आर्य समाज मंदिरों की स्थापना की गई तथा विभिन्न शैक्षणिक सुधार कार्यक्रम चलाए गए।
- 4 मार्च 1902 में स्वामी श्रद्धानंद सरस्वती द्वारा हरिद्वार में गुरुकुल कांगड़ी की स्थापना की गई जिसे 1962 में विश्वविद्यालय का दर्जा प्राप्त हुआ।
- 15 सितंबर 1902 में आर्य समाज सेवी ज्योतिस्वरूप की पत्नी महादेवी के नाम पर देहरादून में महादेवी कन्या पाठशाला की स्थापना की गई।
सामाजिक सुधार क्षेत्र में विशेष तौर पर दलित उत्थान आंदोलन में आर्य समाज का विशेष महत्व रहा। हरिप्रसाद टम्टा ने कुमाऊं में 1905 में "टम्टा सुधार सभा" का गठन किया गया। आर्य समाजी खुशीराम आर्य द्वारा 1906 अछूतों के लिए "शिल्पकार" शब्द के प्रयोग की मांग उठाई गई। 1911 में हरिप्रसाद टम्टा ने दलितों के लिए "शिल्पकार" शब्द का प्रयोग किया । जिसे 1911 में स्वीकारा गया और 1931 में मान्यता मिली।
(3) मायावती आश्रम की स्थापना (चम्पावत)
मायावती आश्रम रामकृष्ण मिशन की एक शाखा है । रामकृष्ण मिशन के संस्थापक विवेकानंद थे। स्वामी विवेकानंद प्रथम बार 1890 में उत्तराखंड आए और अल्मोड़ा के निकट "काकड़ीघाट" नामक स्थान पर पीपल वृक्ष के नीचे कोसी नदी के तट पर तप करते हुए उन्हें ज्ञान की प्राप्ति हुई। स्वामी विवेकानंद दूसरी बार वर्ष 1897 में उत्तराखंड की यात्रा और काठगोदाम (हल्द्वानी) पहुंचे थे।
विवेकानंद के शिष्य स्वामी स्वरूपानंद के सहयोग से 19 मार्च 1899 को अंग्रेज शिष्य "एच. सेवियर" ने रामकृष्ण मिशन की एक शाखा "मायावती आश्रम" की स्थापना चम्पावत में की। इसे अद्वैत आश्रम भी कहा जाता है। मायावती आश्रम के प्रथम अध्यक्ष स्वामी स्वरूपानंद बने । 3 जनवरी 1901 में स्वामी विवेकानंद मायावती आश्रम आए और 15 दिन तक रहे थे। यहीं से स्वामी जी ने "प्रबुद्ध भारत पत्र" प्रकाशित किया। इसके अलावा स्वामी विवेकानंद के दो प्रमुख शिष्य शारदानंद एवं बैकुण्ठानंद अल्मोड़ा में निवास करते थे।
(4) गढवाल हितकारिणी सभा (1901)
19 अगस्त 1901 को तारादत्त गैरोला एवं सहयोगियों द्वारा "गढ़वाल हितकारिणी सभा" की स्थापना की गई तथा बाद में इसी सभा का नाम "गढ़वाल यूनियन" कर दिया गया। इस संस्था ने मई 1905 में "गढ़वाली नामक मासिक पत्रिका" का प्रकाशन देहरादून से प्रारंभ किया।
संघ के प्रमुख कार्य
- जनता को शिक्षित करना
- स्कूलों की मांग करना
- पुरानी निरर्थक प्रथाओं के निवारण के लिए लोगों को जाग्रत करना जैसे कन्या विक्रय, वर मूल्य प्रथा, मदिरा सेवन और पशु बलि जैसी बुराईयों का अन्त करना।
(5) हैप्पी क्लब की स्थापना (1903)
अल्मोड़ा में गोविंद बल्लभ पंत तथा हरगोविंद पंत के प्रयत्नों से 1903 में "हैप्पी क्लब" की स्थापना हुई । पंत जी ने हाई स्कूल में पढ़ते हुए इस संगठन की स्थापना की गई थी। इसका प्रमुख उद्देश्य नवयुवकों को में राजनीतिक चेतना का संचार करना था। इसकी सदस्य संख्या सीमित रखी गई तथा इसकी अधिकांश बैठकें शहर से बाहर किसी एकांत स्थान पर होती थी सन् 1905 में बंगाल विभाजन के विरोध में अल्मोड़ा के नव युवकों ने जनता को संगठित कर सभा आयोजित की तथा जनता को ब्रिटिश सरकार के अत्याचारों से अवगत कराया धीरे-धीरे उत्तराखंड का राजनीतिक वातावरण भी गर्म होने लगा था।
( 6) सरोला सभा (1904) - प्रथम जातीय सभा
सरोला सभा की स्थापना सन् 1904 में "तारा दत्त गैरोला" द्वारा की गई थी। यह गढ़वाल की प्रथम जातीय सभा थी। इसका मुख्यालय टिहरी में स्थापित किया गया था। गढ़वाल के ब्राह्मणों के एक छोटे से हिस्से का प्रतिनिधित्व करने वाली इस सभा ने सरोला ब्राह्मणों के ही सामाजिक और शैक्षिक उत्थान करने का लक्ष्य निर्धारित किया । टिहरी के राजा और राज परिवार के सदस्यों द्वारा भी सभा का प्रोत्साहन देते हुए सहयोग प्रदान किया गया था बद्रीनाथ के रावल इस के सभापति थे। सभा का मानना था कि सरोला ब्राह्मणों को खेती में हल जोतने जैसा कार्य नहीं करना चाहिए।
(7) गढ़वाल भातृमंडल (1907)
मथुरा प्रसाद नैथानी के नेतृत्व में सन 1907 में लखनऊ में "गढ़वाल भातृमंडल" की स्थापना की गई। इसका प्रथम अधिवेशन 1908 में कोटद्वार में हुआ था जिसकी अध्यक्षता कुलानंद बड़थ्वाल ने की थी। उसके बाद
- द्वितीय अधिवेशन 1909 - प्रताप सिंह (टिहरी)
- तृतीय अधिवेशन 1910 - चक्रधर जुयाल (श्रीनगर)
- छठां अधिवेशन 1913 - इस अधिवेशन में दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों के विरुद्ध हुए अत्याचार पर खेद प्रकट किया गया था।
गढ़वाल भातृमंडल संघ का प्रमुख लक्ष्य
- गढ़वाल के बहुपक्षीय विकास के साथ विभिन्न जातियों के मध्य बंधुत्व सहयोग की भावना उत्पन्न करना था ।
- जातीय सभाओं स्थापना के सिद्धांत का विरोध करना था। इन्होंने सरोला सभा, चौथों की सभा, और ब्राह्मण सभा का कड़ा विरोध किया।
- सामाजिक कुरीतियां को दूर करना
(8) गौरक्षणी सभा (1907)
कोटद्वार में गायों की रक्षा करने धनीराम शर्मा ने 1907 में गौरक्षणी सभा की स्थापना की थी ।
(9) कुली एजेंसी
जोध सिंह नेगी ने 1908 में कुली एजेंसी की स्थापना की थी। इसके अलावा प्रताप सिंह नेगी के साथ मिलकर सन 1919 में क्षत्रिय सभा की स्थापना की थी।
भारत में कांग्रेस की स्थापना -1885
भारत में लॉर्ड डफरिन के कार्यकाल में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना 28 दिसंबर 1885 को ए. ओ. ह्यूम ने बम्बई की थी। कांग्रेस के प्रथम अधिवेशन की अध्यक्ष "व्योमेश चन्द्र चटर्जी" थे। सन् 1885 ईस्वी में कांग्रेस की स्थापना से देश के समस्त विभागों के शिक्षित व्यक्तियों में एक नई दिशा की ओर सोचने की प्रवृत्ति का दिव्यता से विकास हुआ। यह नई दिशा राजनीतिक सामाजिक सुधार के साथ-साथ भारतीय राष्ट्रीयता की थी। अध्यापक, वकील, संपादक, भूतपूर्व अधिकारी तथा समाज सुधारकों का क्षेत्र में वर्चस्व था । प्रारंभ में कांग्रेस का सरकार द्वारा समर्थन किया गया। परंतु जब कांग्रेस के कार्य सरकार के कार्यों में आड़े आने लगे तो दोनों के बीच कटुता बढ़ गई । कांग्रेसी सरकार से जनहित की अपेक्षा करते जबकि सरकार जनहित अपने शब्दों के करने के पक्ष में थी। कांग्रेस का दूसरा अधिवेशन 1886 में कलकत्ता में हुआ था जिसकी अध्यक्षता दादा भाई नौरोजी ने की थी। कांग्रेस के दूसरे अधिवेशन - 1886 में उत्तराखंड से प्रथम बार कुमाऊं क्षेत्र के प्रतिनिधित्व करने वाले "ज्वाला दत्त जोशी" सहित दो लोग भी शामिल हुए थे।
निष्कर्ष
विद्यालयों की संख्या में वृद्धि के साथ छात्रों की संख्या में भी वृद्धि हुई। शिक्षा के प्रसार से उत्तराखंड में भी आधुनिक विचारधारा तथा राष्ट्रीय भावना का भी उदय होने लगा। इस प्रकार शिक्षा के प्रसार के द्वारा राष्ट्रीयता के बीज बो दिए गए। क्षेत्र में जैसे-जैसे आधुनिक शिक्षा में शिक्षित लोगों की संख्या बढ़ने लगी वैसे वैसे राजनीतिक सामाजिक चेतना में भी वृद्धि होने लगी।
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