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महरुढ़ी कस्तूरी मृग अनुसंधान केंद्र

महरुढ़ी कस्तूरी मृग अनुसंधान केंद्र (बागेश्वर) कस्तूरी मृग - उत्तराखंड का राज्य पशु  कस्तूरी मृग के महत्व को देखते हुए उत्तराखंड राज्य सरकार ने कस्तूरी मृगों के संरक्षण के लिए 2001 में राज्य पशु घोषित किया। वर्ष 1972 में कस्तूरी मृग संरक्षण के लिए केदारनाथ वन्य जीव विहार के अंतर्गत कस्तूरी मृग विहार की स्थापना की गई । और वर्ष 1974 में बागेश्वर जनपद में महरूड़ी कस्तूरी मृग अनुसंधान की स्थापना की।                    महरूड़ी कस्तूरी मृग अनुसंधान केन्द्र  यह केंद्र कस्तूरी मृग संरक्षण और अनुसंधान के लिए समर्पित है जो एक लुप्तप्राय प्रजाति है, बागेश्वर जनपद गठन से पूर्व महरूड़ी कस्तूरी मृग अनुसंधान केन्द्र की स्थापना वर्ष 1974 में पिथौरागढ़ जनपद में की गई थी। किन्तु 15 सितंबर 1997 में बागेश्वर जनपद के गठन के पश्चात् वर्तमान में यह केंद्र उत्तराखंड राज्य के बागेश्वर जिले में महरूढ़ी धरमघर नामक स्थान पर स्थित है।                  महरुढ़ी कस्तूरी मृग अनुसंधान केन्द्र  *कुछ पुस्तकों में इसकी स्थापना का समय 1977 दिया गया है। और आयोग ने परीक्षा में यह प्रश्न अनेक बार पूछा है और आयोग द्वारा स्थापना व

ब्रिटिश कुमाऊं कमिश्नर : उत्तराखंड

ब्रिटिश कुमाऊं कमिश्नर

उत्तराखंड

1815 में गोरखों को पराजित करने के पश्चात उत्तराखंड में ईस्ट इंडिया कंपनी के माध्यम से ब्रिटिश शासन प्रारंभ हुआ। उत्तराखंड में अंग्रेजों की विजय के बाद कुमाऊं पर ब्रिटिश सरकार का शासन स्थापित हो गया और गढ़वाल मंडल को दो भागों में विभाजित किया गया। ब्रिटिश गढ़वाल और टिहरी गढ़वाल। अंग्रेजों ने अलकनंदा नदी का पश्चिमी भू-भाग पर परमार वंश के 55वें शासक सुदर्शन शाह को दे दिया। जहां सुदर्शन शाह ने टिहरी को नई राजधानी बनाकर टिहरी वंश की स्थापना की । वहीं दूसरी तरफ अलकनंदा नदी के पूर्वी भू-भाग पर अंग्रेजों का अधिकार हो गया। जिसे अंग्रेजों ने ब्रिटिश गढ़वाल नाम दिया।

उत्तराखंड में ब्रिटिश शासन - 1815

ब्रिटिश सरकार कुमाऊं के भू-राजनीतिक महत्व को देखते हुए 1815 में कुमाऊं पर गैर-विनियमित क्षेत्र के रूप में शासन स्थापित किया अर्थात इस क्षेत्र में बंगाल प्रेसिडेंसी के अधिनियम पूर्ण रुप से लागू नहीं किए गए। कुछ को आंशिक रूप से प्रभावी किया गया तथा लेकिन अधिकांश नियम स्थानीय अधिकारियों को अपनी सुविधानुसार प्रभावी करने की अनुमति दी गई। गैर-विनियमित प्रांतों के जिला प्रमुखों को सीनियर असिस्टेंट कमिश्नर और बाद में डिप्टी कमिश्नर कहा गया।

विनियमित क्षेत्र (regulation territory)

ब्रिटिश काल में जिन प्रांतों को किसी गवर्नर के अधीन रखा जाता था और जहां सरकार द्वारा बनाए गए नियम लागू होते थे। उन्हें विनियमित क्षेत्र (रैग्युलेशन प्रांत) कहा जाता था।

गैर-विनियमित क्षेत्र (non - regulation territory)

ब्रिटिश काल में जिन प्रांतों को मुख्य आयुक्त (chief commissioner) के अधीन रखा जाता था और जहां सरकार द्वारा बनाए नियम लागू नहीं होते थे उन्हें गैर- विनियमित क्षेत्र कहा जाता था।

        ब्रिटिश कुमाऊं के कमिश्नर

                  पार्ट - 01

कुमाऊं में कुल 23 ब्रिटिश कमिश्नर व एक भारतीय कमिश्नर रहा है। कुमाऊं का प्रथम ब्रिटिश कमिश्नर ई. गार्डनर था। और ब्रिटिश कुमाऊं का 23 वा कमिश्नर डब्ल्यू फिनले जो 1943 से 1947 तक इस पद पर बना रहा। भारत में स्वतंत्रता के समय कुमाऊं कमिश्नर डब्ल्यू फिनले ही था । कुमाऊं में स्वतंत्रता के बाद 1947 से 1948 ईस्वी तक के.एल. मेहता ने कुमाऊं कमिश्नर का पद संभाला। 

(1) ई. गार्डनर  - (1815-1816)

कुमाऊं के प्रथम कमिश्नर एडवर्ड गार्डनर थे गोरखों को पराजित करने के पश्चात 3 मई 1815 में ई. गार्डनर को ब्रिटिश कुमाऊ का प्रथम कमिश्नर नियुक्त किया गया। गार्डनर ने कुमाऊं में 9 महीने शासन किया। 

प्रमुख कार्य

  • सर्वप्रथम गार्डनर को गोरखा युद्ध के पश्चात काठमांडू कोर्ट में कंपनी के राजनीतिक एजेंट के रूप में कार्यभार करने का आदेश प्राप्त हुआ।
  • कुमाऊं कमिश्नर गार्डनर के कार्यकाल में कुमाऊं पर प्रथम भूमि बंदोबस्त लागू किया। जिसे एकसाला बंदोबस्त कहा गया।
  • गार्डनर ने अल्मोड़ा से श्रीनगर तक डाक व्यवस्था लागू की।

(2) जार्ज विलियम ट्रेल - (1816-1835)

कुमाऊ का दूसरा कमिश्नर जॉर्ज विलियम ट्रेल था। ट्रेल को कुमाऊ का वास्तविक कमिश्नर कहा जाता है। गार्डनर के कमिश्नर बनने के 2 महीने बाद ही ट्रेल को उनके सहायक के रूप में कुमाऊं भेज दिया जाता है। कमिश्नर ट्रेल ने अपने 20 वर्ष के कार्यकाल में एक पूर्णतः नई व्यवस्था लागू की । 

ट्रेल के प्रमुख कार्य

  • ट्रेल द्वारा 1816 में संपूर्ण उत्तराखंड में डाक सेवा लागू की गई। साथ ही 1816 में अल्मोड़ा जेल की स्थापना की तथा 1821 में पौड़ी जेल की स्थापना की गई।
  • ट्रेल के कार्यकाल में 1817 में देहरादून को सहारनपुर में शामिल कर दिया गया।
  • ट्रेल ने हल्द्वानी शहर में अपने लिए बंगला बनाया था जिसे खाम का बंगला कहा जाता है। आधुनिक हल्द्वानी का निर्माण 1834 में विलियम ट्रेल ने किया था।
  • प्रारंभ में ट्रेल ने 1819 में समस्त कुमाऊं के लिए 9 पटवारी की नियुक्ति की। और सन् 1822 में आबकारी विभाग की स्थापना की ।
  • कुमाऊं में पटवारी पद सृजन करने का श्रेय ट्रेल को दिया जाता है।
  • ट्रेल ने मजबूत आर्थिक व्यवस्था स्थापित करने के लिए कुमाऊं को सन् 1823 में 26 परगनों में बांट दिया। लेकिन 26 परगनों के लिए 9 पटवारी काफी नहीं थे। तत्पश्चात 1825 में पटवारियों की बढ़ाकर 17 कर दी। पटवारियों ने तेजी से कार्य करते हुए गांव की सीमा और इन सीमाओं के अंतर्गत आने वाली भूमि, वन, पानी आदि प्राकृतिक संसाधनों की माप की और रजिस्टर में रिकॉर्ड रख दिए । 
  • ट्रेल के कार्यकाल में कुमाऊं के ग्रामीणों को इतिहास में पहली बार अपने गांव की सीमा ज्ञात हुई। 5 वर्षों में ही पटवारियों की जिम्मेदारी और कार्य का आकार अत्यधिक बढ़ गया। जिस कारण एक बार पुनः पटवारियों की संख्याओं में वृद्धि की और 1830 तक आते-आते 63 हो गई। 

पटवारी का कार्य

  • (1) लगान वसूलना
  • (2) किसानों को प्रयोजन हेतु हतोत्साहित करना
  • (3) आपसी लड़ाई झगड़ों का स्थानीय निपटारा
  • (4) विवाहित परिस्थितियों में सदर कचहरी को सूचना देना
  • (5) दुर्घटना व आत्महत्या आदि की तहसीलदार को सूचना देना।

ट्रेल में अपने कार्यकाल में कुल 7 बंदोबस्त लागू किए।

  • दूसरा भूमि बन्दोबस्त (1816)
  • तीसरा भूमि बन्दोबस्त (1817)
  • चौथा भूमि बन्दोबस्त (1820)
  • पांचवां भूमि बन्दोबस्त (1823) - पंचसाला बंदोबस्त को ब्रिटिश कुमाऊ में ट्रेल ने 1823 में लागू किया था।विक्रम संवत के अनुसार 1880 (1823 ईस्वी) में लागू किया गया था। जिस कारण इसे अस्सी साला बंदोबस्त के नाम से जाना जाता है। इसमें लगान की दर का निर्धारण 5 वर्षों के लिए होता था। जिस कारण इसे पंचसाला बंदोबस्त भी कहा जाता है। 
  • छठवां भूमि बन्दोबस्त (1828)
  • सातवां भूमि बन्दोबस्त (1833)

1 दिसंबर 1835 ट्रेल सेवानिवृत्त हो गए।

(3) कर्नल जार्ज गोबान (1836-1838)

ब्रिटिश कुमाऊं में तीसरे कमिश्नर के रूप में कर्नल जॉर्ज गोबान को नियुक्त किया गया उन्होंने अपने 2 वर्ष के कार्यकाल में दास प्रथा बाल विक्रय व महिला विक्रय जैसी कुप्रथाओं का अंत किया।

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(4) जार्ज टॉमस लुशिंगटन - (1838-1848)

ब्रिटिश कुमाऊं का चौथा कमिश्नर जॉर्ज टॉमस लुशिंगटन था जिसका कार्यकाल 30 नवंबर 1838 से 25 अक्टूबर 1848 तक रहा। सन् 1839 में कुमाऊं कमिश्नर लुशिंगटन के कार्यकाल में अल्मोड़ा और ब्रिटिश गढ़वाल जनपदों की स्थापना की गयी। लुशिंगटन की सहायता के लिए हैलिट बैटन को सीनियर असिस्टेंट कमिश्नर एवं सेटलमेंट ऑफिसर के रूप में नियुक्त किया गया। इससे पहले बैटन कमिश्नर गोबान के सहायक के रूप में कार्य कर चुके थे।

प्रमुख कार्य

  • लुशिंगटन के कार्यकाल में बैटन के द्वारा सन 1840 ईस्वी में बीस साला बंदोबस्त लागू किया गया। जिसकी मुख्य विशेषता खसरा सर्वेक्षण था।
  • लुशिंगटन के कार्यकाल में सर्वप्रथम अंग्रेजों ने 1840 में श्रीनगर में एलिमेंट्री वर्नाकुलर स्कूल की स्थापना की।
  • लुशिंगटन के कार्यकाल में नैनीताल का नगरीकरण प्रारंभ हुआ। नैनीताल की खोज 1841 में पी. बैरन ने की थी। 
  • लुशिंगटन कार्यकाल में 1845 में खैराना-नैनीताल मार्ग पर कार्य आरंभ किया। और लुशिंगटन ने 1848 में बागेश्वर में स्थित गोमती नदी के ऊपर पुल का निर्माण करवाया।
  • सन 1847 में एक सर्जन नियुक्त किया। और 1848 में अल्मोड़ा में एक डिस्पेंसरी कमेटी गठित की गई साथ ही औषधालय की स्थापना भी करवायी।

(5) जॉन हैलिट बैटन (1848-1856)

ब्रिटिश कुमाऊं का पांचवा कमिश्नर जॉन हैलिट बैटन था। जॉन हैलिट बैटन के कार्यकाल को ब्रिटिश शासन का कुमाऊं का स्वर्णिम युग माना जाता है। बैटन कमिश्नर की नियुक्ति से पूर्व 1836-1838 में तीसरे कमिश्नर गोबान के सहायक रहे और बाद में बैटन ने कमिश्नर लुशिंगटन के साथ 12 वर्ष सहायक रुप कार्य किया।

जॉन हैलिट बैटन के प्रमुख कार्य

  • ब्रिटेन ने शासन के प्रारंभ में ही दास प्रथा का अंत कर दिया साथ ही नए कानून और नई सहिताएं बनाई।
  • बैटन के द्वारा सन 1840 ईस्वी में बीस साला बंदोबस्त लागू किया गया। जिसकी मुख्य विशेषता खसरा सर्वेक्षण था। 
  • जॉन हैलिट बैटन ने अशिक्षित पटवारियों को हटाकर प्रशिक्षित पटवारियों की नियुक्ति की।
  • बैटन के शासनकाल में चाय की खेती की शुरुआत के साथ तेजी से सर्वाधिक विस्तार हुआ। 1852-53 के लगभग कौसानी, बेनीनाग मेगड़ी, डुंगलोट आदि स्थानों में चाय के बगीचे स्थापित किए गए। साथ ही चाय बागान के लिए बंजर भूमि के आवंटन के लिए पहली बार कानून बनाया गया।
  • बैटन के कार्यकाल में डाक बंगलों के रखरखाव की ओर विशेष ध्यान दिया गया
  • बैटन के कार्यकाल में 1849 में अल्मोड़ा के दवा खाने की तारागढ़ और लोहाघाट में शाखाएं स्थापित की गई।
  • सन् 1854 में डॉक्टर पियरन के द्वारा नए किस्म के टीका लगाने वाले वैक्सीनेटर से टीकाकरण का काम शुरू करवाया और अस्पतालों की स्थापना का सूत्रपात किया।
  • कमिश्नर स्ट्रैची व स्थायी निवासियों के सहयोग से गढ़वाल में लोहे के प्रथम संस्पेंशन पुल का निर्माण श्रीनगर में कराया जो 1853 में बनकर पूर्ण हुआ। 
  • 1854 में कुमाऊं मंडल का मुख्यालय नैनीताल में स्थापित किया गया।

(6) सर हैनरी रैम्जे (1856-1884)

ब्रिटिश कुमाऊं के 6वें कमिश्नर सर हेनरी रैमजे थे। रैम्जे ने कुमाऊं में कुल 44 वर्षों तक विभिन्न पदों पर कार्यरत थे। तथा कमिश्नर के रूप में 28 वर्षों तक प्रशासन संभाला। बैटन के बाद सर हेनरी रैमजे कुमाऊं के सर्वाधिक लोकप्रिय कमिश्नर थे। कुमाऊं में कमिश्नर की नियुक्ति से पूर्व वे कनिष्ठ सहायक कमिश्नर, वरिष्ठ सहायक कमिश्नर गढ़वाल व वरिष्ठ सहायक कमिश्नर कुमाऊं के पदों पर तैनात रहे।

             रैम्जे मूल रूप से स्कॉटलैंड के निवासी थे और गवर्नर जनरल डलहौजी के चचेरे भाई थे। रैमजे का विवाह पूर्व कमिश्नर लुशिंगटन की बेटी से हुआ था। रैम्जे पहाड़ी बोली बोलने में सक्षम थे और किसानों व मजदूरों से उनका मधुर व्यवहार था यहां तक कि रैम्जे उनके घरों से मंडुवे की रोटी खा लेते थे। कुमाऊं में इन्हें 'रामजी साहब' कहा था। रैमजे को 'कुमाऊं का बेताज बादशाह' भी कहा जाता है। रैमजे 4-4 महीने के अंतराल में बिनसर, अल्मोड़ा भाबर में निवास करते थे।

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सर हैनरी रैम्जे के कार्य

  • रैमजे ऐसे पहले ब्रिटिश कुमाऊं कमिश्नर थे जिसने कुमाऊं में अंग्रेजो को बसाने का विरोध किया
  • रैमजे ने उत्तराखंड में आपदा प्रबंधन का प्रथम प्रयास किया था।
  • रैमजे ने नैनीताल शहर को स्कूली शिक्षा के केंद्र के रूप में विकसित किया। तथा 1871 में कुमाऊं का पहला कॉलेज 'रैम्जे कॉलेज' अल्मोड़ा में खोला गया।
  • रैम्जे के कार्यकाल में पादरी विलियम बटलर ने नैनीताल में 1858 में भारत के प्रथम मैथोडिस्ट चर्च की स्थापना की।
  • रैमजे ने तराई भाभर के विकास हेतु 'तराई इंप्रूवमेंट फंड -1883' में स्थापित किया।
  • रैम्जे उत्तराखंड के कंजरवेटर के पद पर कार्य करते हुए ठेकेदारी प्रथा को समाप्त किया।
  • रैम्जे ने पहली बार कुमाऊं में आलू की खेती की शुरुआत की।
  • रैमजे के कार्यकाल के अन्तिम समय में वर्ष 1884 में काठगोदाम तक रेलमार्ग बनाया गया।

रैमजे के कार्यकाल में प्रमुख घटनाएं

  • भारत में प्रथम स्वतंत्रता संग्राम 1857 की क्रांति के समय ब्रिटिश कुमाऊं के कमिश्नर सर हैनरी रैम्जे थे
  • 1867 में नैनीताल में प्रथम बार भूस्खलन हुआ इसके कारणों का पता लगाने के लिए रैम्जे ने 'हिल साइट सेफ्टी कमेटी' गठित की।
  • रैमजे के कार्यकाल में नैनीताल में 1880 में संकट पूर्ण भूस्खलन हुआ जिसमें 151 लोग मारे गए।
  • रैम्जे के शासनकाल में विकेट बंदोबस्त 1863 ईसवी में पहली बार वैज्ञानिक पद्धति से भूमि बंदोबस्त व्यवस्था की गई । यह अंग्रेजो द्वारा लाया गया 9वां भूमि बंदोबस्त था।
  • अधिसूचित जिला अधिनियम 1874 पारित किया गया 1931 में कुमाऊं में वन पंचायतों के बनाए नियम इस अधिनियम के तहत थे।

1884 में सेवानिवृत्त बंद होने के बाद भी रैमजे 1892 तक अल्मोड़ा में रहे थे।



                   पार्ट -02

        ब्रिटिश कुमाऊं के कमिश्नर

(7) फिशर (1884-1885)

1884 में रैम्जे के बाद कुमाऊं का 7वां कमिश्नर फिशर को बनाया गया ।

(8) एच. जी. रोस (1885-1887)

एच. जी. रोस ब्रिटिश कुमाऊं का आठवां कमिश्नर था। रौस के कार्यकाल में सन् 1885 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना हुई। और लैंसडाउन (पौड़ी गढ़वाल) में सन् 1887 में गढ़वाल राइफल्स की स्थापना हुई ।

(9) जे. आर ग्रिग (1888-1889)

जे. आर ग्रिग के द्वारा कुमाऊं में सन् 1889 में हथियारों को रखने के लिए लाइसेंस नीति लागू की गई।

(10) जी. ई. अर्सकिन (1889-1892)

जी. ई. अर्सकिन के कार्यकाल में सन् 1891 में नैनीताल को अल्मोड़ा जनपद से अलग कर दिया गया। इस तरह 1891 के बाद कुमाऊं कमिश्नरी में जनपदों की कुल संख्या 3 हो गई। 

  1. अल्मोड़ा, 
  2. ब्रिटिश गढ़वाल 
  3. नैनीताल।

(11) डी.टी. रौबर्ट्स (1892-1894)

डी.टी. रौबर्ट्स के कार्यकाल में सन् 1893 नैनीताल में स्थित मुक्तेश्वर नामक स्थान पर 'पशु अनुसंधान संस्थान' की स्थापना की गई। और सन् 1894 ईस्वी में ब्रिटिश कालीन वन नीति लागू की गई।

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(12) ई.ई. ग्रिज (1894-1898)

ग्रिज के कार्यकाल में सन् 1897 ईसवी में पहली बार पृथक उत्तराखंड प्रांत की मांग महारानी विक्टोरिया के समकक्ष रखी गई।

(13) आर.ई. हैम्बलिन (सन् 1899-1902)

  • हैम्बलिन के कार्यकाल में सन् 1899-1990 ईसवी में दून में रेल का आगमन व 1901 में गढ़वाल यूनियन की स्थापना हुई।
  • 1902-1903 ईसवी में नैनीताल जेल की स्थापना हुई।

(14) ए.एम. डब्ल्यू. शेक्सपियर (1903-1905)

उत्तराखंड का प्रथम गढ़वाली समाचार पत्र का प्रकाशन 1905 ईस्वी में हुआ।

(15) जे. एस. कैम्पबेल (1906-1914)

कैम्पबेल ब्रिटिश कुमाऊ का 15वां कमिश्नर था। इसके कार्यकाल में वर्ष 1906 में ग्लोगी परियोजना का कार्य पूरा हुआ। ग्लोगी परियोजना देश की सबसे पुरानी जल विद्युत परियोजना है। 

कैम्पबेल के कार्यकाल की प्रमुख स्थापना

  • 1908 ईस्वी में जोध सिंह नेगी ने कुली एजेंसी की स्थापना हुई।
  • 1909 ईसवी में 'कुमाऊं गवर्नमेंट गार्डन' की स्थापना हुई।
  • 1912 ईस्वी में अल्मोड़ा कांग्रेस की स्थापना।
  • 1913 ईस्वी में अल्मोड़ा में होमरूल लीग की स्थापना हुई।

(16) पसीं विंढम (सन् 1914-1924)

ब्रिटिश कुमाऊं कमिश्नर पसीं विंढम के समय सन् 1915 ईस्वी में गांधी जी ने सर्वप्रथम हरिद्वार की यात्रा की थी। और 1916 ईस्वी में गांधीजी ने देहरादून की यात्रा की थी।

  • पसीं विंढम के कार्यकाल में 30 सितंबर 1916 ईस्वी में कुमाऊं परिषद की स्थापना की गई।
  • असहयोग आंदोलन 1920 के समय कुमाऊं कमिश्नर पीं. विंढम थे।
  • ब्रिटिश कुमाऊं कमिश्नर पसीं विंढम के कार्यकाल में 14 जनवरी 1921 ईस्वी में बद्रीदत्त पांडे, हरगोविंद पंत, व चिरंजीलाल आदि के नेतृत्व में बागेश्वर के सरयू नदी के तट पर उत्तरायणी मेले के दिन 40000 स्वतंत्रता सेनानियों द्वारा कुली बेगार प्रथा का अंत हुआ।
  • 1923 ईस्वी में कुली एजेंसी की समाप्ति।

(17) एन. सी. स्टिप्प (1925-1931)

  • 1929 ईस्वी नायक बालिका रक्षा कानून
  • 1929 ईस्वी में गांधी जी ने कुमाऊं की यात्रा की व हल्द्वानी, अल्मोड़ा, बागेश्वर, कौसानी आदि स्थानों पर कई सभाएं की।
  • 23 अप्रैल 1930 को 'पेशावर कांड' हुआ।
  • 30 मई 1930 ईस्वी में टिहरी रियासत में 'रवाई कांड' घटना घटित हुई।

(18) एल. एम. स्टब्स (1931-1933)

गोयन के कार्यकाल में सन् 1932 ईस्वी में गढ़वाल में जागृत गढ़वाल संघ की स्थापना हुई जिसमें 5 आना बड़ी लगान की दर का विरोध हुआ।

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(19) एल. ओ. गोयन (1933-1935)

गोयन के कार्यकाल में गढ़वाल में दलितों की बड़ी सभा का आयोजन श्रीनगर में 1935 ईस्वी में हुआ जिसके अध्यक्ष सी. एच. चौफिन थे जिसमें शिल्पकार सभा का गठन किया गया था

(20) ए. डब्ल्यू इबटसन (1935-1939)

1937 ईसवी में अल्मोड़ा के चनौदा नामक स्थान पर शांतिलाल त्रिवेदी ने गांधी आश्रम की स्थापना की.

(21) जी. एल. वीवियन (1939-41)

वीवियन के कार्यकाल में उत्तराखंड में व्यक्तिगत सत्याग्रह प्रारंभ हुआ। व्यक्तिगत सत्याग्रह की पहली बैठक डाडामांडी नामक स्थान में हुई। उत्तराखंड में प्रथम व्यक्तिगत सत्याग्रह जगमोहन सिंह नेगी थे।

(22) टी. जे. सी. एक्टन (1941-1943)

  • एक्टन के कार्यकाल में भारत छोड़ो आंदोलन (1942) की शुरुआत हुई। 18 अगस्त 1942 को देघाट में पुलिस ने आंदोलनकारियों पर गोली चलाई।
  • एक्टन के कार्यकाल में सलाम की क्रांति 25 अगस्त 1942 को हुयी।
  • 5 सितंबर 1942 को सल्ट क्षेत्र के खुमाड़ के कांग्रेस मुख्यालय के अंग्रेजों ने आंदोलनकारियों पर गोली चलाई

(23) डब्ल्यू. डब्ल्यू. फिनले (1943-1947)

  • ब्रिटिश कुमाऊं का 23वां कमिश्नर डब्ल्यू फिनाले था जो 1943 से 1947 तक इस पद पर बना रहा।
  • कुमाऊं कमिश्नर डब्ल्यू फिनले के कार्यकाल में कुमाऊं रेजिमेंट की स्थापना 27 अक्टूबर 1945 को आगरा में हुई थी। तथा स्वतंत्रता के बाद 1948 में कुमाऊं रेजिमेंट का मुख्यालय आगरा से रानीखेत लाया गया।
  • भारत स्वतंत्रता के समय कुमाऊं कमिश्नर डब्ल्यू फिनले ही था।

(24) के.एल. मेहता (1947-1948)

  • कुमाऊं में स्वतंत्रता के बाद 1947 से 1948 तक के. एल. मेहता ने कुमाऊं कमिश्नर का पद संभाला।

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चंद राजवंश का इतिहास पृष्ठभूमि उत्तराखंड में कुणिंद और परमार वंश के बाद सबसे लंबे समय तक शासन करने वाला राजवंश है।  चंद वंश की स्थापना सोमचंद ने 1025 ईसवी के आसपास की थी। वैसे तो तिथियां अभी तक विवादित हैं। लेकिन कत्यूरी वंश के समय आदि गुरु शंकराचार्य  का उत्तराखंड में आगमन हुआ और उसके बाद कन्नौज में महमूद गजनवी के आक्रमण से ज्ञात होता है कि तो लगभग 1025 ईसवी में सोमचंद ने चंपावत में चंद वंश की स्थापना की है। विभिन्न इतिहासकारों ने विभिन्न मत दिए हैं। सवाल यह है कि किसे सच माना जाए ? उत्तराखंड के इतिहास में अजय रावत जी के द्वारा उत्तराखंड की सभी पुस्तकों का विश्लेषण किया गया है। उनके द्वारा दिए गए निष्कर्ष के आधार पर यह कहा जा सकता है । उपयुक्त दिए गए सभी नोट्स प्रतियोगी परीक्षाओं की दृष्टि से सर्वोत्तम उचित है। चंद राजवंश का इतिहास चंद्रवंशी सोमचंद ने उत्तराखंड के कुमाऊं मंडल में लगभग 900 वर्षों तक शासन किया है । जिसमें 60 से अधिक राजाओं का वर्णन है । अब यदि आप सभी राजाओं का अध्ययन करते हैं तो मुमकिन नहीं है कि सभी को याद कर सकें । और अधिकांश राजा ऐसे हैं । जिनका केवल नाम पता है । उनक

परमार वंश - उत्तराखंड का इतिहास (भाग -1)

उत्तराखंड का इतिहास History of Uttarakhand भाग -1 परमार वंश का इतिहास उत्तराखंड में सर्वाधिक विवादित और मतभेद पूर्ण रहा है। जो परमार वंश के इतिहास को कठिन बनाता है परंतु विभिन्न इतिहासकारों की पुस्तकों का गहन विश्लेषण करके तथा पुस्तक उत्तराखंड का राजनैतिक इतिहास (अजय रावत) को मुख्य आधार मानकर परमार वंश के संपूर्ण नोट्स प्रस्तुत लेख में तैयार किए गए हैं। उत्तराखंड के गढ़वाल मंडल में 688 ईसवी से 1947 ईसवी तक शासकों ने शासन किया है (बैकेट के अनुसार)।  गढ़वाल में परमार वंश का शासन सबसे अधिक रहा।   जिसमें लगभग 12 शासकों का अध्ययन विस्तारपूर्वक दो भागों में विभाजित करके करेंगे और अंत में लेख से संबंधित प्रश्नों का भी अध्ययन करेंगे। परमार वंश (गढ़वाल मंडल) (भाग -1) छठी सदी में हर्षवर्धन की मृत्यु के पश्चात संपूर्ण उत्तर भारत में भारी उथल-पुथल हुई । देश में कहीं भी कोई बड़ी महाशक्ति नहीं बची थी । जो सभी प्रांतों पर नियंत्रण स्थापित कर सके। बड़े-बड़े जनपदों के साथ छोटे-छोटे प्रांत भी स्वतंत्रता की घोषणा करने लगे। कन्नौज से सुदूर उत्तर में स्थित उत्तराखंड की पहाड़ियों में भी कुछ ऐसा ही हुआ। उत्

उत्तराखंड में भूमि बंदोबस्त का इतिहास

  भूमि बंदोबस्त व्यवस्था         उत्तराखंड का इतिहास भूमि बंदोबस्त आवश्यकता क्यों ? जब देश में उद्योगों का विकास नहीं हुआ था तो समस्त अर्थव्यवस्था कृषि पर निर्भर थी। उस समय राजा को सर्वाधिक कर की प्राप्ति कृषि से होती थी। अतः भू राजस्व आय प्राप्त करने के लिए भूमि बंदोबस्त व्यवस्था लागू की जाती थी । दरअसल जब भी कोई राजवंश का अंत होता है तब एक नया राजवंश नयी बंदोबस्ती लाता है।  हालांकि ब्रिटिश शासन से पहले सभी शासकों ने मनुस्मृति में उल्लेखित भूमि बंदोबस्त व्यवस्था का प्रयोग किया था । ब्रिटिश काल के प्रारंभिक समय में पहला भूमि बंदोबस्त 1815 में लाया गया। तब से लेकर अब तक कुल 12 भूमि बंदोबस्त उत्तराखंड में हो चुके हैं। हालांकि गोरखाओ द्वारा सन 1812 में भी भूमि बंदोबस्त का कार्य किया गया था। लेकिन गोरखाओं द्वारा लागू बन्दोबस्त को अंग्रेजों ने स्वीकार नहीं किया। ब्रिटिश काल में भूमि को कुमाऊं में थात कहा जाता था। और कृषक को थातवान कहा जाता था। जहां पूरे भारत में स्थायी बंदोबस्त, रैयतवाड़ी बंदोबस्त और महालवाड़ी बंदोबस्त व्यवस्था लागू थी। वही ब्रिटिश अधिकारियों ने कुमाऊं के भू-राजनैतिक महत्

उत्तराखंड की जनजातियों से संबंधित प्रश्न (उत्तराखंड प्रश्नोत्तरी -14)

उत्तराखंड प्रश्नोत्तरी -14 उत्तराखंड की प्रमुख जनजातियां वर्ष 1965 में केंद्र सरकार ने जनजातियों की पहचान के लिए लोकर समिति का गठन किया। लोकर समिति की सिफारिश पर 1967 में उत्तराखंड की 5 जनजातियों थारू, जौनसारी, भोटिया, बोक्सा, और राजी को एसटी (ST) का दर्जा मिला । राज्य की मात्र 2 जनजातियों को आदिम जनजाति का दर्जा प्राप्त है । सर्वप्रथम राज्य की राजी जनजाति को आदिम जनजाति का दर्जा मिला। बोक्सा जनजाति को 1981 में आदिम जनजाति का दर्जा प्राप्त हुआ था । राज्य में सर्वाधिक आबादी थारू जनजाति तथा सबसे कम आबादी राज्यों की रहती है। 2011 की जनगणना के अनुसार राज्य की कुल एसटी आबादी 2,91,903 है। जुलाई 2001 से राज्य सेवाओं में अनुसूचित जन जातियों को 4% आरक्षण प्राप्त है। उत्तराखंड की जनजातियों से संबंधित प्रश्न विशेष सूचना :- लेख में दिए गए अधिकांश प्रश्न समूह-ग की पुरानी परीक्षाओं में पूछे गए हैं। और कुछ प्रश्न वर्तमान परीक्षाओं को देखते हुए उत्तराखंड की जनजातियों से संबंधित 25+ प्रश्न तैयार किए गए हैं। जो आगामी परीक्षाओं के लिए महत्वपूर्ण साबित होंगे। बता दें की उत्तराखंड के 40 प्रश्नों में से 2

Uttrakhand current affairs in Hindi (May 2023)

Uttrakhand current affairs (MAY 2023) देवभूमि उत्तराखंड द्वारा आपको प्रतिमाह के महत्वपूर्ण करेंट अफेयर्स उपलब्ध कराए जाते हैं। जो आगामी परीक्षाओं में शत् प्रतिशत आने की संभावना रखते हैं। विशेषतौर पर किसी भी प्रकार की जॉब करने वाले परीक्षार्थियों के लिए सभी करेंट अफेयर्स महत्वपूर्ण साबित हो सकते हैं। उत्तराखंड करेंट अफेयर्स 2023 की पीडीएफ फाइल प्राप्त करने के लिए संपर्क करें।  उत्तराखंड करेंट अफेयर्स 2023 ( मई ) (1) हाल ही में तुंगनाथ मंदिर को राष्ट्रीय स्मारक घोषित किया गया है। तुंगनाथ मंदिर उत्तराखंड के किस जनपद में स्थित है। (a) चमोली  (b) उत्तरकाशी  (c) रुद्रप्रयाग  (d) पिथौरागढ़  व्याख्या :- तुंगनाथ मंदिर उत्तराखंड के गढ़वाल मंडल के रुद्रप्रयाग जिले में स्थित है। तुंगनाथ मंदिर समुद्र तल से 3640 मीटर (12800 फीट) की ऊंचाई पर स्थित एशिया का सर्वाधिक ऊंचाई पर स्थित शिवालय हैं। उत्तराखंड के पंच केदारों में से तृतीय केदार तुंगनाथ मंदिर का निर्माण कत्यूरी शासकों ने लगभग 8वीं सदी में करवाया था। हाल ही में इस मंदिर को राष्ट्रीय महत्त्व स्मारक घोषित करने के लिए केंद्र सरकार ने 27 मार्च 2023