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महरुढ़ी कस्तूरी मृग अनुसंधान केंद्र

महरुढ़ी कस्तूरी मृग अनुसंधान केंद्र (बागेश्वर) कस्तूरी मृग - उत्तराखंड का राज्य पशु  कस्तूरी मृग के महत्व को देखते हुए उत्तराखंड राज्य सरकार ने कस्तूरी मृगों के संरक्षण के लिए 2001 में राज्य पशु घोषित किया। वर्ष 1972 में कस्तूरी मृग संरक्षण के लिए केदारनाथ वन्य जीव विहार के अंतर्गत कस्तूरी मृग विहार की स्थापना की गई । और वर्ष 1974 में बागेश्वर जनपद में महरूड़ी कस्तूरी मृग अनुसंधान की स्थापना की।                    महरूड़ी कस्तूरी मृग अनुसंधान केन्द्र  यह केंद्र कस्तूरी मृग संरक्षण और अनुसंधान के लिए समर्पित है जो एक लुप्तप्राय प्रजाति है, बागेश्वर जनपद गठन से पूर्व महरूड़ी कस्तूरी मृग अनुसंधान केन्द्र की स्थापना वर्ष 1974 में पिथौरागढ़ जनपद में की गई थी। किन्तु 15 सितंबर 1997 में बागेश्वर जनपद के गठन के पश्चात् वर्तमान में यह केंद्र उत्तराखंड राज्य के बागेश्वर जिले में महरूढ़ी धरमघर नामक स्थान पर स्थित है।                  महरुढ़ी कस्तूरी मृग अनुसंधान केन्द्र  *कुछ पुस्तकों में इसकी स्थापना का समय 1977 दिया गया है। और आयोग ने परीक्षा में यह प्रश्न अनेक बार पूछा है और आयोग द्वारा स्थापना व

गोरखा शासन : उत्तराखंड का इतिहास

    उत्तराखंड का इतिहास

          गोरखा शासन (भाग -1)

पृष्ठभूमि

मल्ल महाजनपद का इतिहास (आधुनिक नेपाल)

600 ईसा पूर्व जब 16 महाजनपदों का उदय हुआ। उन्हीं में से एक महाजनपद था - मल्ल (आधुनिक नेपाल का क्षेत्र)। प्राचीन समय में नेपाल भारत का ही हिस्सा था। मल्ल महाजनपद का उल्लेख बौद्ध ग्रंथ के "अगुंत्तर निकाय" में किया गया है। और जैन ग्रंथ के भगवती सूत्र में इसका नाम "मौलि या मालि" नाम से जनपद का उल्लेख है। मल्ल महाजनपद की प्रथम राजधानी कुशीनगर थी । कुशीनगर में गौतम बुद्ध के निर्वाण (मृत्यु) प्राप्त करने के बाद उनकी अस्थि-अवशेषों का एक भाग मल्लो को मिला था । जिसके संस्मारणार्थ उन्होंने कुशीनगर में एक स्तूप या चैत्य का निर्माण किया था। मल्ल की वित्तीय राजधानी पावा थी । पावा में ही महावीर स्वामी को निर्वाण प्राप्त हुआ था । 
               322 ईसा पूर्व समस्त उत्तर भारत में मौर्य साम्राज्य ने अपना शासन स्थापित कर लिया था। मल्ल महाजनपद भी मौर्यों के अधीन आ गया था। गुप्त वंश के बाद उत्तर भारत की केंद्र शक्ति कमजोर हो गई । जिसके बाद  लगभग 5वीं सदीं में वैशाली से आए 'लिच्छवी वंश' ने मल्ल महाजनपद में राज्य स्थापित किया। लगभग 350 वर्ष शासन करने के बाद लिच्छवी वंश भी अस्त-व्यस्त हो गया। और 879 में 'नेवार युग' का उदय हुआ। नेवार नेपाल की एक जाति थी। 
                12 वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में मल्ल राजवंश का उदय हुआ। यह राजवंश कुमाऊ के चंद वंश और गढ़वाल के परमार वंश के समकालीन था। इन्होंने कुमाऊं के खसों पर कुछ वर्षों तक शासन भी किया था। इन्हीं के शासनकाल को नेपाल का स्वर्ण युग भी कहा जाता है। इन्होंने नेपाल पर लगभग 550 वर्षों तक शासन किया। मल्ल राजवंश के आंतरिक क्लेश उत्पन्न होने के कारण यह 16वीं शताब्दी के पूर्वार्ध 3 क्षेत्रों में बंट गया। (1) कांतिपुर (2) ललितपुर (3) भक्तपुर । क्षेत्रों के विभाजन होने से मल्लो के शासन व्यवस्था की अवनति होने लगी और अंतिम वर्षों में समस्त नेपाल 24 रियासतों में बंट गया। सभी रियायत अपनी मनमानी करने लगी । राज्यों में अशांति फैल गई। ऐसे में गोरखा राज्य रियासत के राजा पृथ्वी नारायण शाह ने नेपाल की बागडोर संभाली। 
              1765 ईस्वी में सभी रियासतों का एकीकरण करके गोरखा साम्राज्य स्थापित किया। पृथ्वी नारायण शाह का जन्म गोरखाली राजाओं के शाह वंश में हुआ था । उनके पिता का नाम नरभूपाल शाह था और माता पाल्पा की राजकुमारी कौशल्यावती देवी था। पृथ्वी नारायण शाह को आधुनिक नेपाल का जनक माना जाता है। उन्होंने नेपाल के विकास लिए अनेकों कार्य करवाएं और गोरखा साम्राज्य का विस्तार किया। पृथ्वी नारायण शाह की मृत्यु के बाद उनके पुत्र प्रताप सिंह राजा बने। प्रताप शाह ने 1778 ईस्वी तक नेपाल पर शासन किया। वर्ष 1778 ईस्वी में रण बहादुर शाह राजा बना जिसकी संरक्षिका रानी इंद्र लक्ष्मी थी। रण बहादुर शाह 1778 ई. से 1804 ई. तक नेपाल का राजा था। जब उनके राज में उनके चाचा बहादुर शाह के नेतृत्व में गोरखा सेना पश्चिम की ओर बढ़ी और 1790 ईस्वी में कुमाऊं के राजा महेंद्र चंद्र को हराकर कुमाऊं पर अधिकार कर  लिया। उस समय रण बहादुर शाह केवल 15 वर्ष का थाा।

कुमाऊं पर गोरखा शासन - 1790 ई.


गोरखा अत्यंत लड़ाकू और बहादुर थे। इनकी सत्ता सैनिक शासन पर आधारित थी। कुमाऊं के एक मंत्री हर्ष देव जोशी के कहने पर जनवरी 1790 ईस्वी में बहादुर शाह (हस्तिदल चौतरिया) के नेतृत्व में सेनापति अमर सिंह थापा और शूरवीर थापा व काजी जगजीत जगजीत पांडे के साथ कुमाऊं पर कूच किया । इस समय कुमाऊं में अव्यवस्था और अशांति का माहौल था। राजनैतिक, सामाजिक व आर्थिक दशा अत्यधिक दयनीय थी । सामाजिक व्यवस्थाकारों ने ऐसी व्यवस्था स्थापित कर रखी थी कि एक-एक वर्ण सौ-सौ उप-जातियों में विभाजित हो गया था तो दूसरी तरफ इसी का फायदा उठाते हुए गोरखा सेना ने काली नदी को पार कर सेना को दो भागों में विभाजित करके गांव की तरफ तेजी से बढ़े। जनवरी की कड़क ठंड के साथ एक दल झुलाघाट से सोर (पिथौरागढ़) होता हुआ। गंगोलीघाट व सेराघाट की ओर बढ़ा तो दूसरे दल ने सीधे अल्मोड़ा पर आक्रमण कर दिया। इससे कुमाऊं में हाहाकार मच गया तथा लोग घर द्वार छोड़कर इधर-उधर भागने लगे। 
               इस समय कुमाऊं का राजा महेंद्र चंद्र था । महेंद्र चंद्र ने सेना को एकत्रित कर बहादुरी से सामना किया और पहली ही लड़ाई में अमर सिंह थापा की फौज को परास्त कर दिया। दूसरी तरफ महेंद्र चंद का सेनापति लाल सिंह भी एक सैनिक टुकड़ी के साथ काली कुमाऊं की ओर बढ़ा और वहां गोरखा सैनिकों के बीच भयंकर मार काट हुई। किंतु गैतोड़ा गांव के समीप कटोलगढ़ में लाल सिंह की पराजय हुई और गोरखाओं ने उसके 200 सैनिकों का बेरहमी से कत्ल कर दिया । लाल सिंह भय से मैदान छोड़कर भाग गया । लाल सिंह की सेना का कत्लेआम सुनकर महेंद्र चंद्र भी भयभीत हो उठा। और अंत में 1790 ईस्वी हवालबाग में हुए साधारण युद्ध में चंद राजा महेंद्र चंद परास्त हुआ। इस प्रकार 1790 ईस्वी में गोरखाओं ने अल्मोड़ा पर अधिकार कर लिया।

गोरखाओं ने कुमाऊं पर 1790 ईसवी से लेकर 1815 ईसवी तक शासन किया। गोरखाओं का कुमाऊं में 25 वर्ष का शासन रहा था। गोरखाओं का राजा नेपाल में शासन करता था और कुमाऊं जैसे प्रांतों में गवर्नर शासन करते थे जिन्हें सुब्बा या सूबेदार कहा जाता था। 

कुमाऊ के गोरखा सूबेदार

  1. जोग मल्ल शाह (1791-92) - कुमाऊं पर गोरखाओं के अधिकार के बाद प्रथम गोरखा सूबेदार या सुब्बा जोग मल्ल शाह नियुक्त हुआ। गोरखाओं द्वारा कुमाऊं में पहला भूमि बंदोबस्त (1791-1792) 'सुब्बा जोग मल्ल' द्वारा लाया गया। जिसके तहत कुमाऊं में 20 नाली जमीन पर ₹1 टैक्स लगाया गया।  
  2. काजी नर शाही - कुमाऊं का दूसरा सूबेदार काजी नरशाही को बनाया गया था। नरशाही के काल में मंगलवार रात्रि कांड हुआ था जिसके लिए प्रचलित कहावत मंगल की रात और नर शाही का पाला है।
  3. अजब सिंह थापा - कुमाऊं का तीसरा सूबेदार अजब सिंह थापा को बनाया गया था। इस के समय में अल्मोड़ा के 1500 ग्राम प्रमुखों का सामूहिक नरसंहार हुआ था।
  4. रूद्रवीर सिंह 
  5. धौकल सिंह
  6. गोरेश्वर
  7. ऋतुराज
  8. चौतरिया बमशाह -1806 ईसवी में चौतरिया बमशाह सूबेदार बना जो 1814 ईसवी तक बना रहा। 
  9. फ्रेजर साहब बहादुर - 1815 ईसवी में फ्रेजर साहब बहादुर शाह सूबेदार बना था ।

गढ़वाल में गोरखा शासन

सन 1790 ईस्वी में जब गोरखाओं ने कुमाऊं पर अधिकार कर लिया तो गोरखा सैनिकों का ध्यान अब गढ़वाल की तरफ गया। इस समय गढ़वाल पर परमार वंश के राजा प्रदुम्न शाह राजगद्दी पर विराजमान थे । 1791 ईस्वी में हर्ष देव जोशी (हरक देव) की सहायता से गोरखा ने गढ़वाल पर हमला कर दिया और लंगूरगढ़ में दोनों सेनाओं का आमना-सामना हुआ। प्रद्युम्न शाह और उसकी सेना ने बहादुरी का परिचय लड़ेंं। फलस्वरूप गौरखाओं को पराजित कर संधि करने पर विवश कर दिया। 1792 ईस्वी में लंगूरगढ़ की संधि हुई। संधि के तहत् गोरखाओं से गढ़वाल पर कभी ना आक्रमण करने का वचन मांगा और साथ ही ₹25000 का वार्षिक कर भी लगाया। इसी समय 1791-92 ईस्वी में चीन ने तिब्बत पर आक्रमण कर दिया और माना जाता है कि इसी कारण गोरखाओं को संधि भी करनी पड़ी थी। और उन्हें वापस लौटना पड़ा। किंतु 1803 ईस्वी में भयंकर भूकंप से ग्रसित गढ़वाल की सैन्य शक्ति कमजोर हो गई । सामाजिक व आर्थिक व्यवस्था छिन्न-भिन्न हो गई । जिसका फायदा गोरखाओं को मिला और एक बार पुनः 1803 ईस्वी में गढ़वाल पर आक्रमण कर दिया । इस युद्ध में गढ़वाल की प्रजा ने राजा का पूरा सहयोग किया और प्रद्युम्न शाह ने  सैनिकों को एकत्रित कर बाराहाट (उत्तरकाशी) के मैदान में द्वितीय गोरखा युद्ध लड़ा। प्रद्युम्न शाह के नेतृत्व में सेना ने बहादुरी के साथ सामना किया और रोकने में सफलता प्राप्त की। लेकिन गोरखा जानते थे गढ़वाल आंतरिक रुप से कमजोर हो चुका है जिस कारण वे लगातार आक्रमण कर गढ़वाल को कमजोर कर रहे थे। गढ़वाल व गोरखा सेना के बीच तीसरा युद्ध चमुआ (चंबा) में हुआ। और यहीं से गोरखा आगे बढ़ते हुए अंतिम युद्ध 14 मई 1804 ईस्वी को खुड़बुड़ा (देहरादून) नामक मैदान में प्रदुम्न शाह युद्ध करते हुए वीरगति को प्राप्त हो गए । इस तरह इस युद्ध के पश्चात संपूर्ण गढ़वाल एवं कुमाऊं पर गोरखा का शासन स्थापित हो गया।

गढ़वाल के गोरखा सूबेदार

  • अमर सिंह थापा (1804) - गढ़वाल का पहला सूबेदार (सुब्बा) अमर सिंह थापा था। इसकी नियुक्ति रण बहादुर शाह ने की थी। इसके अलावा अमर सिंह थापा को नेपाल सरकार ने 1804 से 1815 तक कुमाऊँ और गढ़वाल का सर्वोच्च न्यायाधीश (काजी) नियुक्त किया था। अमर सिंह थापा ने 1807 ईस्वी में गंगोत्री मंदिर का निर्माण करवाया था तथा इस का पुनरुद्धार जयपुर केे राजा माधो सिंह ने 1935 में करवाया था।
  • रणजोर सिंह थापा (1804-1805) - गढ़वाल का द्वितीय सूबेदार रणवीर सिंह थापा था। गढ़वाल के प्रसिद्ध चित्रकार एवं कवि मोलाराम ने रणजोर थापा को दानवीर कर्ण की उपाधि दी है। 
  • हस्तिदल चौतरिया (1805-1808) - हस्तिदल चौतरिया गढ़वाल का तीसरा सूबेदार था। इसकी कृषकों के प्रति विशेष आस्था थी। किसानों के लिए तकावी ऋण दिया व लगान दर कम की।
  • भैरो थापा (1808-1811) - भैरो थापा अत्याचारी एवं क्रूर शासक था।
  • काजी बहादुर भंडारी (1811-1812) - गढ़वाल में भू- राजस्व की प्राप्ति में भारी कमी हुई। जिस कारण नेपाल के राजा ने बहादुर भंडारी को भू राजस्व व्यवस्था को ठीक करने के लिए भेजा। और काजी बहादुर भंडारी ने भी व्यवस्था में अनेक परिवर्तन किए। 
  • अमर सिंह थापा (1812-1815) - क्योंकि अमर सिंह थापा ने गोरखा राज्य की विजय पताका सतलुज नदी के पार तक फैला दी थी इसलिए नेपाल सरकार ने अमर सिंह को सर्वश्रेष्ठ उपाधि "काजी" की पदवी से  विभूषित किया । और एक बार फिर गढ़वाल का शासन अमर सिंह तथा उसके पुत्र रणजोर सिंह थापा को दिया गया। 

विशेष तथ्य

हर्ष देव जोशी कौन था?

कुमाऊं और गढ़वाल के आक्रमण के दौरान एक शख्स के बारे में आपने जरूर ध्यान दिया होगा जिसने गोरखाओं को कुमाऊं पर आक्रमण करने के लिए निमंत्रण दिया था। वह शक्स था - हर्ष देव जोशी।  जिसे हरक देव के नाम से भी जाना जाता है। यह कुमाऊं के राजा दीपचंद का दीवान था। कहा जाता है कि हर्ष देव जोशी कुमाऊं का सर्वाधिक कूटनीतिज्ञ और बुद्धिमान व्यक्ति था जिस कारण इसे कुमाऊं का चाणक्य कहा गया । व इसने अपनी सूझबूझ छल कपट की नीति से कुमाऊं पर मंत्री होने के बावजूद कुछ वर्ष शासन भी किया। जिस कारण इतिहासकारों ने इसे कुमाऊं का शिवाजी की उपाधि से संबोधित किया। तो कुछ इतिहासकारों ने इसकी शासन नीति को देखते हुए आलोचना भी की राहुल सांकृत्यायन ने हर्ष देव जोशी को विभीषण की उपाधि दी । तो इतिहासकार एटकिंसन ने ऐसे स्वार्थी व देशद्रोही बताया क्योंकि हर्ष देव जोशी ने ही गौरखाओं को कुमाऊं पर आक्रमण करने के लिए आमंत्रित किया था । गढ़वाल अभियान  में गोरखाओं  का साथ दिया। और यहां तक कि अंग्रेजों को भी उत्तराखंड में शासन करने के लिए प्रेरित भी किया था।
              दरअसल कुमाऊं के राजा दीपचंद के शासनकाल में गृह कलह की स्थिति पैदा हो गई और कुमाऊं में अशांति व द्वेष के बादल छा गए। इसी बीच सन 1774 ईसवी में मोहन सिंह रौतेला नामक व्यक्ति ने राजा दीपचंद के जीवित रहते स्वयं को कुमाऊं नरेश घोषित कर दिया। परंतु कुमाऊ की जनता और मंत्रियों ने मोहनचंद का साथ नहीं दिया और हर्ष देव जोशी ने यहां कूटनीति का प्रयोग कर गढनरेश ललित शाह को कुर्मांचल विजय के लिए आमंत्रित किया। ललित शाह ने अपनी एक बड़ी सेना के साथ कुमाऊं पर आक्रमण कर दिया। जिसमें मोहन चंद की पराजय हुई। ललितशाह अपने द्वितीय पुत्र प्रदुम्न शाह (प्रदुम्न चंद के नाम से गद्दी पर बैठा) को कुमाऊं की राजगद्दी पर बैठाया। हर्ष देव जोशी को प्रधानमंत्री नियुक्त किया।
                 ललितशाह का प्रथम पुत्र जयकृत शाह की मृत्यु के पश्चात  प्रदुम्न शाह को हर्ष देव जोशी ने कुमाऊं और गढ़वाल दोनों का नरेश घोषित कर दिया। लेकिन इससे उनका तृतीय पुत्र पराक्रम शाह नाराज हो गयाा। अतः प्रद्युम्न शाह ने गढ़वाल पर ही शासन करना उचित समझा और कुमाऊं की गद्दी पर हर्ष देव जोशी को बैठाया।  मोहन चंद्र ने एक बार पुनः विद्रोह कर दिया और सन् 1785 में अपने भाई लाल सिंह की मदद से कुमाऊं पर आक्रमण कर हर्ष देव जोशी को पराजित किया। परंतु हर्ष देव जोशी चुप बैठने वालों में से नहीं था। उसने 3 वर्षों के बाद सन 1788 ईस्वी में एक बड़ी सेना के साथ कुमाऊं पर आक्रमण कर दिया और मोहनचंद तथा लाल सिंह को पराजित कर मोहनचद की हत्या कर दी। इस तरह एक बार फिर कुमाऊं की राजगद्दी खाली हो गई और इस बार हर्षदेव जोशी ने शिवचंद नाम के व्यक्ति को कुमाऊ की गद्दी पर एक कठपुतली शासक के रूप में बिठाया। इसी बीच मोहनचद के भाई लाल सिंह ने रामपुर के नवाब फैजल खान की सहायता से कुमाऊं को घेर लिया । जिसमें हर्ष देव और शिवचंद पराजित होकर गणराज्य की ओर भागे।  तब कुमाऊं की गद्दी पर मोहनचंद का पुत्र महेंद्र चंद कुमाऊं की राजगद्दी पर बैठा। लेकिन हर्ष देव जोशी को महेंद्र चंद्र का कुमाऊं की गद्दी पर बैठना नागवार गुजरा इसलिए उसने गोरखा सैनिकों को कुमाऊं पर आक्रमण करने के लिए आमंत्रित किया।



गोरखा शासन से संबंधित प्रश्न


(1) सन् 1790 में  गोरखा आक्रमण के समय निम्नलिखित में से कुमाऊं का राजा कौन था ?
(a) विक्रम चंद
(b) इंद्र चंद
(c) महेंद्र चंद
(d) पूर्ण चंद

(2) गोरखाओं ने गढ़वाल पर  किस युद्ध के बाद पूर्ण अधिकार प्राप्त किया था ?
(a) खुडबुड़ा का युद्ध
(b) चंम्बा का युद्ध
(c) बाराहाट (उत्तरकाशी)
(d) लंगूरगढ़ 

(3) गोरखाओ गढ़वाल पर कब पूर्ण अधिकार प्राप्त किया ?
(a) 1790
(b) 1791
(c) 1803
(d) 1804

(4) निम्नलिखित में से किसे इतिहासकारों ने कुमाऊ का चाणक्य कहा है ?
(a) श्री देव सुमन
(b) हर्ष देव जोशी
(c) मोहन चंद
(d) लाल सिंह

(5) निम्नलिखित में से किसे आधुनिक नेपाल का जनक कहा जाता है
(a) प्रताप शाह 
(b) पृथ्वी नारायण शाह
(c) फतेहशाह
(d) बहादुर शाह

(6) गोरखाओं ने जब गढ़वाल पर आक्रमण किया तो उस समय गढ़वाल का शासक कौन था ?
(a) पृथ्वी शाह
(b) नरेंद्र शाह
(c) प्रदुम्न शाह
(d) फतेहशाह

(7) निम्नलिखित में से कौन गोरखा सेनापति नहीं था ?
(a) अमर सिंह थापा
(b) शिरोमणि
(c) शूरवीर सिंह थापा
(d) हस्तिदल चौरातिया

(8) निम्नलिखित में से किस राज्य वंश के शासन काल को नेपाल का स्वर्ण युग कहा जाता है।
(a) गोरखा वंश
(b) लिच्छवी राजवंश
(c) नेवार राजवंश
(d) मल्ल राजवंश




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Sources : उत्तराखंड का राजनीतिक इतिहास (अजय रावत)

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टिप्पणियाँ

  1. शुभ प्रभात आपने उत्तराखंड में गोरखा शाशन का काफी अच्छा उल्लेख किया है
    भाई क्या आप से सम्पर्क हो सकता है

    https://aalekhdarshan484.blogspot.com/2022/03/10323.html

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उत्तराखंड प्रश्नोत्तरी -14 उत्तराखंड की प्रमुख जनजातियां वर्ष 1965 में केंद्र सरकार ने जनजातियों की पहचान के लिए लोकर समिति का गठन किया। लोकर समिति की सिफारिश पर 1967 में उत्तराखंड की 5 जनजातियों थारू, जौनसारी, भोटिया, बोक्सा, और राजी को एसटी (ST) का दर्जा मिला । राज्य की मात्र 2 जनजातियों को आदिम जनजाति का दर्जा प्राप्त है । सर्वप्रथम राज्य की राजी जनजाति को आदिम जनजाति का दर्जा मिला। बोक्सा जनजाति को 1981 में आदिम जनजाति का दर्जा प्राप्त हुआ था । राज्य में सर्वाधिक आबादी थारू जनजाति तथा सबसे कम आबादी राज्यों की रहती है। 2011 की जनगणना के अनुसार राज्य की कुल एसटी आबादी 2,91,903 है। जुलाई 2001 से राज्य सेवाओं में अनुसूचित जन जातियों को 4% आरक्षण प्राप्त है। उत्तराखंड की जनजातियों से संबंधित प्रश्न विशेष सूचना :- लेख में दिए गए अधिकांश प्रश्न समूह-ग की पुरानी परीक्षाओं में पूछे गए हैं। और कुछ प्रश्न वर्तमान परीक्षाओं को देखते हुए उत्तराखंड की जनजातियों से संबंधित 25+ प्रश्न तैयार किए गए हैं। जो आगामी परीक्षाओं के लिए महत्वपूर्ण साबित होंगे। बता दें की उत्तराखंड के 40 प्रश्नों में से 2

Uttrakhand current affairs in Hindi (May 2023)

Uttrakhand current affairs (MAY 2023) देवभूमि उत्तराखंड द्वारा आपको प्रतिमाह के महत्वपूर्ण करेंट अफेयर्स उपलब्ध कराए जाते हैं। जो आगामी परीक्षाओं में शत् प्रतिशत आने की संभावना रखते हैं। विशेषतौर पर किसी भी प्रकार की जॉब करने वाले परीक्षार्थियों के लिए सभी करेंट अफेयर्स महत्वपूर्ण साबित हो सकते हैं। उत्तराखंड करेंट अफेयर्स 2023 की पीडीएफ फाइल प्राप्त करने के लिए संपर्क करें।  उत्तराखंड करेंट अफेयर्स 2023 ( मई ) (1) हाल ही में तुंगनाथ मंदिर को राष्ट्रीय स्मारक घोषित किया गया है। तुंगनाथ मंदिर उत्तराखंड के किस जनपद में स्थित है। (a) चमोली  (b) उत्तरकाशी  (c) रुद्रप्रयाग  (d) पिथौरागढ़  व्याख्या :- तुंगनाथ मंदिर उत्तराखंड के गढ़वाल मंडल के रुद्रप्रयाग जिले में स्थित है। तुंगनाथ मंदिर समुद्र तल से 3640 मीटर (12800 फीट) की ऊंचाई पर स्थित एशिया का सर्वाधिक ऊंचाई पर स्थित शिवालय हैं। उत्तराखंड के पंच केदारों में से तृतीय केदार तुंगनाथ मंदिर का निर्माण कत्यूरी शासकों ने लगभग 8वीं सदी में करवाया था। हाल ही में इस मंदिर को राष्ट्रीय महत्त्व स्मारक घोषित करने के लिए केंद्र सरकार ने 27 मार्च 2023

ब्रिटिश कुमाऊं कमिश्नर : उत्तराखंड

ब्रिटिश कुमाऊं कमिश्नर उत्तराखंड 1815 में गोरखों को पराजित करने के पश्चात उत्तराखंड में ईस्ट इंडिया कंपनी के माध्यम से ब्रिटिश शासन प्रारंभ हुआ। उत्तराखंड में अंग्रेजों की विजय के बाद कुमाऊं पर ब्रिटिश सरकार का शासन स्थापित हो गया और गढ़वाल मंडल को दो भागों में विभाजित किया गया। ब्रिटिश गढ़वाल और टिहरी गढ़वाल। अंग्रेजों ने अलकनंदा नदी का पश्चिमी भू-भाग पर परमार वंश के 55वें शासक सुदर्शन शाह को दे दिया। जहां सुदर्शन शाह ने टिहरी को नई राजधानी बनाकर टिहरी वंश की स्थापना की । वहीं दूसरी तरफ अलकनंदा नदी के पूर्वी भू-भाग पर अंग्रेजों का अधिकार हो गया। जिसे अंग्रेजों ने ब्रिटिश गढ़वाल नाम दिया। उत्तराखंड में ब्रिटिश शासन - 1815 ब्रिटिश सरकार कुमाऊं के भू-राजनीतिक महत्व को देखते हुए 1815 में कुमाऊं पर गैर-विनियमित क्षेत्र के रूप में शासन स्थापित किया अर्थात इस क्षेत्र में बंगाल प्रेसिडेंसी के अधिनियम पूर्ण रुप से लागू नहीं किए गए। कुछ को आंशिक रूप से प्रभावी किया गया तथा लेकिन अधिकांश नियम स्थानीय अधिकारियों को अपनी सुविधानुसार प्रभावी करने की अनुमति दी गई। गैर-विनियमित प्रांतों के जिला प्रमु