गोरखा शासन (भाग -2)
गोरखा शासकों की प्रशासन व्यवस्था
गोरखों का भौगोलिक क्षेत्र
गोरखा मूलतः नेपाल के निवासी थे। नेपाल के राजा नरभूपाल शाह, पृथ्वी नारायण शाह, रण बहादुर शाह व चौतरिया बहादुर शाह के प्रयासों ने नेपाल के एक छोटे से गोरखा शहर को बड़े साम्राज्य में परिवर्तित किया। जिसमें पूर्व में मीची नदी से लेकर पश्चिम में काली नदी तक का भूभाग शामिल था। नेपाल के राजा रण बहादुर शाह के समय वर्ष 1790 ईसवी में हर्ष देव जोशी की सहायता से गोरखों ने कुमाऊं पर अधिकार किया तथा 14 मई 1804 को खुड़बुड़ा के मैदान में गढ़वाली शासक प्रदुम्न शाह को हराकर गढ़वाल पर भी अधिकार कर लिया। कुमाऊं व गढ़वाल को फतह करने के उपरांत गोरखों ने कांगड़ा तक के प्रदेश को अपने राज्य में मिला लिया था जिसकी सीमा महाराजा रणजीत सिंह की राज्य से मिलती थी। दूसरी तरफ तिब्बत और चीन से लोहा लिया। पूरब में सिक्किम व मोरंग के प्रदेश उनकी अधीनता स्वीकार करते थे। और अंतिम समय में गोरखपुर में उन्होंने ईस्ट इंडिया कंपनी के 200 गांवों पर कब्जा कर लिया। जिसके फलस्वरूप गोरखा सैनिकों और ब्रिटिश सैनिकों के बीच आंग्ल-नेपाल युद्ध हुआ। इसमें गोरखा सैनिकों की हार हुई।
गोरखों की प्रशासन व्यवस्था
उत्तराखंड में गोरखा शासन को 'गोरख्याली' कहा जाता है। कुमाऊं एवं गढ़वाल में गोरखा का प्रशासन "सैन्य शासन व्यवस्था" पर आधारित था। सेना के प्रमुख को "सुब्बा" (सामंत) कहा जाता था जिसका अधिपति नेपाल का राजा होता था। गोरखों ने प्रशासन को मजबूत बनाने के लिए नये सिरे से गोरखा नीतियों को सख्ती से लागू किया। हालांकि थोड़ी बहुत प्रशासन व्यवस्था चंदो का भी शामिल किया जिसमें चंद द्वारा सृजित किए गए कुछ पद यथावत रखे। गोरखों ने दासता, कर प्रणाली और बेगार प्रथा जैसी शोषण उत्पीड़न की नई शैलियां आरंभ की।
गोरखों की न्याय व्यवस्था
- गोला दीप - इसमें एक हाथ में गर्म लोहे का डंडा पकड़कर कुछ दूर तक चलना पड़ता था।
- कढ़ाई दीप - इसमें कढ़ाई में उबलते तेल में हाथ डालना पड़ता था यदि हाथ जल गया तो दोषी यदि नहीं जला तो निर्दोष।
- तराजू का दीप - इसमें दोषी व्यक्ति को तराजू में पत्थरों से तौला जाता था। तोलने का यह समय शाम के लिए तय किया गया था। जिन पत्थरों से दोषी व्यक्ति को तौला जाता था। उन पत्थरों को सुरक्षित स्थान पर छिपा दिया जाता था अगले दिन प्रातः उन्हीं से पुनः दोषी को तौला जाता था यदि दूसरे दिन वह भारी हुआ तो निर्दोष घोषित होता था यदि हल्का होता तो दोषी ठहराया जाता था।
सैन्य व्यवस्था
गोरखों का राज्य सैनिक शासन पर आधारित था। गोरखा कार्यरत सैनिकों को "जागरिया" कहा जाता था। 2 वर्ष के लिए सेवा मुक्त सैनिकों को "ढाकरिया" कहा जाता था। गोरखा सैनिकों का मुख्य हथियार "खुकरी" था। और खुकरी बनाने का प्रमुख केंद्र 'गड़ी नगर' था। मुख्य रूप से 'नेवार जाति' के लोग खुकरियां बनाकर गोरखा सैनिकों को उपलब्ध कराया करते थे।
गोरखों की आर्थिक व्यवस्था
भूमि बंदोबस्त
जैसा कि आप सभी जानते हैं कि किसी भी राजा की आय का मुख्य स्रोत भू राजस्व होता है। भूमि से अधिक आय प्राप्त करने के लिए गोरखों ने कुमाऊं में पहला बंदोबस्त 1791-92 ईसवी सूबेदार जोगमल्ल ने लागू किया था जो मालगुजारी से संबंधित था। इसमें 20 नाली जमीन पर ₹1 टैक्स लगाया जाता था। वर्ष 1812 ईसवी में नेपाल के राजा ने भू-व्यवस्था सुधार के लिए काजी बहादुर भंडारी को भेजा। जिसने भू प्रबंधन किया। गोरखा शासन में "पुगाडी़ कर" भूमि से लिए जाने वाला प्रमुख कर था।
पुगाडी़ कर - यह एक प्रकार का भूमि कर था इससे लगभग डेढ़ लाख आए होती थी और सैनिकों को वेतन इस कर से ही दिया जाता था।
गोरखों की कर व्यवस्था
भूमि कर के अलावा गोरखा ने राज्य की जनता पर अनेक कर लगाए थे। जैसे -
- कुसही कर - गोरखा ने ब्राह्मणों पर कुसही नामक कर लगाया।
- टीका भेंट कर - यह कर शुभ अवसरों व शादी-विवाहों के समय लिया जाता था।
- तिमारी कर - यह एक प्रकार का सैनिकों को दिए जाने वाला वेतन था जिसमें फौजदार को 4 आना तथा सूबेदार को 2 आना मिलता था।
- टांड कर (टान कर) - यह कर कपड़ा बुनकरों से से लिया जाता था।
- घीकर - यह दुधारू पशुओं के मालिक से लिए जाने वाला कर था।
- मांगा कर - यह प्रत्येक नौजवान से ₹1 कर के रूप में लिया जाता था। इसे युद्ध के समय तत्कालिक कर के रूप में वसूला जाता था।
- मिझारी कर - यह कर शिल्पकर्मियों तथा जागरिया ब्राह्मणों से लिया जाता था।
इसके अलावा गोबर, पुछिया, दोनिया (पशुचारकों), गोरखा कालीन कर हैं। 'सलामी' एक प्रकार का नजराना होता था। ग्राम छोड़कर भागे हुए लोगों से 'रहता कर' लिया जाता था। गांव के प्रधान जो थोकदार के अधीन होते थे उन्हें राजकर के अलावा 'दस्तूर' देना पड़ता था। गोरखों ने चंद राजाओं द्वारा लगाए गए 36 रकम 32 कलम वाले अनेक करों को समाप्त किया।
सामाजिक व्यवस्था
गोरखा का अपना एक पृथक समाज था। वे किसी जाति विशेष के ना होकर पृथक नस्लों व जातियों के एक समूह थे। राई, मगर, गुरुड़, लिंबू, सुनवार, पुन, सर्की, थापा, खणका, आदि सब गोरखा समाज के अंग थे। गोरखों का कद छोटा, चेहरा गोल, आंखें छोटी व धंसी हुई, गाल की हड्डियां उभरी हुई, कपाल चौड़ा व दाढ़ी मूछ रहित होते थे। स्वभाव से विरोधी एवं जिद्दी होते थे। गोरखा मांस व मदिरा बेहद शौकीन थे। मांस में वे सूअर का मांस अधिक पसंद करते थे।
गोरखा काल में गढ़वाल व कुमाऊं में घरों की छतों पर महिलाओं को चढ़ने पर पाबंदी लगाई गयी थी। गोरखा शासक केवल भूस्वामियों व जंगल के मालिकों से ही नगद लगान वसूल करते थे। शिल्पकर्मियों से नगद राशि नहीं ली जाती थी। उनसे हस्तकारी का कार्य कराया जाता था।
- गोरखा शिल्पकर्मियों को 'कामी' कहते थे।
- गोरखा सुनार को 'सुनवार' कहते थे
- गोरखा नाई को 'नौ' कहते थे।
- ब्राह्मण दासों को 'कठुआ' कहा जाता था।
धार्मिक एवं सांस्कृतिक व्यवस्था
गोरखी बौद्ध व हिंदू दोनों ही धर्म के अनुयायी थे। कई स्थानों पर दुर्गा पूजा का उल्लेख मिलता है। उनका मानना था कि दुर्गा शक्ति की देवी है। इसलिए गोरखों का प्रमुख त्यौहार 'दसाई (दशहरा)' को कहा जाता है। गुरुण जाति के गोरखे "मोस्टा" को अपना इष्ट देवता मानते थे। वर्ष 1796 में सूबेदार महावीर थापा ने चंपावत के बालेश्वर मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया था। वर्ष 1797 ईस्वी में रण बहादुर शाह की पत्नी कांति देवी ने शतौली परगने के कुछ ग्रामों को केदारनाथ मंदिर में सदाव्रत चलाने के लिए दान दिया। गोरखो ने केदारनाथ, बद्रीनाथ, जागेश्वर आदि जगहों में भी तीर्थ यात्रियों के लिए सदाव्रत दिया था। इसके अलावा रण बहादुर सामने कोटली परखने के ग्रामों को बद्रीनाथ यात्रियों के सदाव्रत चलाने के लिए दान दिया था
गोरखों की राजभाषा गोरखाली है। नेपाल का समूचा साहित्य नेपाली भाषा में मिलता है। माना जाता है कि गोरखाली भाषा का उद्भव संस्कृत भाषा से ही हुआ है।
*सदावर्त - वह अनुदान जो धर्मार्थ कार्यों के लिए उपयोग या तीर्थयात्रियों के भोजन आदि की व्यवस्था के लिए प्रयोग होता था।
स्रोत :- उत्तराखंड का राजनीतिक इतिहास (अजय रावत)
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