वीर भड़ लोदी रिखोला: गढ़वाल की धरती पर जन्मी अमर वीरता की ज्वाला
जन्म की धूल में सनी चिंगारी: एक योद्धा का उदय
गढ़वाल की हरी-भरी पहाड़ियों में, जहाँ नदियाँ गाती हैं और हवा वीरों की कहानियाँ फुसफुसाती है, सोलहवीं शताब्दी के अंत में (1590 ई.) एक बच्चे का जन्म हुआ। नाम था – लोदी रिखोला। पौड़ी जनपद के ग्राम बटोला में, उसके पिता एक प्रतिष्ठित थोकदार थे, जिनकी आँखों में गढ़वाल की मिट्टी का गर्व झलकता था। लोदी का बचपन उन पहाड़ों की गोद में बीता, जहाँ हर साँस में स्वतंत्रता की खुशबू थी। लेकिन भाग्य ने जल्दी ही उसे आजमाया। मात्र 13-14 वर्ष की उम्र में, जब पड़ोसी गाँव ईड़ा से एक बारात बटोला पहुँची, तो स्वागत की धूम मच गई। गाँव के नीचे नौले के पास पानी से भरा एक विशाल गैड़ा (गेडू) खड़ा था – इतना भारी कि कई मजबूत कंधे भी उसे हिला न सके।
तभी, कौतूहल से भरा बालक लोदी वहाँ पहुँचा। बिना एक पल की झिझक, बिना किसी डर के, उसने अकेले ही उस गैड़ा को सिर पर उठा लिया। जैसे पहाड़ खुद उसके कंधों पर चढ़ गया हो! बारात के स्थान तक पहुँचते ही, सबकी साँसें थम गईं। आश्चर्य की लहर दौड़ पड़ी – "यह तो भड़ है! गढ़वाल को एक नया सिंह मिल गया!" लोदी की आँखों में वह चमक थी – आत्मविश्वास की चमक, जो कहती थी, "मैं हूँ, इसलिए असंभव नामुमकिन नहीं।" उस दिन से गाँवों में गूँजी यह चर्चा, लोदी के सीने में वीरता का बीज बो गई। भावनाओं का सैलाब उमड़ा – गर्व की लहर, जो माँ की गोद में लौटकर आंसुओं में बदल गया।
युद्ध की पुकार: तिब्बत की बर्फीली चोटियों पर गढ़वाली गरज
समय बीता, लेकिन लोदी का इरादा पत्थर सा अटल रहा। महाराजा महीपत शाह के शासन में, जब तिब्बत से हूण लुटेरे बार-बार गढ़वाल की सीमाओं पर टूट पड़ते, तो राजा ने फैसला लिया – इन्हें सदा के लिए नेस्तनाबूद करना है। गढ़वाल भर के भड़ों और वीर युवकों को निमंत्रण दिया गया। लोदी का दिल धड़का – "यह मेरी कसम है, मेरी धरती की पुकार!" बिना एक क्षण की देरी, वह श्रीनगर पहुँचा, दरबार में खड़ा हो गया। राजा की नजर पड़ी, और उसे सेना की एक टुकड़ी का संचालक बना दिया गया।
तिब्बत के बर्फीले मैदानों में, जहाँ सर्द हवाएँ हड्डियाँ चीरती हैं, लोदी ने वीरता का ऐसा जलजला बिखेरा कि दुश्मन काँप उठे। तीरों की बौछार, तलवारों की टक्कर – हर युद्ध में लोदी आगे था। "मैं पीछे नहीं हटूँगा," वह चिल्लाता, और उसके सिपाहियों का मनोबल आसमान छूने लगा। जीत की वापसी पर, राजा ने उसे दक्षिणी सीमा की रक्षा सौंपी। लेकिन लोदी का आत्मविश्वास अब पहाड़ों से भी ऊँचा था – वह जानता था, हर घाव एक सबक है, हर जीत एक कदम अमरता की ओर। भावनाएँ उफान पर थीं – गाँव की मिट्टी की याद, जो रातों में सपनों में आती, और सुबह वीरता का सूरज उगाती।
पश्चिमी सीमा की लपटें: लुटेरों का अंत, वीर का उदय
जीत की सुगंध अभी महक रही थी कि नई चुनौती आ खड़ी हुई। पश्चिमी सीमा पर सिरमौर और पड़ोसी राज्यों के लुटेरे घुस आते – फसलें जला देते, गाँव लूटकर भाग जाते। राजा ने पहले भी सेनाएँ भेजीं, लेकिन वे लुटेरे लौट आते। अब महाराजा महीपत शाह ने लोदी पर भरोसा किया – "जाओ, भड़, और इस सीमा को लोहे की दीवार बना दो।" लोदी ने कबूल किया, जैसे कोई सिंह जंगल में दहाड़ता हो।
रणनीति बनी – चालाकी से, कुशलता से। लोदी ने सिरमौर की गहराइयों तक घुसपैठ की। लुटेरों के दांत खट्टे कर दिए – युद्ध के मैदान पर खून की नदियाँ बहीं, लेकिन लोदी अटल खड़ा रहा। "यह मेरी धरती है, मेरे लोगों का खून!" – उसके हर वार में यह गूँजती। शत्रु घुटनों पर गिरे, वचन दिया – "कभी नहीं लौटेंगे।" श्रीनगर लौटे तो स्वागत का ठाठ था – फूलों की वर्षा, गीतों की धुन। लेकिन लोदी का दिल जानता था, असली सम्मान तो उसके सीने में धड़कता आत्मविश्वास है। भावुक पल थे वे – सिपाहियों के आलिंगन, जो भाईचारे की कहानी कहते।
विश्वासघात की काली रात: षड्यंत्र का शिकार, लेकिन अमर भावना
लेकिन दरबार की चकाचौंध में छिपे साँप भी थे। राजा के कुछ मंत्री और दरबारी, ईर्ष्या की आग में जलते, लोदी के सम्मान से जल उठे। "यह भड़ हमें छाया में डाल रहा है," वे फुसफुसाते। षड्यंत्र रचे गए – जहर की चालें, धोखे की जालें। एक ऐसी ही साजिश में, लोदी रिखोला की अमर आत्मा शरीर छोड़ गई। दर्दनाक अंत था, लेकिन हार नहीं। उसके आखिरी शब्दों में वीरता गूँजी – "मैं चला जाऊँगा, लेकिन मेरी गाथा रहेगी।" आंसुओं की बाढ़ आई गढ़वाल में, लेकिन उनमें बीज बोया गया – अन्याय के खिलाफ लड़ने का। लोदी का विश्वासघात न भूला, बल्कि प्रेरणा बना।
स्मृति की चट्टान: बहेली का पत्थर, वीरता का प्रतीक
आज भी, पौड़ी जनपद के जयहरीखाल ब्लॉक के बहेली गाँव में लोदी का स्मारक खड़ा है – एक जीता-जागता प्रमाण। और वह प्रसिद्ध पत्थर! एक बार किसी ने ताना मारा – "अगर सच्चा भड़ है, तो इस विशाल पत्थर को उठा ला।" लोदी तैश में आया, लेकिन डर न आया। अकेले उठाया, गाँव के बीच रखा। आज वह पत्थर बच्चों का खेल-स्थल है, लेकिन हर स्पर्श में लोदी की वीरता धड़कती है। "मैं उठा सकता हूँ, क्योंकि मैं विश्वास करता हूँ," – यह संदेश गूँजता है।
लोदी रिखोला की गाथा सिर्फ युद्धों की नहीं, एक दिल की है – जो वीरता से सजती है, आत्मविश्वास से चमकती है। गढ़वाल के भड़ों में माधो सिंह भण्डारी, कफ्फू चौहान जैसे नामों के साथ, लोदी अमर है। क्या तुम भी महसूस कर रहे हो वह ज्वाला? उठो, लड़ो, और अपनी गाथा लिखो। गढ़वाल की धरती गा रही है – जय भड़! जय वीर लोदी रिखोला!
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