सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

कुर्मांचल केसरी : बद्रीदत्त पांडे का सम्पूर्ण परिचय

कुर्मांचल केसरी : बद्रीदत्त पांडे - एक निर्भीक क्रांतिकारी का अमर गान बद्रीदत्त पांडे, जिन्हें 'कुर्मांचल केसरी' के नाम से जाना जाता है, कुमाऊं की धरती के एक ऐसे सपूत थे जिन्होंने ब्रिटिश राज के खिलाफ अपनी कलम और वाणी को हथियार बनाया। उनका जीवन संघर्ष, समर्पण और परिवर्तन की एक प्रेरणादायक गाथा है। आइए, उनके जीवन के प्रमुख अध्यायों को मुख्य बिंदुओं और उप-बिंदुओं के माध्यम से जीवंत रूप से देखें, जो न केवल इतिहास को उजागर करते हैं बल्कि आज भी प्रेरणा का स्रोत बने रहते हैं। बद्रीदत्त पांडे का सम्पूर्ण परिचय  हिमालय की गोद में, भागीरथी के पवित्र तट पर कनखल में 15 फरवरी 1882 को जन्मे बद्रीदत्त पांडे, मात्र सात वर्ष की कोमल अवस्था में ही अभिभावकों के आकस्मिक निधन की कठोर परीक्षा से गुजरे, फिर भी वे टूटे नहीं, बल्कि अल्मोड़ा पहुँचकर जिला स्कूल में ज्ञान की ज्योति प्रज्वलित की। स्वामी विवेकानंद के ओजस्वी व्याख्यानों ने उनके हृदय में राष्ट्रीय ज्वाला जलाई, जो कभी बुझी नहीं। 1902 में बड़े भाई हरिदत्त के असमय विदा होने पर शिक्षा का मार्ग त्यागकर उन्होंने जीवन की जंग लड़नी शुरू की—नैनीताल क...

कुर्मांचल केसरी : बद्रीदत्त पांडे का सम्पूर्ण परिचय

कुर्मांचल केसरी : बद्रीदत्त पांडे - एक निर्भीक क्रांतिकारी का अमर गान

बद्रीदत्त पांडे, जिन्हें 'कुर्मांचल केसरी' के नाम से जाना जाता है, कुमाऊं की धरती के एक ऐसे सपूत थे जिन्होंने ब्रिटिश राज के खिलाफ अपनी कलम और वाणी को हथियार बनाया। उनका जीवन संघर्ष, समर्पण और परिवर्तन की एक प्रेरणादायक गाथा है। आइए, उनके जीवन के प्रमुख अध्यायों को मुख्य बिंदुओं और उप-बिंदुओं के माध्यम से जीवंत रूप से देखें, जो न केवल इतिहास को उजागर करते हैं बल्कि आज भी प्रेरणा का स्रोत बने रहते हैं।


बद्रीदत्त पांडे का सम्पूर्ण परिचय 

हिमालय की गोद में, भागीरथी के पवित्र तट पर कनखल में 15 फरवरी 1882 को जन्मे बद्रीदत्त पांडे, मात्र सात वर्ष की कोमल अवस्था में ही अभिभावकों के आकस्मिक निधन की कठोर परीक्षा से गुजरे, फिर भी वे टूटे नहीं, बल्कि अल्मोड़ा पहुँचकर जिला स्कूल में ज्ञान की ज्योति प्रज्वलित की। स्वामी विवेकानंद के ओजस्वी व्याख्यानों ने उनके हृदय में राष्ट्रीय ज्वाला जलाई, जो कभी बुझी नहीं। 1902 में बड़े भाई हरिदत्त के असमय विदा होने पर शिक्षा का मार्ग त्यागकर उन्होंने जीवन की जंग लड़नी शुरू की—नैनीताल के डायमंड जुबली स्कूल में शिक्षक बने, देहरादून की सैनिक कार्यशाला में नौकरी संभाली, चकरौता स्थानांतरित हुए, किंतु 1908 में नौकरी की बेड़ियाँ तोड़कर स्वतंत्रता की उड़ान भरी। इलाहाबाद के 'लीडर' में सहायक संपादक के रूप में ब्रिटिश साम्राज्य की नीतियों पर पहला प्रहार किया, देहरादून के 'कौस्मोपोलिटन' को संपादित कर पत्रकारिता का सिंहासन स्थापित किया।

1913 में अल्मोड़ा लौटे तो 'अल्मोड़ा अखबार' के संपादक बनकर राष्ट्रीय भावनाओं का उद्घोष किया—राजनीतिक चेतना जगाई, सामाजिक कुरीतियों पर प्रहार किया, सरकारी भ्रष्टाचार पर कुठाराघात किया, जिससे पत्र की लोकप्रियता हिमालय की चोटियों सरीखी ऊँची हो गई। 1918 में 'शक्ति' पत्रिका का संचालन कर 1926 तक ब्रिटिश दमन के विरुद्ध तलवार चलाई। समाज सुधारक के रूप में वे कुमाऊं की कुप्रथाओं—कुली उतार, कुली बेगार, कुली बर्दायश—के विरुद्ध सिंहनाद किए; कलकत्ता में गांधीजी से आशीर्वाद लिया, 1921 की मकर संक्रांति पर बागेश्वर में जनता को संगठित कर शपथ दिलाई, डिप्टी कमिश्नर डायबिल के गोली चलाने के भय को भी कुचल दिया। इस वीरतापूर्ण नेतृत्व के लिए उन्हें 'कुर्मांचल केसरी' की उपाधि और दो स्वर्ण पदक मिले, जो 1962 के भारत-चीन युद्ध में राष्ट्र को समर्पित कर दिए। इतिहास के प्रति उनके रौद्र प्रेम ने 1937 में 'कुमाऊं का इतिहास' ग्रंथ रचा, जो उत्तराखंड की धरोहर का अमर दस्तावेज है।

स्वतंत्रता संग्राम के इस निर्भीक योद्धा को पाँच बार जेल की काल कोठरी में डाला गया, किंतु वे झुके नहीं—1926 में संयुक्त प्रांत कौंसिल सदस्य, 1931 में अल्मोड़ा जिला परिषद सदस्य, 1937 में केन्द्रीय असेंबली सदस्य, 1955 में लोकसभा सदस्य बने; कांग्रेस के विभिन्न पदों पर आसीन रहे, गोविंद बल्लभ पंत के राजनैतिक गुरु बने। उनकी दबंग प्रकृति अंग्रेजों को काँपाती थी—जेल में भी कर्मचारियों को तीखे उत्तर देकर विद्रोह का संदेश देते। शांतिलाल त्रिवेदी के शब्दों में, उनका पहाड़-सा विशाल काया, शेर की दहाड़-सी बुलंद आवाज, जनहृदय स्पर्शी भाषण और व्यंग्यात्मक चुटकियाँ अमर हैं। 13 जनवरी 1965 को इस क्रांतिकारी पुत्र का पार्थिव शरीर त्यागा, किंतु उनकी वीरता और रौद्र क्रोध की ज्वाला आज भी कुर्मांचल को प्रेरित करती है। बद्रीदत्त पांडे—राष्ट्रीय संगठनों के संस्थापक, समाचार पत्रों के राष्ट्रीय स्वरूप के शिल्पकार, ब्रिटिश अत्याचारों पर लेखों से प्रहार करने वाले, जनता को आंदोलनों के लिए भड़काने वाले—एक सच्चे साहसी, स्वावलंबी समाज सुधारक थे, जिनकी विरासत स्वाधीन भारत की नींव है।

मित्रों उत्तराखंड अपर पीसीएस की परीक्षा में उत्तराखंड के किसी भी स्वतंत्रता सेनानी के बारे में दीर्घ प्रश्न दिया जाता है। इसलिए आपको प्रत्येक स्वतंत्रता सेनानी के बारे में ज्ञान होना अति आवश्यक है। और उसको उत्तर पुस्तिका में कैसे प्रस्तुत करें। यह कॉपी में रिवीजन के लिए शार्ट नोट्स कैसे बनाएं। तो नीचे उपर्युक्त लेख के शार्ट नोट्स दिए गये हैं। :-

प्रारंभिक जीवन : विपत्तियों से निकली शक्ति

बद्रीदत्त का जीवन शुरू से ही कठिनाइयों भरा था, लेकिन यही विपत्तियाँ उन्हें एक मजबूत योद्धा बनाती गईं।
  • जन्म और पारिवारिक पृष्ठभूमि: 15 फरवरी 1882 को भागीरथी नदी के तट पर स्थित कनखल (हरिद्वार) में जन्म। पिता विनायक दत्त पांडे एक साधारण परिवार से थे।
  • अकाल मृत्यु का आघात: मात्र 7 वर्ष की आयु में माता-पिता का निधन। बड़े भाई के साथ अल्मोड़ा पहुँचे, जहाँ जीवन की नई शुरुआत हुई।
  • प्रारंभिक शिक्षा: जिला स्कूल अल्मोड़ा में पढ़ाई। इस दौरान स्वामी विवेकानंद के अल्मोड़ा प्रवास और उनके व्याख्यानों से गहरा प्रभावित हुए, जो उनके राष्ट्रीय चेतना को जगाने वाले बीज बने।

शिक्षा और व्यावसायिक यात्रा

  • उच्च शिक्षा की कमी के बावजूद, बद्रीदत्त की योग्यता ने उन्हें विभिन्न क्षेत्रों में पहचान दिलाई।
  • शिक्षा का त्याग: 1902 में बड़े भाई हरिदत्त की मृत्यु के बाद पढ़ाई छोड़नी पड़ी, परिवार की जिम्मेदारी संभाली।

शिक्षण और सरकारी नौकरी:

  • 1903: नैनीताल के डायमंड जुबली स्कूल में अध्यापक।
  • 1905: देहरादून की सैनिक कार्यशाला में नौकरी, बाद में चकरौता तबादला।
  • 1908: नौकरी छोड़कर स्वतंत्रता की ओर कदम बढ़ाए।
  • प्रारंभिक पत्रकारिता: उच्च शिक्षा के अभाव में भी उनकी प्रतिभा चमकी – 1908 में इलाहाबाद के 'लीडर' अखबार में सहायक व्यवस्थापक और संपादक; 1910 में देहरादून के 'कौस्मोपोलिटन' के संपादक।

पत्रकारिता का युग : कलम से क्रांति

बद्रीदत्त की कलम ने कुमाऊं की राजनीतिक और सामाजिक चेतना को जगाया, जो ब्रिटिश शासन के लिए खतरा बन गई।
  • अल्मोड़ा अखबार (1913-1918): संपादक के रूप में राष्ट्रीय भावनाओं का प्रचार, राजनीतिक जागरण, सामाजिक सुधारों पर जोर। सरकारी भ्रष्टाचार पर तीखे प्रहार – परिणामस्वरूप पाठक संख्या में उछाल।
  • शक्ति अखबार (1918-1926): बंद हुए अल्मोड़ा अखबार के बाद 'शक्ति' का संपादन। व्यंग्यात्मक और प्रभावशाली लेखों से जनता को संगठित किया।
  • प्रभाव: उनकी लेखनी निर्भीक और सशक्त थी, जो अंग्रेजी नीतियों पर कुठाराघात करती रही।

समाज सुधारक के रूप में: कुप्रथाओं का अंत

पांडे जी एक महान समाज सुधारक थे, जिन्होंने कुमाऊं की जड़ें खोई हुई परंपराओं को चुनौती दी।
  • लक्ष्य: कुली उतार, कुली वेगार और कुली बर्दायश जैसी कुप्रथाओं का उन्मूलन।
  • गांधी से प्रेरणा: 1918 में कलकत्ता जाकर महात्मा गांधी को अवगत कराया, आंदोलन के लिए आशीर्वाद लिया।
  • 1921 का ऐतिहासिक आंदोलन : बागेश्वर में शिष्टमंडल के नेतृत्व में जनता ने शपथ ली। डिप्टी कमिश्नर डायबिल के भय से गोली नहीं चलाई जा सकी।
सम्मान : 'कुर्मांचल केसरी' उपाधि और दो स्वर्ण पदक। 1962 के भारत-चीन युद्ध में पदक दान कर दिए।

इतिहासकार के रूप में भूमिका

  • ग्रंथ रचना: 1937 में 'कुमाऊं का इतिहास' लिखा – उत्तराखंड शोधकर्ताओं के लिए अमूल्य धरोहर। कुमाऊं के व्यापक इतिहास को सरल और प्रामाणिक रूप में प्रस्तुत किया।

राजनीतिक जीवन: स्वतंत्रता संग्राम का स्तंभ

बद्रीदत्त पांडे स्वाधीनता आंदोलन के एक प्रमुख योद्धा थे, जिनकी राजनीतिक सूझबूझ ने अंग्रेजों को भयभीत किया।
जेल यात्राएँ: पाँच बार जेल भेजे गए।

निर्वाचित पद:
  • 1926: संयुक्त प्रांत की कौंसिल सदस्य।
  • 1931: अल्मोड़ा जिला परिषद सदस्य।
  • 1937: केन्द्रीय असेंबली सदस्य।
  • 1955: भारतीय लोकसभा सदस्य।
कांग्रेस में भूमिका: भारतीय कांग्रेस कमेटी, प्रदेश कांग्रेस कमेटी सदस्य; जिला कांग्रेस अध्यक्ष। गोविंद बल्लभ पंत के राजनीतिक गुरु।

"वे कभी न झुके, जेल में भी तीखे उत्तर"। 
शांतिलाल त्रिवेदी के अनुसार: "पहाड़ सा शरीर, शेर की दहाड़, दिल छूने वाले भाषण और विनोदी चुटकियाँ।"

अंतिम यात्रा और अमर योगदान

  • निधन: 13 जनवरी 1965 को निधन – भारत माता के इस क्रांतिकारी पुत्र का।

समग्र योगदान:

  • राष्ट्रीय जागरण: संगठनों की स्थापना, समाचार पत्रों को राष्ट्रीय स्वरूप।
  • समाज सुधार: कुप्रथाओं का अंत, जनता को संगठित।
  • स्वतंत्रता संग्राम: निर्भीक नेतृत्व, आंदोलनों का संचालन।
  • विरासत: साहसी, स्वावलंबी और व्यंग्यात्मक वक्ता के रूप में याद – आज भी कुमाऊं की शान।
बद्रीदत्त पांडे का जीवन सिखाता है कि विपत्तियाँ यदि साहस से सामना की जाएँ, तो वे इतिहास रचने वाली शक्ति बन जाती हैं। उनकी कहानी न केवल कुमाऊं, बल्कि पूरे भारत के लिए प्रेरणा का स्रोत है।

Related posts :-

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

उत्तराखंड में भूमि बंदोबस्त का इतिहास

  भूमि बंदोबस्त व्यवस्था         उत्तराखंड का इतिहास भूमि बंदोबस्त आवश्यकता क्यों ? जब देश में उद्योगों का विकास नहीं हुआ था तो समस्त अर्थव्यवस्था कृषि पर निर्भर थी। उस समय राजा को सर्वाधिक कर की प्राप्ति कृषि से होती थी। अतः भू राजस्व आय प्राप्त करने के लिए भूमि बंदोबस्त व्यवस्था लागू की जाती थी । दरअसल जब भी कोई राजवंश का अंत होता है तब एक नया राजवंश नयी बंदोबस्ती लाता है।  हालांकि ब्रिटिश शासन से पहले सभी शासकों ने मनुस्मृति में उल्लेखित भूमि बंदोबस्त व्यवस्था का प्रयोग किया था । ब्रिटिश काल के प्रारंभिक समय में पहला भूमि बंदोबस्त 1815 में लाया गया। तब से लेकर अब तक कुल 12 भूमि बंदोबस्त उत्तराखंड में हो चुके हैं। हालांकि गोरखाओ द्वारा सन 1812 में भी भूमि बंदोबस्त का कार्य किया गया था। लेकिन गोरखाओं द्वारा लागू बन्दोबस्त को अंग्रेजों ने स्वीकार नहीं किया। ब्रिटिश काल में भूमि को कुमाऊं में थात कहा जाता था। और कृषक को थातवान कहा जाता था। जहां पूरे भारत में स्थायी बंदोबस्त, रैयतवाड़ी बंदोबस्त और महालवाड़ी बंदोबस्त व्यवस्था लागू थी। वही ब्रिटिश अधिकारियों ...

ब्रिटिश कुमाऊं कमिश्नर : उत्तराखंड

ब्रिटिश कुमाऊं कमिश्नर उत्तराखंड 1815 में गोरखों को पराजित करने के पश्चात उत्तराखंड में ईस्ट इंडिया कंपनी के माध्यम से ब्रिटिश शासन प्रारंभ हुआ। उत्तराखंड में अंग्रेजों की विजय के बाद कुमाऊं पर ब्रिटिश सरकार का शासन स्थापित हो गया और गढ़वाल मंडल को दो भागों में विभाजित किया गया। ब्रिटिश गढ़वाल और टिहरी गढ़वाल। अंग्रेजों ने अलकनंदा नदी का पश्चिमी भू-भाग पर परमार वंश के 55वें शासक सुदर्शन शाह को दे दिया। जहां सुदर्शन शाह ने टिहरी को नई राजधानी बनाकर टिहरी वंश की स्थापना की । वहीं दूसरी तरफ अलकनंदा नदी के पूर्वी भू-भाग पर अंग्रेजों का अधिकार हो गया। जिसे अंग्रेजों ने ब्रिटिश गढ़वाल नाम दिया। उत्तराखंड में ब्रिटिश शासन - 1815 ब्रिटिश सरकार कुमाऊं के भू-राजनीतिक महत्व को देखते हुए 1815 में कुमाऊं पर गैर-विनियमित क्षेत्र के रूप में शासन स्थापित किया अर्थात इस क्षेत्र में बंगाल प्रेसिडेंसी के अधिनियम पूर्ण रुप से लागू नहीं किए गए। कुछ को आंशिक रूप से प्रभावी किया गया तथा लेकिन अधिकांश नियम स्थानीय अधिकारियों को अपनी सुविधानुसार प्रभावी करने की अनुमति दी गई। गैर-विनियमित प्रांतों के जिला प्रमु...

परमार वंश - उत्तराखंड का इतिहास (भाग -1)

उत्तराखंड का इतिहास History of Uttarakhand भाग -1 परमार वंश का इतिहास उत्तराखंड में सर्वाधिक विवादित और मतभेद पूर्ण रहा है। जो परमार वंश के इतिहास को कठिन बनाता है परंतु विभिन्न इतिहासकारों की पुस्तकों का गहन विश्लेषण करके तथा पुस्तक उत्तराखंड का राजनैतिक इतिहास (अजय रावत) को मुख्य आधार मानकर परमार वंश के संपूर्ण नोट्स प्रस्तुत लेख में तैयार किए गए हैं। उत्तराखंड के गढ़वाल मंडल में 688 ईसवी से 1947 ईसवी तक शासकों ने शासन किया है (बैकेट के अनुसार)।  गढ़वाल में परमार वंश का शासन सबसे अधिक रहा।   जिसमें लगभग 12 शासकों का अध्ययन विस्तारपूर्वक दो भागों में विभाजित करके करेंगे और अंत में लेख से संबंधित प्रश्नों का भी अध्ययन करेंगे। परमार वंश (गढ़वाल मंडल) (भाग -1) छठी सदी में हर्षवर्धन की मृत्यु के पश्चात संपूर्ण उत्तर भारत में भारी उथल-पुथल हुई । देश में कहीं भी कोई बड़ी महाशक्ति नहीं बची थी । जो सभी प्रांतों पर नियंत्रण स्थापित कर सके। बड़े-बड़े जनपदों के साथ छोटे-छोटे प्रांत भी स्वतंत्रता की घोषणा करने लगे। कन्नौज से सुदूर उत्तर में स्थित उत्तराखंड की पहाड़ियों में भी कुछ ऐसा ही...

कुणिंद वंश का इतिहास (1500 ईसा पूर्व - 300 ईसवी)

कुणिंद वंश का इतिहास   History of Kunid dynasty   (1500 ईसा पूर्व - 300 ईसवी)  उत्तराखंड का इतिहास उत्तराखंड मूलतः एक घने जंगल और ऊंची ऊंची चोटी वाले पहाड़ों का क्षेत्र था। इसका अधिकांश भाग बिहड़, विरान, जंगलों से भरा हुआ था। इसीलिए यहां किसी स्थाई राज्य के स्थापित होने की स्पष्ट जानकारी नहीं मिलती है। थोड़े बहुत सिक्कों, अभिलेखों व साहित्यक स्रोत के आधार पर इसके प्राचीन इतिहास के सूत्रों को जोड़ा गया है । अर्थात कुणिंद वंश के इतिहास में क्रमबद्धता का अभाव है।               सूत्रों के मुताबिक कुणिंद राजवंश उत्तराखंड में शासन करने वाला प्रथम प्राचीन राजवंश है । जिसका प्रारंभिक समय ॠग्वैदिक काल से माना जाता है। रामायण के किस्किंधा कांड में कुणिंदों की जानकारी मिलती है और विष्णु पुराण में कुणिंद को कुणिंद पल्यकस्य कहा गया है। कुणिंद राजवंश के साक्ष्य के रूप में अभी तक 5 अभिलेख प्राप्त हुए हैं। जिसमें से एक मथुरा और 4 भरहूत से प्राप्त हुए हैं। वर्तमान समय में मथुरा उत्तर प्रदेश में स्थित है। जबकि भरहूत मध्यप्रदेश में है। कुणिंद वंश का ...

उत्तराखंड की जनजातियों से संबंधित प्रश्न (उत्तराखंड प्रश्नोत्तरी -14)

उत्तराखंड प्रश्नोत्तरी -14 उत्तराखंड की प्रमुख जनजातियां वर्ष 1965 में केंद्र सरकार ने जनजातियों की पहचान के लिए लोकर समिति का गठन किया। लोकर समिति की सिफारिश पर 1967 में उत्तराखंड की 5 जनजातियों थारू, जौनसारी, भोटिया, बोक्सा, और राजी को एसटी (ST) का दर्जा मिला । राज्य की मात्र 2 जनजातियों को आदिम जनजाति का दर्जा प्राप्त है । सर्वप्रथम राज्य की राजी जनजाति को आदिम जनजाति का दर्जा मिला। बोक्सा जनजाति को 1981 में आदिम जनजाति का दर्जा प्राप्त हुआ था । राज्य में सर्वाधिक आबादी थारू जनजाति तथा सबसे कम आबादी राज्यों की रहती है। 2011 की जनगणना के अनुसार राज्य की कुल एसटी आबादी 2,91,903 है। जुलाई 2001 से राज्य सेवाओं में अनुसूचित जन जातियों को 4% आरक्षण प्राप्त है। उत्तराखंड की जनजातियों से संबंधित प्रश्न विशेष सूचना :- लेख में दिए गए अधिकांश प्रश्न समूह-ग की पुरानी परीक्षाओं में पूछे गए हैं। और कुछ प्रश्न वर्तमान परीक्षाओं को देखते हुए उत्तराखंड की जनजातियों से संबंधित 25+ प्रश्न तैयार किए गए हैं। जो आगामी परीक्षाओं के लिए महत्वपूर्ण साबित होंगे। बता दें की उत्तराखंड के 40 प्रश्नों में से 2...

Uttarakhand Current Affairs 2025

उत्तराखंड करेंट अफेयर्स 2025 नवंबर 2025 से अप्रैल 2025 तक जैसा कि आप सभी जानते हैं देवभूमि उत्तराखंड प्रत्येक मा उत्तराखंड के विशेष करंट अफेयर्स उपलब्ध कराता है। किंतु पिछले 6 माह में व्यक्तिगत कारणों के कारण करेंट अफेयर्स उपलब्ध कराने में असमर्थ रहा। अतः उत्तराखंड की सभी आगामी परीक्षाओं को देखते हुए यह निर्णय लिया गया है कि नवंबर 2024 से अप्रैल 2025 तक के सभी करेंट अफेयर्स चार भागों में विभाजित करके अप्रैल के अन्त तक उपलब्ध कराए जाएंगे। जिसमें उत्तराखंड बजट 2025-26 और भारत का बजट 2025-26 शामिल होगा। अतः सभी करेंट अफेयर्स प्राप्त करने के लिए टेलीग्राम चैनल से अवश्य जुड़े। 956816280 पर संपर्क करें। उत्तराखंड करेंट अफेयर्स (भाग - 01) (1) 38वें राष्ट्रीय खेलों का आयोजन कहां किया गया ? (a) उत्तर प्रदेश  (b) हरियाणा (c) झारखंड  (d) उत्तराखंड व्याख्या :- प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 28 जनवरी 2025 को राजीव गाँधी अंतर्राष्ट्रीय स्टेडियम रायपुर देहरादून, उत्तराखंड में 38वें ग्रीष्मकालीन राष्ट्रीय खेलों का उद्घाटन किया। उत्तराखंड पहली बार ग्रीष्मकालीन राष्ट्रीय खेलों की मेजबानी की और य...

भारत की जनगणना 2011 से संबंधित महत्वपूर्ण प्रश्न (भाग -01)

भारत की जनगणना 2011 मित्रों वर्तमान परीक्षाओं को पास करने के लिए रखने से बात नहीं बनेगी अब चाहे वह इतिहास भूगोल हो या हमारे भारत की जनगणना हो अगर हम रटते हैं तो बहुत सारे तथ्यों को रटना पड़ेगा जिनको याद रखना संभव नहीं है कोशिश कीजिए समझ लीजिए और एक दूसरे से रिलेट कीजिए। आज हम 2011 की जनगणना के सभी तथ्यों को समझाने की कोशिश करेंगे। यहां प्रत्येक बिन्दु का भौगोलिक कारण उल्लेख करना संभव नहीं है। इसलिए जब आप भारत की जनगणना के नोट्स तैयार करें तो भौगोलिक कारणों पर विचार अवश्य करें जैसे अगर किसी की जनसंख्या अधिक है तो क्यों है ?, अगर किसी की साक्षरता दर अधिक है तो क्यों है? अगर आप इस तरह करेंगे तो शत-प्रतिशत है कि आप लंबे समय तक इन चीजों को याद रख पाएंगे साथ ही उनसे संबंधित अन्य तथ्य को भी आपको याद रख सकेंगे ।  भारत की जनगणना (भाग -01) वर्ष 2011 में भारत की 15वीं जनगणना की गई थी। 2011 की जनगणना के अनुसार भारत का कुल क्षेत्रफल 32,87,263 वर्ग किलोमीटर था तथा भारत की कुल आबादी 121,08,54,922 (121 करोड़) थी। जिसमें पुरुषों की जनसंख्या 62.32 करोड़ एवं महिलाओं की 51.47 करोड़ थी। जनसंख्या की दृष...