भारत रत्न : गोविंद बल्लभ पंत
गोविंद बल्लभ पंत : जीवन परिचय
गोविंद बल्लभ पंत - यह नाम सुनते ही मन में स्वतंत्रता की लपटें, सामाजिक न्याय की जंग और लोकतंत्र की मजबूत नींव की याद आती है। वे न केवल उत्तर प्रदेश के प्रथम मुख्यमंत्री थे, बल्कि भारत के चौथे गृह मंत्री के रूप में देश की आंतरिक सुरक्षा और एकता को नई दिशा देने वाले दूरदर्शी नेता थे। 10 सितंबर 1887 को जन्मे पंत जी का जीवन एक ऐसी गाथा है, जो पहाड़ी गांव की सादगी से शुरू होकर दिल्ली की संसद तक पहुंची। वे स्वतंत्रता संग्राम के प्रमुख योद्धा, समाज सुधारक और कूटनीतिज्ञ थे, जिन्होंने महात्मा गांधी को भी अपनी बुद्धिमत्ता से प्रभावित किया। आइए, उनके जीवन के हर पहलू को विस्तार से समझें—जन्म से लेकर निधन तक, ताकि हम उनकी विरासत को न केवल जानें, बल्कि अपनाएं भी।
जन्म, बाल्यकाल और प्रारंभिक शिक्षा
गोविंद बल्लभ पंत का जन्म 10 सितंबर 1887 को उत्तराखंड के अल्मोड़ा जिले के खूंट नामक छोटे से गांव में हुआ था। कुछ ऐतिहासिक स्रोतों के अनुसार, उनका जन्म पौड़ी गढ़वाल में भी माना जाता है, लेकिन अधिकांश प्रमाण अल्मोड़ा को ही उनका जन्मस्थान बताते हैं। उनके पिता मनोरथ पंत एक साधारण सिपाही थे, जो ब्रिटिश सेना में सेवा करते थे, जबकि माता का नाम लक्ष्मी पुष्पा था। परिवार की आर्थिक स्थिति सामान्य थी, लेकिन पंत जी के नाना बद्रीदत्त जोशी ने उनके जीवन को नई दिशा दी। बद्रीदत्त जोशी रामजे कॉलेज, दिल्ली के प्रमुख सहायक थे और एक विद्वान व्यक्ति, जिनके घर में किताबों और ज्ञान का खजाना था।
बचपन से ही पंत जी की बुद्धि तीक्ष्ण थी। अल्मोड़ा में ही उनकी प्रारंभिक शिक्षा नाना के घर पर हुई, जहां संस्कृत, हिंदी और अंग्रेजी की बुनियादी शिक्षा मिली। गांव की सादगी और हिमालय की प्राकृतिक सुंदरता ने उनके चरित्र को मजबूत बनाया। 1899 में, मात्र 12 वर्ष की आयु में उनकी पहली शादी हुई, जो उस समय की प्रथा के अनुरूप थी। दुर्भाग्यवश, उनकी पहली पत्नी का जल्दी निधन हो गया, और बाद में उन्होंने दो विवाह किए। उनके दो पुत्र हुए—कृष्ण चंद्र पंत और गोविंद चंद्र पंत—जो बाद में राजनीति और प्रशासन में सक्रिय रहे।
1905 में इंटरमीडिएट परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद, पंत जी उच्च शिक्षा के लिए प्रयागराज (तत्कालीन इलाहाबाद) के प्रसिद्ध म्योर सेंट्रल कॉलेज पहुंचे। यहां का माहौल जादुई था—क्योंकि यहीं वे देश के उभरते नेताओं जैसे जवाहरलाल नेहरू, मोतीलाल नेहरू और अन्य स्वतंत्रता सेनानियों के संपर्क में आए। कॉलेज की बहसों और साहित्यिक चर्चाओं ने उनके मन में राष्ट्रीय चेतना जगा दी। 1909 में कानून की परीक्षा वे सर्वोच्च अंकों से उत्तीर्ण कर लैम्सडेन स्कॉलरशिप प्राप्त कीं, जो कॉलेज की ओर से दी जाने वाली प्रतिष्ठित छात्रवृत्ति थी। इस डिग्री के साथ वे वकील बने, लेकिन उनका मन कोर्टरूम से परे था—समाज सेवा और राजनीति की ओर आकर्षित हो रहा था।
प्रारंभिक करियर: वकालत से सामाजिक क्रांति तक
कानून की डिग्री हासिल करने के तुरंत बाद, 1909 में पंत जी ने अल्मोड़ा में वकालत शुरू की। लेकिन अल्मोड़ा की सीमित संभावनाओं को देखते हुए, वे काशीपुर चले गए, जहां वकालत का बेहतर क्षेत्र था। काशीपुर में बसते ही उन्होंने अपनी ऊर्जा को वकालत तक सीमित न रखा। वे सामाजिक और राजनीतिक कार्यों में कूद पड़े। सबसे पहले, उन्होंने 'उदयराज हिंदू हाईस्कूल' की स्थापना की, जहां गरीब और वंचित बच्चों को निःशुल्क शिक्षा प्रदान की गई। यह स्कूल न केवल शिक्षा का केंद्र था, बल्कि समाज में जागृति का प्रतीक भी।
1916 में पंत जी ने 'कुमाऊं परिषद' की स्थापना में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, जो कुमाऊं क्षेत्र की राजनीतिक और सामाजिक समस्याओं को उठाने वाली पहली संगठित संस्था बनी। इसी वर्ष वे अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी (AICC) के सदस्य चुने गए, जो उनके राष्ट्रीय राजनीति में प्रवेश का संकेत था। 1918 में काशीपुर में उन्होंने 'खद्दर आश्रम' और 'विधवा आश्रम' स्थापित किए। खद्दर आश्रम स्वदेशी आंदोलन का प्रतीक था, जहां स्वावलंबन और आत्मनिर्भरता सिखाई जाती थी, जबकि विधवा आश्रम समाज की उपेक्षित महिलाओं को शिक्षा और रोजगार के अवसर प्रदान करता था। इन प्रयासों से पंत जी कुमाऊं-गढ़वाल के राजनीतिक वातावरण पर छा गए। बीसवीं शताब्दी के द्वितीय दशक तक वे एक प्रमुख राजनीतिक नेता और समाज सुधारक के रूप में स्थापित हो चुके थे। उनकी दृष्टि स्थानीय से राष्ट्रीय तक फैल रही थी, और वे रूढ़िवादी प्रथाओं जैसे बाल विवाह, छुआछूत और विधवा उत्पीड़न के खिलाफ खुलकर बोलते।
स्वतंत्रता संग्राम में योगदान : जेल यात्राओं से राष्ट्रीय पटल तक
पंत जी का राजनीतिक जीवन उत्तराखंड तक सीमित न रहा। 1923 में स्वराज दल के टिकट पर वे संयुक्त प्रांत (वर्तमान उत्तर प्रदेश) विधान परिषद के सदस्य चुने गए और विरोधी दल के नेता बने। लखनऊ में उन्होंने जवाहरलाल नेहरू के साथ मिलकर साइमन कमीशन के खिलाफ भव्य प्रदर्शन का नेतृत्व किया। यह कमीशन भारतीयों की बिना सहमति के संविधान सुधार की सिफारिश करने वाला था, और पंत जी की अगुवाई में सड़कें 'साइमन गो बैक' के नारों से गूंज उठीं।
1930 का वर्ष स्वतंत्रता संग्राम में उनका स्वर्णिम अध्याय था। कुमाऊं कमिश्नरी में नमक सत्याग्रह का नेतृत्व करते हुए उन्होंने ब्रिटिश नमक कानून का उल्लंघन किया। परिणामस्वरूप गिरफ्तारी हुई और छह महीने की सजा मिली। जेल में ही उनकी नेहरू से गहरी मित्रता हुई, जो जीवन भर बनी रही। 1934 में वे अखिल भारतीय संसदीय बोर्ड के महामंत्री बने, उसके बाद केन्द्रीय विधानसभा के सदस्य और कांग्रेस दल के उपनेता।
1937 के प्रांतीय चुनावों में कांग्रेस की ऐतिहासिक जीत हुई। पंत जी संयुक्त प्रांत कांग्रेस दल के नेता चुने गए और प्रथम मुख्यमंत्री बने। उन्होंने मंत्रिमंडल का गठन किया, जिसमें सामाजिक न्याय, शिक्षा और कृषि सुधार पर जोर दिया। लेकिन 1939 में द्वितीय विश्व युद्ध के बहाने ब्रिटिश सरकार की नीतियों के विरोध में उन्होंने त्यागपत्र दे दिया—क्योंकि कांग्रेस ने युद्ध में भारत की भागीदारी को अस्वीकार किया था। 1940 के व्यक्तिगत सत्याग्रह में भाग लेने पर फिर गिरफ्तारी हुई, और एक वर्ष की कैद सही। जेल जीवन ने उन्हें और मजबूत बनाया; वे गांधीवादी सिद्धांतों के प्रबल समर्थक बने।
उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री के रूप में : जमींदारी उन्मूलन की क्रांति
1946 के चुनावों के बाद पंत जी पुनः मुख्यमंत्री बने और 1946 से 1955 तक लगातार इस पद पर रहे। स्वतंत्र भारत के प्रथम मुख्यमंत्री के रूप में उनका कार्यकाल ऐतिहासिक था। सबसे महत्वपूर्ण उपलब्धि जुलाई 1952 में जमींदारी प्रथा का उन्मूलन था। इस कानून ने लाखों किसानों को उनकी जमीन का मालिक बनाया, जो सदियों की गुलामी का अंत था। पंत जी के शासन में उत्तर प्रदेश में कोई बड़ा दंगा नहीं हुआ, जो उनकी शांति-प्रिय नीतियों का प्रमाण था। उन्होंने शिक्षा, स्वास्थ्य और सिंचाई पर जोर दिया, जिससे राज्य का विकास तेज हुआ।
केंद्रीय मंत्री और राष्ट्रीय योगदान : एकता के सूत्रधार
1955 में पंत जी को भारत का गृह मंत्री बनाया गया, और वे 1961 तक इस पद पर रहे। गृह मंत्री के रूप में उन्होंने आंतरिक सुरक्षा मजबूत की, पुलिस सुधार किए और हिंदी को राजभाषा का दर्जा दिलाने के लिए संघर्ष किया। 1956 के राज्य पुनर्गठन आयोग में भाषाई आधार पर राज्यों का गठन उनका प्रमुख योगदान था, जिसने भारत की एकता को मजबूत किया। 1958 में मौलाना अबुल कलाम आजाद की मृत्यु के बाद वे कांग्रेस के उपनेता बने। वे संविधान सभा के सदस्य भी थे, जहां लोकतंत्र की नींव रखने में उनका हाथ था।
महात्मा गांधी पंत जी की कूटनीति के कायल थे। गांधी जी ने कहा, "फिरोज मेहता हिमालय के समान विशाल हैं, लोकमान्य तिलक समुद्र के समान गंभीर हैं, गोखले गंगा के समान सरल हैं, किंतु गोविंद बल्लभ पंत के व्यक्तित्व में इन तीनों गुणों का समावेश एक साथ मिलता है।" गांधी जी वार्ताओं में उन्हें हमेशा साथ रखते, क्योंकि उनकी बुद्धिमत्ता विवादों को सुलझाने में माहिर थी।
सम्मान, विरासत और निधन : अमर राष्ट्र-निर्माता
पंत जी की सेवाओं को मान्यता देते हुए 26 जनवरी 1957 को उन्हें भारत का सर्वोच्च नागरिक सम्मान 'भारत रत्न' प्रदान किया गया। वे एक महान समाजसेवी, राष्ट्रप्रेमी और हिंदी के प्रचारक थे। दुर्भाग्यवश, 7 मार्च 1961 को नई दिल्ली में उनका निधन हो गया। आज भी, उत्तराखंड के पहाड़ों से लेकर उत्तर प्रदेश की धरती तक, उनकी स्मृति जीवित है। पंत जी की जिंदगी सिखाती है कि सादगी से निकली चिंगारी कैसे राष्ट्र को रोशन कर सकती है। उनकी विरासत—सामाजिक न्याय, एकता और सेवा—आज भी प्रासंगिक है। यदि हम उनके आदर्शों को अपनाएं, तो भारत और मजबूत बनेगा।
परीक्षा की दृष्टि से,
1. जन्म और प्रारंभिक जीवन
- गोविंद बल्लभ पंत का जन्म सन् 1887 में अल्मोड़ा के खूंट गांव में हुआ था। कुछ स्रोतों के अनुसार, जन्म स्थान पौड़ी भी माना जाता है।
- उनके पिता का नाम मनोरथ पंत था, जो एक साधारण व्यक्ति थे।
- प्रारंभिक शिक्षा अल्मोड़ा में अपने नाना बद्रीदत्त जोशी के घर पर हुई, जो रामजे कॉलेज के प्रमुख सहायक थे।
2. शिक्षा और प्रारंभिक करियर
- सन् 1905 में इंटरमीडिएट परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद, उच्च शिक्षा के लिए इलाहाबाद के म्योर सेंट्रल कॉलेज में प्रवेश लिया।
- वहाँ देश के प्रमुख नेताओं के संपर्क में आए, जिससे उनका राजनीतिक जीवन शुरू हुआ।
- सन् 1909 में कानून की परीक्षा पास करने के बाद, अल्मोड़ा में वकालत आरंभ की, लेकिन बाद में काशीपुर में स्थानांतरित हो गए, क्योंकि वहाँ वकालत के बेहतर अवसर थे।
3. सामाजिक और राजनीतिक योगदान की शुरुआत
- वकालत के साथ-साथ सामाजिक कार्यों में सक्रिय रहे; 'उदयराज हिंदू हाईस्कूल' की स्थापना की, जहाँ निःशुल्क शिक्षा की व्यवस्था की गई।
- सन् 1916 में 'कुमाऊं परिषद' की स्थापना में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
- सन् 1918 में काशीपुर में 'खद्दर आश्रम' और 'विधवा आश्रम' स्थापित किए, जिससे कुमाऊं के राजनीतिक वातावरण पर उनका प्रभाव बढ़ा।
- बीसवीं शताब्दी के द्वितीय दशक में कुमाऊं-गढ़वाल में एक प्रमुख राजनीतिक नेता और समाज सुधारक के रूप में उभरे।
4. राष्ट्रीय राजनीति में प्रवेश
- प्रारंभ में राजनीतिक क्षेत्र उत्तराखंड तक सीमित रहा, लेकिन धीरे-धीरे विस्तार हुआ।
- सन् 1916 में अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के सदस्य चुने गए।
- सन् 1923 में स्वराज दल के टिकट पर संयुक्त प्रांत विधान परिषद के सदस्य बने और विरोधी दल के नेता चुने गए।
- लखनऊ में जवाहरलाल नेहरू के साथ साइमन कमीशन के विरोध में प्रदर्शन का नेतृत्व किया।
5. स्वतंत्रता संग्राम में प्रमुख भूमिका
- सन् 1930 में कुमाऊं कमिश्नरी में नमक सत्याग्रह का नेतृत्व किया, गिरफ्तारी हुई और छह महीने की कैद की सजा मिली।
- सन् 1934 में अखिल भारतीय संसदीय बोर्ड के महामंत्री बने, उसके बाद केन्द्रीय विधानसभा के सदस्य और कांग्रेस दल के उपनेता चुने गए।
- सन् 1937 के निर्वाचन में कांग्रेस की जीत के बाद संयुक्त प्रांत में कांग्रेस दल के नेता बने और मुख्यमंत्री का पद संभाला; मंत्रिमंडल का गठन किया।
- सन् 1939 में अंग्रेजों की नीति के विरोध में त्यागपत्र दे दिया।
- सन् 1940 में व्यक्तिगत सत्याग्रह में भाग लेने पर गिरफ्तार हुए और एक वर्ष की कैद सही।
- सन् 1946 के निर्वाचन के बाद 1946 से 1955 तक उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे।
- शासनकाल की प्रमुख घटना: जुलाई 1952 में उत्तर प्रदेश में जमींदारी उन्मूलन की विधिवत घोषणा।
6. स्वतंत्र भारत में योगदान
- सन् 1955 में भारत के गृहमंत्री बने और 1961 तक इस पद पर रहे।
- सन् 1958 में मौलाना आजाद की मृत्यु के बाद कांग्रेस के उपनेता बने।
- संविधान सभा के सदस्य रहे।
- महात्मा गांधी उनकी कूटनीतिज्ञता से प्रभावित थे; वार्ताओं में उन्हें अपने साथ रखते थे।
- गांधी जी ने कहा: "फिरोज मेहता हिमालय के समान विशाल हैं, लोकमान्य तिलक समुद्र के समान गंभीर हैं, गोखले गंगा के समान सरल हैं, किंतु गोविंद बल्लभ पंत के व्यक्तित्व में इन तीनों गुणों का समावेश एक साथ मिलता है।"
7. सम्मान और निधन
- जनता और राष्ट्र के प्रति सेवाओं के लिए 26 जनवरी 1957 को 'भारत रत्न' से सम्मानित हुए।
- वे एक महा
- न समाजसेवी और राष्ट्रप्रेमी थे।
- 7 मार्च 1961 को उनका निधन हो गया।
कुमाऊं केसरी : बद्रीदत्त पाण्डेय
कालू सिंह मेहरा : उत्तराखंड का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम सेनानी

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