उत्तराखंड का भू-कानून चर्चा में क्यों? हाल ही में प्रदेश में लगातार चल रही मांग के बीच मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने एलान किया है कि उनकी सरकार वृहद भू-कानून लाने जा रही है। अगले साल बजट सत्र में कानून का प्रस्ताव लाया जाएगा। उन्होंने कहा कि 250 वर्ग मीटर आवासीय और 12.50 एकड़ अन्य भूमि के नियम तोड़ने वालों की भूमि जांच के बाद सरकार में निहित की जाएगी। क्या है उत्तराखंड का वर्तमान भू-कानून ? वर्तमान में लागू भू-कानून के तहत एक व्यक्ति को 250 वर्गमीटर जमीन ही खरीद सकता है। लेकिन व्यक्ति के अपने नाम से 250 वर्गमीटर जमीन खरीदने के बाद पत्नी के नाम से भी जमीन खरीदी है तो ऐसे लोगों को मुश्किल आ सकती है। तय सीमा से ज्यादा खरीदी गई जमीन को सरकार में निहित करने की कार्रवाई करेगी। यह कानून केवल बाहरी राज्यों के लोगाें पर लागू है। उत्तराखंड के स्थायी निवासी कितनी भी जमीन खरीद सकते हैं। भू-कानून का इतिहास राज्य में बाहरी लोगों द्वारा भूमि खरीद सीमित करने के लिए वर्ष 2003 में तत्कालीन एनडी तिवारी सरकार ने उत्तर प्रदेश के कानून में संशोधन किया और राज्य का अपना भूमि कानून अस्तित्व में आया। इस संशोध
कविता संग्रह
देवभूमि उत्तराखंड की स्थापना दिवस पर हार्दिक शुभकामनाएं।
नवंबर 2000 को उत्तरांचल को 27 वें राज्य के रूप में दर्जा मिला और 1 जनवरी 2007 को इसका नाम उत्तरांचल से उत्तराखंड कर दिया।
देवभूमि उत्तराखंड पर कविता
पहाड़ों का सफर
बादलों के काफिलों में
बह चला मन-ओ-बेखबर,
ठंडी-ठंडी सी वादियां
ठंडा-सा शहर,
उत्सुकता भरे मन से,
चल दिया मैं,
तय करने 'पहाड़ों का सफर'
नैन पीक से दिखता
हिमालय का सर,
मन में कई रंगों की
उमंग भरे,
तन को छूती,
गुजर गयी वो लहर
बादलों से घिरा , झीलों का शहर
---सुनील---
प्रकृति का शहर
कोई पूछ रहा है,
जिंदगी जीने का सलीका कैसा हो,
मेरा दिल कहता है,
वृक्ष की छांव पर
एक आशियाना मेरा हो,
रंग-बिरंगें फूलों सा,
खिलखिलाता हुआ तेरा चेहरा हो,
बस तमन्ना है दिल की,
परिंदों की चहचहाहट पर
जिंदगी का सवेरा हो,
बहती नदियों की ताल हो
और गिरते झरनों का साज हो,
मेरा 'प्रकृति का शहर',
सबसे खास हो।
---सुनील---
कोशिश कर रहा हूं मैं
बहता जा रहा हूं मैं
पता नहीं कहां टकराऊगा,
चलना था मुझको, चला जा रहा हूं मैं,
गुजर जाना चाहता हूं , मुसीबतों के दरिया से
तलब है बस मंजिल पाने की,
इसीलिए तो हर ग़म सहा जा रहा हूं मैं
कोशिशों की दीवार बना कर ,
चढ़ा रहा हूं मैं।
कोशिश कर रहा हूं मैं
---सुनील---
मैं भी कवि बनना चाहता हूं
समाज की बुराईयों को
उजागर करना चाहता हूं
अभिप्रेरित हो मेरे विचारों से सभी,
ऐसी छवि बनाना चाहता हूं।
तराश के कुछ शब्दों को,
एक संदेश देना चाहता हूं
मैं भी एक कवि बनना चाहता हूं।
----सुनील----
देवभूमि उत्तराखंड के उभरते कवि
देवभूमि उत्तराखंड की भूमि ने समय समय पर हमारे देश को अनेक कवि दिए हैं । जिसमें कौसानी के महान कवि सुमित्रानंदन पंत जी का योगदान प्रमुख रहा है। सुमित्रानंदन पंत जी का प्रकृति से अत्यधिक लगाव था इसलिए उन्होंने अपनी अनेकों रचनाएं प्रकृति पर लिखी है । वर्ष 1968 में सुमित्रानंदन पंत जी को ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। सुमित्रानंदन पंत जी के बाद श्री शैलेश मटियानी, श्री राजेश जोशी, श्री मंगलेश डबराल और श्री शेखर जोशी जी ने लेखन में अपनी विशिष्ट पहचान बनाई। वर्तमान समय में कुमाऊं के कुछ उभरते हुए कवि और कवयित्री हैं जिनका कविता लेखन अतुलनीय है। कवयित्री स्वाति, दीपक बिष्ट, सुधा शर्मा, दिवेश उपाध्याय ... आदि जिनकी रचनाएं निम्नलिखित हैं।
तुम आए नहीं
मैं प्रतीक्षारत हूं अनवरत,
यूं ढूंढती हु हर क्षण,
चाहो दिशाओं में विस्तृत,
प्रेम की घनी छांव ।
ये अधिक सी अनुरागमय,
यू सत्य की संतापमय,
छोटी सी आलिंगनमय,
मेरी आत्मा की साधना ।
तुम आए नही,
ना आया कोई ,
बस ढूंढती रही मैं ,
प्रतीक्षारत प्रेम की प्रार्थना ।
आंखो के अनवरत अश्रु न रुके,
ना रुके मेरे मन के संताप ये,
उहापुहो में संलिप्त मैं ,
अब भी प्रतीक्षारत हु ।
तेरी ही परछाई में,
तेरे ही अनुराग में ,
मिलने को आतुर हो ,
बनाए अविराम संग।
🙏🙏🙏🙏
स्वाति
सघन वन
सघन वन फैला दो
धरातल मे
प्रकृति का कुछ तो
करो इस सृष्टि में
सघन वन
ना नोचो पत्तियों
जड़ को ना नष्ट करो
कोपलो को आने दो
नया उत्साह फैला दो
सघन वन
तरूवर का निश्छल प्रेम
हर डाल पात का ना विरह
समर्पण जल धार दो
सघन वन
वनो का झोंका मधुर सा
नृत्य करता हुआ बिम्ब
नव निर्माण की राह दो
सघन वन
अनुभूति के नये सोपान
प्रकृति का अनुपम भाव
जड़ चेतन को बतला दो
सघन वन
विराम ना हो फिर कभी
इस अनंत वाक्य का
ये जीवन कारण मुक्त दो
सघन वन
गर्भ धरातल ,नव वर्ष हो
वेग से बढ़े जीवन वृक्ष
हर पल हर क्षण मधुर दो दो
सघन वन
सघन वन हो ,हो नव सृजन
हो सघन हो ये वन उपवन
कवि
दिवेश उपाध्याय देव
शीर्षक - फूल
मैं फूलो सी बन पाउ,
इत्र बिखरु मानवता का ,
औ मानव को मन से अपना पाउ,
श्रृंगार बनु भावनाओं का ,
और ईश्वर से यू जुड़ पाउ,
काश मैं फूलो सी बन पाउ।
चक्रवात हो या हो पतझड ,
वसंत हो या हो वर्षा ,
मैं हर मौसम मे मुस्कुराओ,
विनम्रता को ओढ़े ,
दुनिया को अपना पाव ,
काश मैं फूलो सी बन पाउ।
वर्षो कि तपस्या कि गहन साधना ,
अर्क बनु सुंदरता का ,
और चरणों मे ईश्वर के सज जाऊ ,
प्रेम करुँ हर नर से मैं ,
काश मैं फूलो सी बन पाउ।
प्रकृति का भाव सुनाऊ,
वर्षा कि धुन सुन पाउ,
धरती को आलिंगन कर ,
जन्मोभर् का सुख पा जाऊ ,
काश मैं फूलो सी बन पाउ।
🙏🙏🙏 स्वाति
चंचल मन
मन चंचल के क्या कहने,
मन के होते लाखों रूप।
क्षण-प्रतिक्षण,प्रतिपल,
मन बदलता है स्वरूप।।
कभी वैरागी सा बन मन,
शून्य में यूँ ही विचरता है।
कभी प्रेम का प्रतिबिम्ब बन,
रास- रंग में उलझता है।।
गगन, धरा दशो दिशा में,
है मन का आना- जाना।
मन की न कोई सीमा रेखा,
मन का न निश्चित आशियाना।।
वादियों में भ्रमण है मन का,
लहरों पर इसका ठिकाना।
जीवन में अगम्य स्थल पर भी,
इसका निर्बाध आना- जाना।।
मन देवत्व रंग में रंगा हुआ,
मन में दैत्य सी कुटिलता।
मन ही पुष्प सा कोमल है,
मन में पाहन सी निष्ठुरता।।
मन ही शक्ति का स्रोत,
मन भक्ति से ओत-प्रोत।
मन सात्विक भाव धरे तो,
विश्व बन्धुत्व की जले जोत।
तन मन का अनुसरण करता,
मन तो भावों का खजाना।
धनी है मन निर्धन है मन,
मन से खुशी/गम का याराना।।
इसीलिए तो मन को साधो.
तन स्वयं ही सध जायेगा।
मन की सच्ची राह रही तो,
तन देवालय बन जायेगा।।
मौलिक, अप्रकाशित, अप्रसारित
कवि - सुधा शर्मा
शीर्षक - बरसात होनी चाहिए
हुवा अरुणोदय क्षितिज पर,
निशा काली जा चुकी थी।
ऊँघती सी अवनि तन पर,
अरुणिमा अब छा चुकी थी।।
खुल रहे थे पुष्प लोचन,
भृमर गुंजन कर रहे थे।
तरु लताओं के घने में,
विहग क्रंदन कर रहे थे।।
नील पट पर हिम शिखर भी,
रजत के सम सोहते थे।
पर्ण पर, तृण पर तुहिन कण,
उर सभी का मोहते थे।।
दूर पनघट पर सुबह में,
कुछ तरुणियो का शोर था।
क्षितिज पर, नभ पर, धरा पर,
बस कांतिमय हर और था।
सूर्य हौले मुस्कुराया,
निज रक्त रश्मि बिखेर कर।
कनक हो जैसे बिछाया,
घर की छतो- मुंडेर पर।
खिल गया तन मन बदन सब,
उस नवल सौम्य प्रभात में।
स्वर्ण उपजाने को निकले,
तब बैल हलधर साथ में।
खड़ी सींगें, उठा जूडा,
और नाक में फुंकार थी।
बृषभ की आवाज क्या थी,
कोई बज्र सी हुंकार थी।
और हलधर लगे जैसे,
बलपुरुष सा जा रहा था।
हाथ में छड़, अंश मे हल,
वृषभ को पुचका रहा था।
खेत पहुँचे वृषभ दोनों,
किलकारियां करने लगे।
भेदकर सींगो से मिट्टी,
निज देह पर भरने लगे।
रखा कंधो पर जुवाँ जब,
तो लक्ष्य चढ़ने लग गये।
दो नहीँ, सौ गजो के सम,
गति पवन उड़ने लग गये।
चीर सीने को धरा की,
फौलाद जब चलने लगा।
बज्र धरती का भी हृदय,
तब मोम सा गलने लगा।
बीज सारे मोतियों से,
जब धरा पर जा समाये।
बच रहे मिट्टी के ढेले,
पाटकर समतल बनाये।
निज कार्य तो है कर दिया,
अब करम उसका चाहिए।
बस कर्म फल मिल जायेगा,
बरसात होनी चाहिए।
बहादुर सिंह बिष्ट 'दीपक'
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धन्यवाद
बहुत ही सुन्दर ब्लॉग है और एक से बढ़कर एक रचनाएं....
जवाब देंहटाएंहर रचना के साथ कमेंट बॉक्स होता तो और अच्छा होता मेरे ख्याल से।
शायद आप भी उत्तराखंड से हैं
तो बहुत बहुत बधाई एवं शुभकामनाएं आपको उत्तराखंड दिवस की।
धन्यवाद आपका । जी मैं उत्तराखंड से हूं।
जवाब देंहटाएंBahut sundar..... awesome
जवाब देंहटाएंBahut khub
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