कुली बेगार प्रथा और कुली बेगार आंदोलन
कुली बेगार आंदोलन उत्तराखंड में स्वतंत्रता संग्राम की एक महत्वपूर्ण घटना थी। इस आंदोलन ने जिस सफलता के साथ क्षेत्र में बरसों से चले आ रहे अत्याचार, अन्याय तथा शोषण के प्रतीक प्रथा की जड़ों का उन्मूलन किया और उत्तराखंड के विभिन्न वर्गों के लोगों ने जिस उत्साह व निर्माता से हिस्सा लिया वह प्रशंसनीय है। इस आंदोलन के अनेक महत्वपूर्ण नेता भी उभर कर आए जिन्होंने आगामी समय में आने वाले आंदोलनों में राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम को सफल बनाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया।
कुली बेगार प्रथा का प्रारंभ 1815 में ब्रिटिश काल से प्रारंभ होता है तथा कुली बेगार प्रथा का अंत 14 जनवरी 1921 से प्रारंभ होता है। महात्मा गांधी जी ने कुली बेगार आंदोलन को "रक्तहीन क्रांति" की संज्ञा दी थी।
कुली बेगार प्रथा का इतिहास
उत्तराखंड में बेगारी का अस्तित्व प्राचीन काल से ही रहा है कत्यूरी, चंद एवं गोरखों के समय बेगार प्रथा को विशेष रूप से प्रोत्साहित किया गया। सन् 1815 ई. के पश्चात उत्तराखंड में ब्रिटिश शासन स्थापित हुआ और बेगारी का नया स्वरूप प्रकट हुआ। ब्रिटिश काल में बेगार प्रथा, कुली बेगार प्रथा अथवा कुली उतार प्रथा के रूप में प्रसिद्ध हुई।
कुली बेगार प्रथा
कुली बेगार का अर्थ है "बिना मजदूरी के बलपूर्वक कार्य करवाना" अर्थात कार्य करवा कर मजदूरी ना दिया जाना कुली बेगार कहलाता है। कुली बेगार प्रथा के अन्तर्गत सरकारी कर्मचारी गांव के भ्रमण के समय गांव वालों से मुफ्त में अपना कार्य करवाते थे।
कुली बर्दायश
जब ब्रिटिश अधिकारी पर्वतीय क्षेत्र के दौरे पर आते थे तो ग्रामीणों द्वारा उन्हें निशुल्क राशन देना पड़ता था। इसके अलावा सरकारी कर्मचारी गांव के दौरे के समय मुफ्त में घास, लकड़ी, दूध की आदि सामानों की मांग करते थे ।
कुली उतार
जब ब्रिटिश अधिकारी पर्वतीय क्षेत्र में दौरे पर आते थे तो स्थानीय जनता के लिए अनिवार्य था कि वे उनके लिए नि:शुल्क कुलियों की व्यवस्था करें । इस प्रथा को कुली उतार प्रथा कहा जाता था। उतार का शाब्दिक अर्थ है "उतर कर नीचे आना" अर्थात ऊपर से उतरकर लोग अंग्रेज अधिकारियों तथा सरकारी कर्मचारियों का बोझा लेने नीचे सड़कों तक आते थे।
ब्रिटिशकाल में कुली बेगार प्रथा
कमिश्नर ट्रेल ने कुली बेगार प्रथा को खत्म करने के लिए 1822 प्रथम प्रयास किया था तथा इसके स्थान पर "खच्चर सेना" को विकसित करने का प्रयास किया। किंतु यह प्रथा समाप्त नहीं की जा सके। 1840 में सर्वप्रथम लोहाघाट के आसपास के ग्रामीणों ने अपने उत्पादों को लोहाघाट छावनी में बेचना बंद कर दिया। क्योंकि उनसे जबरदस्ती कुली बर्दायाश ली जाती थी। साथ ही उन्होंने सैनिक सामग्री को भी ले जाने से मना कर दिया। सन् 1857 में कुली उपलब्ध कराना अत्यधिक कठिन हो गया और कमिश्नर रैमजे को जेल के कैदियों को काम पर लगाना पड़ा। 1893 में कांग्रेस के लाहौर अधिवेशन में बेगार के विरुद्ध प्रस्ताव लाया गया था । सन 1903 में जब लार्ड कर्जन अल्मोड़ा होते हुए गढ़वाल की ओर जा रहे थे तो गौरीदत्त बिष्ट तथा नारायण दास ने लॉर्ड कर्जन से जंगलात व कुली बेगार के संबंध में चर्चा की थी। अगस्त 1917 में तत्कालीन कमिश्नर विंडम ने कुली उतार व प्रयास के नियमों को लचीला कर दिया।
1908 में जोध सिंह नेगी ने "कुली एजेंसी" की स्थापना की कुली एजेंसी का नाम "ट्रांसपोर्ट एंड पावर सप्लाई को ऑपरेटिव एसोसिएशन" रखा गया। 1913 तक गढ़वाल में कुल 10 कुली एजेंसियों थी। कुली एजेंसी के संचालन के लिए एक समिति भी बनाई गई जिसका नेतृत्व तारादत्त गैरोला ने किया था
कुली बेगार आंदोलन के प्रमुख कारण
- भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के प्रभाव
- कुमाऊं परिषद के कार्य
- समाचार पत्र
- प्रांतीय तथा गर्वनर जनरल की काउंसिल
- शिक्षा का प्रभाव
- 1903 ई. का इलाहाबाद उच्च न्यायालय का निर्णय
- राष्ट्रीय नेताओं का उत्तराखंड में आगमन तथा उत्तराखंड में योग्य नेतृत्व का उद्भव
- सवर्ण जातियों से बेगार लेना
- असहयोग आंदोलन
कुली बेगार आंदोलन का प्रारंभ
कुमाऊं परिषद के काशीपुर अधिवेशन -1920 कुली बेगार को समाप्त करने की दिशा में सफल प्रयास किया गया । काशीपुर अधिवेशन तथा कांग्रेस के नागपुर अधिवेशन से लौटने पर 1 जनवरी 1921 ईस्वी में 'चामी' के ग्रामीणों ने एक सभा का आयोजन किया तथा कुली बेगार ना देने की घोषणा की। साथ में ही उत्तरायणी मेले में इसका प्रचार करने का निर्णय लिया गया। बद्रीदत्त पांडे, हरगोविंद पंत और चिरंजीलाल अपने सहयोगियों के साथ 10 जनवरी 1921 ईस्वी में बागेश्वर पहुंचे। 12 जनवरी की दोपहर 2 बजे इन नेताओं के नेतृत्व में बागेश्वर में जुलूस महात्मा गांधी की जय, स्वतंत्र भारत की जय, भारत माता की जय, वंदे मातरम, कुली उतार बंद करो इत्यादि नारों के साथ निकाला। जगह-जगह नेताओं के भाषण और अंत में जुलूस सरयू के किनारे एक सभा में परिवर्तित हो गया।
14 जनवरी 1921 को बागनाथ मंदिर के प्रांगण में एक आम सभा हुई और बद्रीदत्त पांडे, हरगोविंद पर चिरंजीलाल आदि के नेतृत्व में बागेश्वर के सरयू नदी के तट पर उत्तरायणी मेले के दिन 40 हजार स्वतंत्रता सेनानियों द्वारा कुली बेगार ना करने की शपथ ली और इससे संबंधित रजिस्टर सरयू नदी में बहा दिए गए। सभा स्थल में अनेक मालगुजार भी उपस्थित थे उन्होंने अपने क्षेत्रों के कुली रजिस्टर फाड़ डाले तथा उनके टुकड़ों को सरयू में प्रभावित कर डाला इस प्रकार कुली बेगार आंदोलन का शुभारंभ हुआ। कुली बेगार के समय डिप्टी कमिश्नर डायबिल था। डिप्टी कमिश्नर डायबिल ने हरगोविंद पंत, बद्रीदत्त पांडे एवं चिरंजीलाल को अपने पास बुलाया तथा उन्हें बागेश्वर छोड़ने का आदेश दिया। पिथौरागढ़ में बेगार आंदोलन का नेतृत्व किया प्रयागदत्त पंत ने किया था।
गढ़वाल में कुली बेगार आंदोलन
कुली बेगार आंदोलन के प्रभाव से गढ़वाल जिले में भी पड़ा । 30 जनवरी 1921 में चमेठाखाल (दुगड्डा) नामक स्थान पर मुकुंदीलाल के नेतृत्व में कुली बेगार आंदोलन के सहयोग के लिए एक विशाल सभा हुई तथा गढ़वाल के ककोड़ाखाल में कुली बेगार का नेतृत्व अनुसूया प्रसाद बहुगुणा ने किया ।
आंदोलन की बढ़ती लहर को देखकर सरकारी तंत्र हड़बड़ा गया वह इस आंदोलन को बहुत हल्के में ले रहा था परंतु जब आंदोलन संपूर्ण उत्तराखंड में फैल गया तथा जगह-जगह कुली बेगार देने के लिए सरकारी आदेश की अवहेलना होने लगी तब उसकी नींद टूटी प्रमुख आंदोलनकारी नेताओं के बोलने पर प्रतिबंध था। गिरफ्तारी के आदेश दिए जाने लगे अपने क्षेत्र में धारा 144 लगाई गई। कई नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया तथा उन्हें सजा दी गई लगाएंगे। इस आंदोलन में शक्ति पत्र ने आंदोलनकारियों का समर्थन किया तथा जनता में आंदोलन के प्रति जागृति फैलाने में सहयोग दिया।
स्वामी सत्यदेव ने बेगार आंदोलन को असहयोग आंदोलन के प्रथम ईंट कहा था। गौर्दा ने कुली बेगार शीर्षक से "मुल्क कुमाऊं का सुणि लिया यारो" रचना लिखी थी।
*हलक बेगार
यह भी बेकार मजदूरी का ही हिस्सा था अंग्रेजों द्वारा 1891 तक डाक पहुंचाए जाने के लिए बारी-बारी ग्रामीणों को बिना भुगतान के कार्य करना पड़ता था।
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