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उत्तराखंड का आधुनिक इतिहास (भाग - 04)

आधुनिक उत्तराखंड का इतिहास (1930-1947)

भाग -04

क्योंकि आगे का इतिहास गांधीजी के आंदोलनों से जुड़ा है। इसलिए हम सर्वप्रथम गांधी जी के बारे में जानेंगे और फिर उत्तराखंड के इतिहास को पढ़ेंगे। मित्रों परीक्षा की दृष्टि से अति महत्वपूर्ण टॉपिक है इसलिए अंत तक जरूर पढ़ें।

गांधी जी का उत्तराखंड में आगमन

यूं तो गांधीजी उत्तराखंड में प्रथम बार 5 अप्रैल 1915 ईस्वी को हरिद्वार के कुंभ मेले में आए थे। और दूसरी बार राजनीतिक उद्देश्य से सन् 1916 में देहरादून आए थे। जहां उन्होंने राष्ट्रीय भावना से ओत प्रोत भाषण दिए जिससे वहां की जनता काफी प्रभावित हुई। किंतु उत्तराखंड की यात्रा के उद्देश्य से प्रथम बार जून 1929 में आए थे।

जब उत्तराखंड में कुमाऊं परिषद का बोलबाला था उस दौरान देश का राष्ट्रीय आंदोलन गांधीजी के नेतृत्व में आ चुका था। 9 जनवरी 1915 को दक्षिण अफ्रीका से भारत लौटने के बाद सर्वप्रथम उन्होंने वर्ष 1917 में बिहार के चंपारण में नील की खेती की दमनकारी प्रणाली के लिए भारत में सत्याग्रह आंदोलन चलाया। उसके बाद 1917 में ही खेड़ा सत्याग्रह और वर्ष 1918 में कपास मिल श्रमिकों के लिए अहमदाबाद सत्याग्रह आंदोलन चलाया। एक के बाद एक लगातार आंदोलन की सफलता के कारण गांधीजी अत्यधिक प्रसिद्ध हो गए।

उत्तराखंड के राष्ट्रीय भक्तों ने अतिशीघ्र गांधी जी से अपने संबंध स्थापित किए। वर्ष 1918 ईस्वी में बद्रीदत्त पांडे गांधीजी से कलकत्ता में मिले तथा उनसे क्षेत्रीय समस्याओं जैसे कुली बेगार, कुली बर्दायश, और कुली उतार से अवगत कराया । गांधीजी के पास समय का अभाव था किंतु उन्होंने आश्वासन दिया कि "जब मौका लगेगा कुमाऊं अवश्य आऊंगा"।

असहयोग आंदोलन -1920

जब देशभर में रोलेट एक्ट का विरोध हो रहा था तो उत्तराखंड में भी इसका प्रभाव पड़ा। 1 अगस्त 1920 को गांधी जी ने देश में असहयोग आंदोलन की शुरुआत की और उत्तराखंड के वासियों ने इसमें बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया। असहयोग आंदोलन के प्रभाव में वर्ष 1921 में मुकंदी लाल के नेतृत्व में बैलगाड़ी से सैनिकों हेतु सम्मान ढुलाई बंद कर दी गई। उस समय उपस्थित सेना को माल की सप्लाई हेतु बैलगाड़ियों का प्रयोग किया जाता था। इस निर्णय से अंग्रेजी सेना को अधिक परेशानी हुई। उत्तराखंड में असहयोग आंदोलन से अधिक ज्वलंत मुद्दा कुली बेगार आंदोलन का बना हुआ था यद्यपि कुली बेगार आंदोलन भी अपने अंत समय असहयोग आंदोलन का अंग बन चुका था।

उत्तराखंड की यात्रा 

असहयोग आंदोलन के पश्चात गांधीजी 1927 में एक बार पुनः हरिद्वार आए। वर्ष 1929 में गांधी जी ने पहली बार कुमाऊं की यात्रा की। गांधीजी की यह यात्रा स्वास्थ्य लाभ एवं राजनीतिक एकता हेतु महत्वपूर्ण थी। बरेली से गांधीजी और नेहरू जी 14 जून 1929 ईस्वी में हल्द्वानी मार्ग से होते हुए ताकुला पहुंचे उसके पश्चात वे नैनीताल, भवाली, ताड़ीखेत, अल्मोड़ा, कौसानी इत्यादि क्षेत्रों में भ्रमण किया । साथ ही अनेक सभाओं को संबोधित किया । 

कौसानी यात्रा - गांधी जी बागेश्वर के कौसानी से बहुत प्रभावित हुए। कौसानी में प्रवास के दौरान उन्होंने "अनासक्ति योग" के नाम से गीता पर टीका पूर्ण किया। कौसानी में गांधी जी जिस आश्रम पर ठहरे थे उसे "अनासक्ति आश्रम" के नाम से जाना गया। अनासक्ति आश्रम में गांधीजी 12 दिन ठहरे थे। बागेश्वर यात्रा में उनके साथ मोहन जोशी और बद्रीदत्त पांडे भी शामिल थे। और इसी समय 22 जून 1929 ईस्वी में गांधी जी ने बागेश्वर में "स्वराज मंदिर" के भूमि का शिलान्यास किया। यंग इंडिया के एक लेख में गांधी जी ने कौसानी को "भारत का स्विट्जरलैंड" कहा। गांधीजी 2 जुलाई 1929 जुलाई तक कौसानी में रहे थे। 4 जुलाई को काशीपुर होते हुए दिल्ली को रवाना हुए। 

ताड़ीखेत यात्रा -  महात्मा गांधी उत्तराखंड भ्रमण के दौरान ताड़ीखेत में जिस स्थान पर रुके थे। उस स्थान को आज "गांधीकुटी" के नाम से जाना जाता है।

गढ़वाल यात्रा - 16 से 24 अक्टूबर 1929 तक गांधीजी ने गढ़वाल क्षेत्र में कई सभाएं की थी। 

सविनय अवज्ञा आंदोलन 

वर्ष 1930 में गांधी जी द्वारा सविनय अवज्ञा आंदोलन प्रारंभ कर दिया गया। गांधीजी ने साबरमती आश्रम के 78 अनुयायी चुने तथा उनके साथ 12 मार्च 1930 को गांधीजी ने साबरमती आश्रम से दांडी तक 240 मील की पैदल यात्रा प्रारंभ की। 24 दिनों के उपरांत 6 अप्रैल को गांधी जी ने नमक बनाकर नमक कानून का विरोध किया । गांधी जी की दांडी यात्रा में उत्तराखंड के 3 स्वतंत्रता सेनानी भी सम्मिलित थे। ज्योतिराम कांडपाल, भैरव दत्त जोशी एवं खड़ग बहादुर।

दांडी यात्रा के पश्चात 6 अप्रैल 1930 को जैसे ही गांधीजी ने एक मुट्ठी नमक हाथ में लेकर सविनय अवज्ञा आंदोलन प्रारंभ किया। वैसे ही नमक तोड़ने का आंदोलन संपूर्ण भारत में प्रारंभ हो गया । उत्तराखंड भला इससे कहां पीछे रह सकता था। 1929 को गांधी जी की उत्तराखंड यात्रा से जहां की जनता में अधिक उत्साह भरा था और जैसे ही आंदोलन का आरंभ हुआ यहां की जनता आन्दोलन में कूद पड़ी। उत्तराखंड में नमक का उत्पादन नहीं था अतः नमक के स्थान पर "जंगलात कानून" का विरोध किया गया। नैनीताल में 27 मई 1930 को 6000 लोगों की उपस्थिति में बद्रीदत्त पांडे द्वारा प्रभावशाली व्याख्यान दिया गया तथा नमक बेचा गया। और नमक कानून के विरोध में माल रोड पर जुलूस निकाला गया। नैनीताल की तरह ही अल्मोड़ा में भी नमक सत्याग्रह हुआ किंतु यह नमक सत्याग्रह ने शीघ्र ही झंडा सत्याग्रह का रूप धारण कर लिया। 4 मई 1930 को नवयुवकों द्वारा राष्ट्रीय ध्वज लेकर जुलूस निकाला गया । उसके पश्चात नंदा देवी मंदिर प्रांगण में मोहन जोशी की अध्यक्षता में विराट सभा हुई। 25 मई 1930 को सर्वसम्मति से अल्मोड़ा नगर पालिका भवन में "राष्ट्रीय झंडा" फहराने का निर्णय लिया गया।

कुली बेगार आंदोलन -1921 के बारे में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें।

उत्तराखंड में जंगलात आन्दोलन

उत्तराखंड में जंगलात आंदोलन का उत्तरदायी पं. गोविंद बल्लभ पंत को सौंपा गया था। जैसे-जैसे जंगलात आंदोलन जोर पकड़ने लगा। गिरफ्तारियां बढ़ने लगी। चंपावत में हर्ष देव औली गिरफ्तार कर लिए गए तथा बरेली भेज दिए गए जहां से बाद में उन्हें सुल्तानपुर जेल में रखा गया। गांधी इरविन समझौता -1931 के अंतर्गत उन्हें रिहा किया गया।

प्रथम स्वतंत्रता दिवस - 26 जनवरी 1930

गांधी जी की उत्तराखंड यात्रा ने उत्तराखंड के राष्ट्रीय आंदोलन में ताजगी भर दी जिसका परिणाम यह हुआ कि उत्तराखंड की जनता आंदोलन में और उत्साह से कूद पड़ी। 26 जनवरी 1930 को संपूर्ण देश में "प्रथम स्वतंत्रता दिवस" मनाया गया। उत्तराखंड में भी इसी दिन को बड़े उल्लास से प्रथम स्वतंत्रता दिवस के रूप में मनाया गया।

मार्च 1931 में गांधीजी का वायसराय इरविन के बीच समझौता हो गया । इस समझौते के पश्चात 18 मई को गांधी उत्तराखंड भ्रमण हेतु नैनीताल आए। तथा 23 मई 1931 तक यहां रहे। इस यात्रा के दौरान उन्होंने संयुक्त प्रांत के गवर्नर सर माल्कम हेली से मुलाकात की तथा कुछ सभाओं को भी संबोधित किया ।

गांधी इरविन समझौता  -1931

दरअसल कांग्रेस ने प्रथम गोलमेज सम्मेलन में भाग नहीं लिया था। ब्रिटिश सरकार प्रथम गोलमेज सम्मेलन से समझ गई कि बिना कांग्रेस के सहयोग के कोई फैसला संभव नहीं है। अतः 5 मार्च 1931 को लंदन में हुए द्वितीय गोलमेज सम्मेलन के पूर्व महात्मा गांधी और तत्कालीन वायसराय लॉर्ड इरविन के बीच एक राजनीतिक समझौता हुआ। जिसे "गांधी इरविन समझौता" कहा जाता है। इसे "दिल्ली पैक्ट" के भी नाम से जाना जाता है। इस समझौते में लार्ड इरविन ने स्वीकार किया कि -

  • सभी राजनीतिक बंदियों को रिहा कर दिया जाएगा। सिवाय हिंसा के आरोपियों को छोड़कर
  • समुद्र किनारे नमक बनाने का अधिकार भारतीयों को भी दिया जाएगा।
  • भारतीय शराब एवं विदेशी कपड़ों की दुकानों के सामने धरना दे सकते हैं।
  • आंदोलन के दौरान त्यागपत्र देने वालों को उनके पदों पर पुनः नियुक्त किया जाएगा।
  • आंदोलन के दौरान जब्त संपत्ति वापस की जाएगी।

कांग्रेस की ओर से गांधीजी ने निम्न शर्तें स्वीकार की :-

  • सविनय अवज्ञा आंदोलन स्थगित (रोक) कर दिया जाएगा।
  • कांग्रेस द्वितीय गोलमेज सम्मेलन में भाग लेगी।
  • कांग्रेस विदेशी सामान का बहिष्कार नहीं करेगी।
  • गांधीजी पुलिस की ज्यादतियों की जांच की मांग छोड़ देंगे।

पेशावर कांड - 23 अप्रैल 1930 

पेशावर नामक स्थान का उत्तराखंड के कोई भौगोलिक संबंध नहीं है। किंतु इस घटना का संबंध उत्तराखंड के वीर चंद्र सिंह गढ़वाली के साथ जुड़ा हुआ है। दरअसल 23 अप्रैल 1930 में यहां पेशावर कांड की घटना घटी। जिसने राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन के लिए प्रेरणा स्रोत का कार्य किया। 

23 अप्रैल की दोपहर को जब सीमांत गांधी के नाम से प्रसिद्ध खान अब्दुल खान गफ्फार खान के नेतृत्व में पश्चिमोत्तर सीमा प्रांत में चल रहे सविनय अवज्ञा आंदोलन के आंदोलनकारी पेशावर में प्रदर्शन और सत्याग्रह करने हेतु किस्साखानी बाजार में पुलिस चौकी के सामने साहिबाग में एकत्रित हुए थे। ब्रिटिश सरकार द्वारा वहां की गढ़वाल राइफल की 2/18 बटालियन तैनात की गई थी। बटालियन का नेतृत्व वीर चंद्र सिंह गढ़वाली कर रहे थे। कप्तान रिकेट ने चेतावनी के साथ पठानों को पीछे हटने को कहा पर जब पठान नहीं हटे तो उसने सेना को आदेश दिया 'गढ़वाली थ्री राउंड फायर' । सिपाही फायर करने वाले थे  की बायीं ओर से चंद्र सिंह की आवाज आई "गढ़वाली सीजफायर" पूछे जाने पर उत्तर देते हुए कहा "हम भारत की रक्षा हेतु सेना में भर्ती हुए थे ना कि निहत्थे भाइयों पर गोली नहीं चलाने को" । इसी घटना को "पेशावर कांड" के नाम से जाना जाता है । 

सविनय अवज्ञा आंदोलन के समाप्ति के पश्चात 1940 ईस्वी तक देश में कोई विशेष आंदोलन नहीं हुआ। लेकिन 1937 में शांति लाल त्रिवेदी ने सोमेश्वर (अल्मोड़ा) में "गांधी आश्रम" की स्थापना की। जिससे वह स्थान राजनीतिक गतिविधियों का केंद्र बन गया। इस काल में देशभक्तों ने अपनी उर्जा को एकत्रित कर अंतिम युद्ध हेतु अपने को तैयार किया। 2 सितंबर 1942 को कमिश्नर ने वहां मौजूद कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार कर "गांधी आश्रम" पर ताला लगा दिया। इसी वर्ष केन्द्र में सन् 1937 ईस्वी में देश के सभी प्रांतों में चुनाव हुए तथा प्रांतों में स्वदेशी चुने गए सदस्यों से बनी सरकार का गठन हुआ। संयुक्त प्रांत (वर्तमान उत्तर प्रदेश) में बनी सब प्रांतीय सरकार के प्रमुख का उत्तरदायित्व पं. गोविंद बल्लभ पंत को सौंपा गया।

उत्तराखंड का व्यक्तिगत सत्याग्रह

भारत में व्यक्तिगत सत्याग्रह आंदोलन अक्टूबर 1940 को प्रारंभ हुआ। जिसके पहले सत्याग्रह विनोवा भावे थे और दूसरे सत्याग्रही जवाहरलाल नेहरू थे जबकि उत्तराखंड से प्रथम व्यक्तिगत सत्याग्रही "जगमोहन सिंह नेगी" थे। उत्तराखंड में व्यक्तिगत सत्याग्रह की पहली बैठक डाडामांडी नामक स्थान पर हुई थी । कुमाऊं में व्यक्तिगत सत्याग्रह आंदोलन के नायक प्रताप सिंह थे। उत्तराखंड में अपने आप को व्यक्तिगत सत्याग्रही घोषित करने वाली महिला भागीरथी देवी थी। चमोली में व्यक्तिगत सत्याग्रह का संचालन अनुसूया प्रसाद बहुगुणा ने किया। 

देहरादून में सन 1940-41 में कुमाऊं कमिश्नरी में व्यक्तिगत सत्याग्रह बड़े जोरों से चला लेकिन ब्रिटिश गढ़वाल में डोली पालकी की समस्या उठ जाने के कारण गांधी जी ने वहां के व्यक्तिगत सत्याग्रह पर रोक लगा दी। गढ़वाली कार्यकर्ताओं ने डोली पालकी की समस्या को दूर करने के लिए 23 फरवरी 1941 को लैंसडाउन में डोली-पालकी सम्मेलन आयोजित किया और डोला पालकी के अंतर्गत "हरिजनों पर होने वाले अत्याचारों को बंद करने का निश्चय किया"।  तत्पश्चात 28 फरवरी को गांधी जी ने गढ़वाल में व्यक्तिगत सत्याग्रह से प्रतिबंध हटा दिया था ।

भारत छोड़ो आंदोलन में उत्तराखंड का योगदान 

भारत में 8 अगस्त 1942 को भारत छोड़ो आंदोलन प्रारंभ हुआ। उत्तराखंड में अल्मोड़ा भारत छोड़ो आंदोलन का प्रमुख केंद्र था। जिसमें अल्मोड़ा का देघाट, सलाम और खुमाड़(सल्ट) में हिंसक घटनाएं घटी।

देघाट (अल्मोड़ा)

देघाट के ग्रामीण क्षेत्रों में मदन मोहन उपाध्याय ने भारत छोड़ो आंदोलन का नेतृत्व किया। 18 अगस्त 1942 को देघाट में पुलिस ने आंदोलनकारियों पर गोली चलाई । जिसमें हरिकृष्ण व हीरामणि नामक दो व्यक्ति शहीद हुए। 

सालम की क्रांति (अल्मोड़ा)

सलाम की क्रांति की शुरुआत 25 अगस्त 1942 को हुई। इसमें दुर्गादत्त पांडे, राम सिंह आजाद, टीका सिंह राम और नरसिंह आदि देशभक्तों ने सालम क्षेत्र में भारत छोड़ो आंदोलन का प्रचार-प्रसार को आगे बढ़ाया । आंदोलनकारियों को रोकने के लिए सरकार ने ब्रिटिश सेना भेजी। ब्रिटिश सेना और आन्दोलकारियों के बीच धामदेव नामक ऊंचे टीले पर पत्थर और गोलियों से तीव्र संघर्ष हुआ। इस संघर्ष में जनता के दो प्रमुख नेता नरसिंह धानक और टीका सिंह कन्याल शहीद हो गए। इसके बाद डिप्टी कलेक्टर मेहरबान सिंह ने आन्दोलन को दबाने के लिए सलाम क्षेत्र में जाट सेना भेजी जिसका जनता ने विरोध किया। सलाम के लोगों ने गिरफ्तार व्यक्तियों को छुड़ाने के लिए हाथापाई की। तब सलाम का शेर राम सिंह आजाद 1942 में सलाम से फरार हो गया और कालांतर में जब गांधी जी ने घोषणा की कि लोग तोड़फोड़ की कार्यवाही बंद कर आत्मसमर्पण कर दें। तब लम्बे समय से फरार बद्रीनाथ ने गिरफ्तारी दी। उसके बाद राम सिंह को काला पानी की सजा हुई और राम सिंह के पक्ष में वकालत गोपाल स्वरूप पाठक ने की और यह अपील नैनीताल की स्वतंत्रा सेनानी इंद्र सिंह नायल द्वारा की गई।

सल्ट क्षेत्र (अल्मोड़ा)

भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान सल्ट क्षेत्र के खुमाड़ में एक बड़ी घटना घटी। जॉनसन नामक अधिकारी के आदेश पर अंग्रेजी सेना ने 5 सितंबर 1942 को सल्ट क्षेत्र के खुमाड़ में आदोलनकारियों पर गोली चलाई। जिसमें गंगारामखीमादेव दो सगे भाई शहीद हो गए और बुरी तरह घायल चूड़ामणि व बहादुर सिंह 4 दिन बाद शहीद हो गए। भारत छोड़ो आंदोलन में सल्ट क्षेत्र के लोगों के योगदान से गांधीजी अति प्रभावित हुए उन्होंने इस घटना को "भारत की दूसरी बारदोली" कहकर क्षेत्र के आंदोलनकारियों का सम्मान प्रदान किया । क्योंकि खुमाड़ (सल्ट) कुमाऊं क्षेत्र में आता है। इसलिए इसे "कुमाऊं का बारदोली" भी कहा जाता है। जबकि गढ़वाल का बारदोली "गुजडु आंदोलन" को कहा जाता है।

ब्रिटिश गढ़वाल में भारत छोड़ो आंदोलन 

भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान गढ़वाल में राम प्रसाद नौटियाल के नेतृत्व में एक सभा का आयोजन किया गया। जिसमें 500 से ज्यादा सदस्य को इकट्ठा किया गया और लैंसडाउन को स्वतंत्र करने की योजना बनाई गई। इसके लिए चार समूह बनाए गए जो कि ब्रिटिश गढ़वाल के अलग-अलग क्षेत्रों को प्रतिनिधित्व करते थे। हर समूह को अपने-अपने क्षेत्रों में और अधिक लोगों को जोड़ने व सक्रिय हो जाने का निर्देश दिया गया। योजनानुसार "उमराव सिंह रावत" के नेतृत्व में क्रांतिकारियों ने दुगड्डा क्षेत्र में दूरसंचार साधनों को क्षतिग्रस्त कर दिया था। जिसे डाडामंडी आंदोलन कहा गया। किन्तु समूह में विश्वासघात हो जाने के कारण यह योजना विफल हो जाती है। मंगतराम खंतवाल सारी योजना ब्रिटिश प्रशासन के समर्थक मालगुजार सिंह को बता देता है। ब्रिटिश प्रशासन चौकन्ना हो जाता है और ब्रिटिश सेना सत्याग्रहियों की तलाश करने लगती है। लैंसडाउन को स्वतंत्र करने की योजना विफल हो जाती है। सफलता ना मिलने के कारण इस षड्यंत्र के मुख्य कर्ताधर्ता राम प्रसाद नौटियाल का दुगड्डा की भूमि में रहना मुश्किल हो गया था इसलिए रामप्रसाद ने दक्षिण गढ़वाल में अपने दूसरे ठिकाने गुजडु पट्टी की ओर रुख किया।

गढ़वाल का बारदोली - (गुजडु आंदोलन)

दुगड्डा के बाद गढ़वाल में सत्याग्रह और स्वयं सेवक की भर्ती का दूसरा सबसे बड़ा केंद्र बन कर उभरा था। अंग्रेज सरकार ने सत्याग्रहियों की गतिविधियों को रोकने और क्षेत्र में भय पैदा करने के उद्देश्य से राजस्व की वसूली बढ़ा दी और इसे सख्ती से लागू करने का आरंभ कर दिया। इसके विरोध में रामप्रसाद ने "स्थानीय किसानों और ग्रामीण लोगों" को एकत्र किया और वर्ष 1942 में एक बड़ा आंदोलन खड़ा किया । जिसे कुचलने के लिए राजस्व और पुलिस विभाग के तमाम गिरफ्तारियां करनी पड़ी। किसानों के इसी आंदोलन को "गुजडु आंदोलन" अथवा "गढ़वाल का बारदोली" कहा जाता है।

डाडामंडी आन्दोलन

भारत छोड़ो आंदोलन के समय गढ़वाल में डाडामंडी आंदोलन चलाया गया । जिसका नेतृत्व उमराव सिंह रावत ने किया। डाडामंडी आंदोलन के अंतर्गत क्रांतिकारियों ने दुगड्डा क्षेत्र में दूरसंचार साधनों को क्षतिग्रस्त कर दिया था।

आजाद हिंद फौज एवं उत्तराखंड

आजाद हिंद फौज की स्थापना 'कैप्टन मोहन सिंह' ने रासबिहारी बोस और निरंजन सिंह गिल के सहयोग से सन् 1941 ईस्वी में की थी। और रासबिहारी बोस के आग्रह पर नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने 21 अक्टूबर 1943 में इसका पुनर्गठन किया। इस सेना में द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान जापानी सेना द्वारा बंदी बनाए गए भारतीय सैनिकों को सम्मिलित किया गया । इन बंदी सैनिकों में सैकड़ों उत्तराखंड के भी थे । जिसमें लेफ्टिनेंट कर्नल चंद्र सिंह नेगी सिंगापुर में ऑफिसर्स ट्रेनिंग स्कूल के कमांडर थे और मेजर देव सिंह दानू नेताजी के अंगरक्षक बटालियन के कमांडर थे। 21 सितंबर 1942 में गढ़वाल राइफल्स के दो बटालियन 2/18 तथा 5/18 आजाद हिंद फौज में शामिल हो गई।

महत्वपूर्ण तथ्य 

  • आज भी खुमाड़ (अल्मोड़ा) में 5 सितंबर को 'शहीद स्मृति दिवस' मनाया जाता है।
  • डोला पालकी आंदोलन 1930 ईस्वी में 'जयानंद भारती' के नेतृत्व में शुरू किया गया था इसका संबंध शिल्पकारों से था यह आंदोलन सवर्ण दूल्हों के समान अधिकार प्राप्त करने के लिए था।
  • "अमन सभा" की स्थापना लैंसडाउन में नवंबर 1930 में हुई थी इसका उद्देश्य लैंसडाउन छावनी को राष्ट्रवादी आंदोलन से बचाना था।
  • मोतीलाल नेहरू ने 23 अप्रैल के दिन को 'गढ़वाल दिवस' मनाने की घोषणा की थी। 23 अप्रैल का संबंध पेशावर कांड से है।
  • व्यक्तिगत सत्याग्रह आंदोलन से पूर्व उत्तराखंड में गाड़ी सड़क आंदोलन 1939-40 में प्रारंभ किया गया था। इस आंदोलन का उद्देश्य गरुण से कर्णप्रयाग व लैंसडाउन से पौड़ी तक सड़क निर्माण कराना था।


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चंद राजवंश का इतिहास पृष्ठभूमि उत्तराखंड में कुणिंद और परमार वंश के बाद सबसे लंबे समय तक शासन करने वाला राजवंश है।  चंद वंश की स्थापना सोमचंद ने 1025 ईसवी के आसपास की थी। वैसे तो तिथियां अभी तक विवादित हैं। लेकिन कत्यूरी वंश के समय आदि गुरु शंकराचार्य  का उत्तराखंड में आगमन हुआ और उसके बाद कन्नौज में महमूद गजनवी के आक्रमण से ज्ञात होता है कि तो लगभग 1025 ईसवी में सोमचंद ने चंपावत में चंद वंश की स्थापना की है। विभिन्न इतिहासकारों ने विभिन्न मत दिए हैं। सवाल यह है कि किसे सच माना जाए ? उत्तराखंड के इतिहास में अजय रावत जी के द्वारा उत्तराखंड की सभी पुस्तकों का विश्लेषण किया गया है। उनके द्वारा दिए गए निष्कर्ष के आधार पर यह कहा जा सकता है । उपयुक्त दिए गए सभी नोट्स प्रतियोगी परीक्षाओं की दृष्टि से सर्वोत्तम उचित है। चंद राजवंश का इतिहास चंद्रवंशी सोमचंद ने उत्तराखंड के कुमाऊं मंडल में लगभग 900 वर्षों तक शासन किया है । जिसमें 60 से अधिक राजाओं का वर्णन है । अब यदि आप सभी राजाओं का अध्ययन करते हैं तो मुमकिन नहीं है कि सभी को याद कर सकें । और अधिकांश राजा ऐसे हैं । जिनका केवल नाम पता...

कुणिंद वंश का इतिहास (1500 ईसा पूर्व - 300 ईसवी)

कुणिंद वंश का इतिहास   History of Kunid dynasty   (1500 ईसा पूर्व - 300 ईसवी)  उत्तराखंड का इतिहास उत्तराखंड मूलतः एक घने जंगल और ऊंची ऊंची चोटी वाले पहाड़ों का क्षेत्र था। इसका अधिकांश भाग बिहड़, विरान, जंगलों से भरा हुआ था। इसीलिए यहां किसी स्थाई राज्य के स्थापित होने की स्पष्ट जानकारी नहीं मिलती है। थोड़े बहुत सिक्कों, अभिलेखों व साहित्यक स्रोत के आधार पर इसके प्राचीन इतिहास के सूत्रों को जोड़ा गया है । अर्थात कुणिंद वंश के इतिहास में क्रमबद्धता का अभाव है।               सूत्रों के मुताबिक कुणिंद राजवंश उत्तराखंड में शासन करने वाला प्रथम प्राचीन राजवंश है । जिसका प्रारंभिक समय ॠग्वैदिक काल से माना जाता है। रामायण के किस्किंधा कांड में कुणिंदों की जानकारी मिलती है और विष्णु पुराण में कुणिंद को कुणिंद पल्यकस्य कहा गया है। कुणिंद राजवंश के साक्ष्य के रूप में अभी तक 5 अभिलेख प्राप्त हुए हैं। जिसमें से एक मथुरा और 4 भरहूत से प्राप्त हुए हैं। वर्तमान समय में मथुरा उत्तर प्रदेश में स्थित है। जबकि भरहूत मध्यप्रदेश में है। कुणिंद वंश का ...

भारत की जनगणना 2011 से संबंधित महत्वपूर्ण प्रश्न (भाग -01)

भारत की जनगणना 2011 मित्रों वर्तमान परीक्षाओं को पास करने के लिए रखने से बात नहीं बनेगी अब चाहे वह इतिहास भूगोल हो या हमारे भारत की जनगणना हो अगर हम रटते हैं तो बहुत सारे तथ्यों को रटना पड़ेगा जिनको याद रखना संभव नहीं है कोशिश कीजिए समझ लीजिए और एक दूसरे से रिलेट कीजिए। आज हम 2011 की जनगणना के सभी तथ्यों को समझाने की कोशिश करेंगे। यहां प्रत्येक बिन्दु का भौगोलिक कारण उल्लेख करना संभव नहीं है। इसलिए जब आप भारत की जनगणना के नोट्स तैयार करें तो भौगोलिक कारणों पर विचार अवश्य करें जैसे अगर किसी की जनसंख्या अधिक है तो क्यों है ?, अगर किसी की साक्षरता दर अधिक है तो क्यों है? अगर आप इस तरह करेंगे तो शत-प्रतिशत है कि आप लंबे समय तक इन चीजों को याद रख पाएंगे साथ ही उनसे संबंधित अन्य तथ्य को भी आपको याद रख सकेंगे ।  भारत की जनगणना (भाग -01) वर्ष 2011 में भारत की 15वीं जनगणना की गई थी। 2011 की जनगणना के अनुसार भारत का कुल क्षेत्रफल 32,87,263 वर्ग किलोमीटर था तथा भारत की कुल आबादी 121,08,54,922 (121 करोड़) थी। जिसमें पुरुषों की जनसंख्या 62.32 करोड़ एवं महिलाओं की 51.47 करोड़ थी। जनसंख्या की दृष...

उत्तराखंड की जनजातियों से संबंधित प्रश्न (उत्तराखंड प्रश्नोत्तरी -14)

उत्तराखंड प्रश्नोत्तरी -14 उत्तराखंड की प्रमुख जनजातियां वर्ष 1965 में केंद्र सरकार ने जनजातियों की पहचान के लिए लोकर समिति का गठन किया। लोकर समिति की सिफारिश पर 1967 में उत्तराखंड की 5 जनजातियों थारू, जौनसारी, भोटिया, बोक्सा, और राजी को एसटी (ST) का दर्जा मिला । राज्य की मात्र 2 जनजातियों को आदिम जनजाति का दर्जा प्राप्त है । सर्वप्रथम राज्य की राजी जनजाति को आदिम जनजाति का दर्जा मिला। बोक्सा जनजाति को 1981 में आदिम जनजाति का दर्जा प्राप्त हुआ था । राज्य में सर्वाधिक आबादी थारू जनजाति तथा सबसे कम आबादी राज्यों की रहती है। 2011 की जनगणना के अनुसार राज्य की कुल एसटी आबादी 2,91,903 है। जुलाई 2001 से राज्य सेवाओं में अनुसूचित जन जातियों को 4% आरक्षण प्राप्त है। उत्तराखंड की जनजातियों से संबंधित प्रश्न विशेष सूचना :- लेख में दिए गए अधिकांश प्रश्न समूह-ग की पुरानी परीक्षाओं में पूछे गए हैं। और कुछ प्रश्न वर्तमान परीक्षाओं को देखते हुए उत्तराखंड की जनजातियों से संबंधित 25+ प्रश्न तैयार किए गए हैं। जो आगामी परीक्षाओं के लिए महत्वपूर्ण साबित होंगे। बता दें की उत्तराखंड के 40 प्रश्नों में से 2...