आधुनिक उत्तराखंड का इतिहास (1930-1947)
भाग -04
क्योंकि आगे का इतिहास गांधीजी के आंदोलनों से जुड़ा है। इसलिए हम सर्वप्रथम गांधी जी के बारे में जानेंगे और फिर उत्तराखंड के इतिहास को पढ़ेंगे। मित्रों परीक्षा की दृष्टि से अति महत्वपूर्ण टॉपिक है इसलिए अंत तक जरूर पढ़ें।
गांधी जी का उत्तराखंड में आगमन
यूं तो गांधीजी उत्तराखंड में प्रथम बार 5 अप्रैल 1915 ईस्वी को हरिद्वार के कुंभ मेले में आए थे। और दूसरी बार राजनीतिक उद्देश्य से सन् 1916 में देहरादून आए थे। जहां उन्होंने राष्ट्रीय भावना से ओत प्रोत भाषण दिए जिससे वहां की जनता काफी प्रभावित हुई। किंतु उत्तराखंड की यात्रा के उद्देश्य से प्रथम बार जून 1929 में आए थे।
जब उत्तराखंड में कुमाऊं परिषद का बोलबाला था उस दौरान देश का राष्ट्रीय आंदोलन गांधीजी के नेतृत्व में आ चुका था। 9 जनवरी 1915 को दक्षिण अफ्रीका से भारत लौटने के बाद सर्वप्रथम उन्होंने वर्ष 1917 में बिहार के चंपारण में नील की खेती की दमनकारी प्रणाली के लिए भारत में सत्याग्रह आंदोलन चलाया। उसके बाद 1917 में ही खेड़ा सत्याग्रह और वर्ष 1918 में कपास मिल श्रमिकों के लिए अहमदाबाद सत्याग्रह आंदोलन चलाया। एक के बाद एक लगातार आंदोलन की सफलता के कारण गांधीजी अत्यधिक प्रसिद्ध हो गए।
उत्तराखंड के राष्ट्रीय भक्तों ने अतिशीघ्र गांधी जी से अपने संबंध स्थापित किए। वर्ष 1918 ईस्वी में बद्रीदत्त पांडे गांधीजी से कलकत्ता में मिले तथा उनसे क्षेत्रीय समस्याओं जैसे कुली बेगार, कुली बर्दायश, और कुली उतार से अवगत कराया । गांधीजी के पास समय का अभाव था किंतु उन्होंने आश्वासन दिया कि "जब मौका लगेगा कुमाऊं अवश्य आऊंगा"।
असहयोग आंदोलन -1920
जब देशभर में रोलेट एक्ट का विरोध हो रहा था तो उत्तराखंड में भी इसका प्रभाव पड़ा। 1 अगस्त 1920 को गांधी जी ने देश में असहयोग आंदोलन की शुरुआत की और उत्तराखंड के वासियों ने इसमें बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया। असहयोग आंदोलन के प्रभाव में वर्ष 1921 में मुकंदी लाल के नेतृत्व में बैलगाड़ी से सैनिकों हेतु सम्मान ढुलाई बंद कर दी गई। उस समय उपस्थित सेना को माल की सप्लाई हेतु बैलगाड़ियों का प्रयोग किया जाता था। इस निर्णय से अंग्रेजी सेना को अधिक परेशानी हुई। उत्तराखंड में असहयोग आंदोलन से अधिक ज्वलंत मुद्दा कुली बेगार आंदोलन का बना हुआ था यद्यपि कुली बेगार आंदोलन भी अपने अंत समय असहयोग आंदोलन का अंग बन चुका था।
उत्तराखंड की यात्रा
असहयोग आंदोलन के पश्चात गांधीजी 1927 में एक बार पुनः हरिद्वार आए। वर्ष 1929 में गांधी जी ने पहली बार कुमाऊं की यात्रा की। गांधीजी की यह यात्रा स्वास्थ्य लाभ एवं राजनीतिक एकता हेतु महत्वपूर्ण थी। बरेली से गांधीजी और नेहरू जी 14 जून 1929 ईस्वी में हल्द्वानी मार्ग से होते हुए ताकुला पहुंचे उसके पश्चात वे नैनीताल, भवाली, ताड़ीखेत, अल्मोड़ा, कौसानी इत्यादि क्षेत्रों में भ्रमण किया । साथ ही अनेक सभाओं को संबोधित किया ।
कौसानी यात्रा - गांधी जी बागेश्वर के कौसानी से बहुत प्रभावित हुए। कौसानी में प्रवास के दौरान उन्होंने "अनासक्ति योग" के नाम से गीता पर टीका पूर्ण किया। कौसानी में गांधी जी जिस आश्रम पर ठहरे थे उसे "अनासक्ति आश्रम" के नाम से जाना गया। अनासक्ति आश्रम में गांधीजी 12 दिन ठहरे थे। बागेश्वर यात्रा में उनके साथ मोहन जोशी और बद्रीदत्त पांडे भी शामिल थे। और इसी समय 22 जून 1929 ईस्वी में गांधी जी ने बागेश्वर में "स्वराज मंदिर" के भूमि का शिलान्यास किया। यंग इंडिया के एक लेख में गांधी जी ने कौसानी को "भारत का स्विट्जरलैंड" कहा। गांधीजी 2 जुलाई 1929 जुलाई तक कौसानी में रहे थे। 4 जुलाई को काशीपुर होते हुए दिल्ली को रवाना हुए।
ताड़ीखेत यात्रा - महात्मा गांधी उत्तराखंड भ्रमण के दौरान ताड़ीखेत में जिस स्थान पर रुके थे। उस स्थान को आज "गांधीकुटी" के नाम से जाना जाता है।
गढ़वाल यात्रा - 16 से 24 अक्टूबर 1929 तक गांधीजी ने गढ़वाल क्षेत्र में कई सभाएं की थी।
सविनय अवज्ञा आंदोलन
वर्ष 1930 में गांधी जी द्वारा सविनय अवज्ञा आंदोलन प्रारंभ कर दिया गया। गांधीजी ने साबरमती आश्रम के 78 अनुयायी चुने तथा उनके साथ 12 मार्च 1930 को गांधीजी ने साबरमती आश्रम से दांडी तक 240 मील की पैदल यात्रा प्रारंभ की। 24 दिनों के उपरांत 6 अप्रैल को गांधी जी ने नमक बनाकर नमक कानून का विरोध किया । गांधी जी की दांडी यात्रा में उत्तराखंड के 3 स्वतंत्रता सेनानी भी सम्मिलित थे। ज्योतिराम कांडपाल, भैरव दत्त जोशी एवं खड़ग बहादुर।
दांडी यात्रा के पश्चात 6 अप्रैल 1930 को जैसे ही गांधीजी ने एक मुट्ठी नमक हाथ में लेकर सविनय अवज्ञा आंदोलन प्रारंभ किया। वैसे ही नमक तोड़ने का आंदोलन संपूर्ण भारत में प्रारंभ हो गया । उत्तराखंड भला इससे कहां पीछे रह सकता था। 1929 को गांधी जी की उत्तराखंड यात्रा से जहां की जनता में अधिक उत्साह भरा था और जैसे ही आंदोलन का आरंभ हुआ यहां की जनता आन्दोलन में कूद पड़ी। उत्तराखंड में नमक का उत्पादन नहीं था अतः नमक के स्थान पर "जंगलात कानून" का विरोध किया गया। नैनीताल में 27 मई 1930 को 6000 लोगों की उपस्थिति में बद्रीदत्त पांडे द्वारा प्रभावशाली व्याख्यान दिया गया तथा नमक बेचा गया। और नमक कानून के विरोध में माल रोड पर जुलूस निकाला गया। नैनीताल की तरह ही अल्मोड़ा में भी नमक सत्याग्रह हुआ किंतु यह नमक सत्याग्रह ने शीघ्र ही झंडा सत्याग्रह का रूप धारण कर लिया। 4 मई 1930 को नवयुवकों द्वारा राष्ट्रीय ध्वज लेकर जुलूस निकाला गया । उसके पश्चात नंदा देवी मंदिर प्रांगण में मोहन जोशी की अध्यक्षता में विराट सभा हुई। 25 मई 1930 को सर्वसम्मति से अल्मोड़ा नगर पालिका भवन में "राष्ट्रीय झंडा" फहराने का निर्णय लिया गया।
कुली बेगार आंदोलन -1921 के बारे में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें।
उत्तराखंड में जंगलात आन्दोलन
उत्तराखंड में जंगलात आंदोलन का उत्तरदायी पं. गोविंद बल्लभ पंत को सौंपा गया था। जैसे-जैसे जंगलात आंदोलन जोर पकड़ने लगा। गिरफ्तारियां बढ़ने लगी। चंपावत में हर्ष देव औली गिरफ्तार कर लिए गए तथा बरेली भेज दिए गए जहां से बाद में उन्हें सुल्तानपुर जेल में रखा गया। गांधी इरविन समझौता -1931 के अंतर्गत उन्हें रिहा किया गया।
प्रथम स्वतंत्रता दिवस - 26 जनवरी 1930
गांधी जी की उत्तराखंड यात्रा ने उत्तराखंड के राष्ट्रीय आंदोलन में ताजगी भर दी जिसका परिणाम यह हुआ कि उत्तराखंड की जनता आंदोलन में और उत्साह से कूद पड़ी। 26 जनवरी 1930 को संपूर्ण देश में "प्रथम स्वतंत्रता दिवस" मनाया गया। उत्तराखंड में भी इसी दिन को बड़े उल्लास से प्रथम स्वतंत्रता दिवस के रूप में मनाया गया।
मार्च 1931 में गांधीजी का वायसराय इरविन के बीच समझौता हो गया । इस समझौते के पश्चात 18 मई को गांधी उत्तराखंड भ्रमण हेतु नैनीताल आए। तथा 23 मई 1931 तक यहां रहे। इस यात्रा के दौरान उन्होंने संयुक्त प्रांत के गवर्नर सर माल्कम हेली से मुलाकात की तथा कुछ सभाओं को भी संबोधित किया ।
गांधी इरविन समझौता -1931
दरअसल कांग्रेस ने प्रथम गोलमेज सम्मेलन में भाग नहीं लिया था। ब्रिटिश सरकार प्रथम गोलमेज सम्मेलन से समझ गई कि बिना कांग्रेस के सहयोग के कोई फैसला संभव नहीं है। अतः 5 मार्च 1931 को लंदन में हुए द्वितीय गोलमेज सम्मेलन के पूर्व महात्मा गांधी और तत्कालीन वायसराय लॉर्ड इरविन के बीच एक राजनीतिक समझौता हुआ। जिसे "गांधी इरविन समझौता" कहा जाता है। इसे "दिल्ली पैक्ट" के भी नाम से जाना जाता है। इस समझौते में लार्ड इरविन ने स्वीकार किया कि -
- सभी राजनीतिक बंदियों को रिहा कर दिया जाएगा। सिवाय हिंसा के आरोपियों को छोड़कर
- समुद्र किनारे नमक बनाने का अधिकार भारतीयों को भी दिया जाएगा।
- भारतीय शराब एवं विदेशी कपड़ों की दुकानों के सामने धरना दे सकते हैं।
- आंदोलन के दौरान त्यागपत्र देने वालों को उनके पदों पर पुनः नियुक्त किया जाएगा।
- आंदोलन के दौरान जब्त संपत्ति वापस की जाएगी।
कांग्रेस की ओर से गांधीजी ने निम्न शर्तें स्वीकार की :-
- सविनय अवज्ञा आंदोलन स्थगित (रोक) कर दिया जाएगा।
- कांग्रेस द्वितीय गोलमेज सम्मेलन में भाग लेगी।
- कांग्रेस विदेशी सामान का बहिष्कार नहीं करेगी।
- गांधीजी पुलिस की ज्यादतियों की जांच की मांग छोड़ देंगे।
पेशावर कांड - 23 अप्रैल 1930
उत्तराखंड का व्यक्तिगत सत्याग्रह
भारत छोड़ो आंदोलन में उत्तराखंड का योगदान
देघाट (अल्मोड़ा)
सालम की क्रांति (अल्मोड़ा)
सल्ट क्षेत्र (अल्मोड़ा)
ब्रिटिश गढ़वाल में भारत छोड़ो आंदोलन
गढ़वाल का बारदोली - (गुजडु आंदोलन)
डाडामंडी आन्दोलन
आजाद हिंद फौज एवं उत्तराखंड
महत्वपूर्ण तथ्य
- आज भी खुमाड़ (अल्मोड़ा) में 5 सितंबर को 'शहीद स्मृति दिवस' मनाया जाता है।
- डोला पालकी आंदोलन 1930 ईस्वी में 'जयानंद भारती' के नेतृत्व में शुरू किया गया था इसका संबंध शिल्पकारों से था यह आंदोलन सवर्ण दूल्हों के समान अधिकार प्राप्त करने के लिए था।
- "अमन सभा" की स्थापना लैंसडाउन में नवंबर 1930 में हुई थी इसका उद्देश्य लैंसडाउन छावनी को राष्ट्रवादी आंदोलन से बचाना था।
- मोतीलाल नेहरू ने 23 अप्रैल के दिन को 'गढ़वाल दिवस' मनाने की घोषणा की थी। 23 अप्रैल का संबंध पेशावर कांड से है।
- व्यक्तिगत सत्याग्रह आंदोलन से पूर्व उत्तराखंड में गाड़ी सड़क आंदोलन 1939-40 में प्रारंभ किया गया था। इस आंदोलन का उद्देश्य गरुण से कर्णप्रयाग व लैंसडाउन से पौड़ी तक सड़क निर्माण कराना था।
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