सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

Uksssc Mock Test - 132

Uksssc Mock Test -132 देवभूमि उत्तराखंड द्वारा आगामी परीक्षाओं हेतु फ्री टेस्ट सीरीज उपलब्ध हैं। पीडीएफ फाइल में प्राप्त करने के लिए संपर्क करें। और टेलीग्राम चैनल से अवश्य जुड़े। Join telegram channel - click here उत्तराखंड समूह ग मॉडल पेपर  (1) सूची-I को सूची-II से सुमेलित कीजिए और सूचियां के नीचे दिए गए कूट का प्रयोग कर सही उत्तर चुनिए।              सूची-I.                  सूची-II  A. पूर्वी कुमाऊनी वर्ग          1. फल्दाकोटी B. पश्चिमी कुमाऊनी वर्ग       2. असकोटी  C. दक्षिणी कुमाऊनी वर्ग       3. जोहार D. उत्तरी कुमाऊनी वर्ग.        4.  रचभैसी कूट :        A.   B.  C.   D  (a)  1.    2.  3.   4 (b)  2.    1.  4.   3 (c)  3.    1.   2.  4 (d) 4.    2.   3.   1 (2) बांग्ला भाषा उत्तराखंड के किस भाग में बोली जाती है (a) दक्षिणी गढ़वाल (b) कुमाऊं (c) दक्षिणी कुमाऊं (d) इनमें से कोई नहीं (3) निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिए 1. हिंदी में उच्चारण के आधार पर 45 वर्ण है 2. हिंदी में लेखन के आधार पर 46 वर्ण है उपर्युक्त कथनों में से कौन सा/ कौन से सही है? (a) केवल 1 (b) केवल 2  (c) 1 और 2 द

उत्तराखंड के प्रमुख व्यक्तित्व एवं स्वतंत्रता सेनानी (भाग -02)

उत्तराखंड के प्रमुख व्यक्तित्व

उत्तराखंड की सभी परीक्षाओं हेतु उत्तराखंड के प्रमुख व्यक्तित्व एवं स्वतंत्रता सेनानियों का वर्णन 2 भागों में विभाजित करके किया गया है । क्योंकि उत्तराखंड की सभी परीक्षाओं में 3 से 5 मार्क्स का उत्तराखंड के स्वतंत्रता सेनानियों का योगदान अवश्य ही पूछा जाता है। अतः लेख को पूरा अवश्य पढ़ें। दोनों भागों का अध्ययन करने के पश्चात् शार्ट नोट्स पीडीएफ एवं प्रश्नोत्तरी पीडीएफ भी जरूर करें।

भाग -02

उत्तराखंड के प्रमुख स्वतंत्रता सेनानी (भाग -02)


(13) मुंशी हरिप्रसाद टम्टा जी (1887 - 1960)

दलित समाज को "शिल्पकार" नाम से परिचित कराने वाले पहले समाजसेवी मुंशी हरिप्रसाद टम्टा है । इन्होंने कुमाऊं में "शिल्पकार सभा" के स्थापना की थी। इनके प्रयासों से ही ब्रिटिश शासन के समय शिल्पकारों को सेना में भर्ती होने का अवसर प्राप्त हुआ।

मुंशी हरिप्रसाद टम्टा जी का जन्म 26 अगस्त 1887 अल्मोड़ा जिले में एक दलित परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम गोविंद प्रसाद और माता का नाम गोविंदी देवी था। 

1902 में टम्टा जी ने उच्च श्रेणी में हाईस्कूल पास किया और उर्दू भाषा में विशेष योगदान प्राप्त किया। फलस्वरूप विद्यालय के अधिकारियों ने टम्टा जी को "मुंशी" की उपाधि से सम्मानित किया। उच्च वर्ण द्वारा अछूतों पर होने वाले अत्याचार पर व शोषण को रोकने के लिए तथा उनको सामाजिक व राजनैतिक अधिकार दिलाने हेतु श्री हरिप्रसाद टम्टा जी ने 1905 में "टम्टा सुधार सभा" की स्थापना की थी। संपूर्ण उत्तराखंड में निवास करने वाली शिल्पकला वाली सभी जातियों को शिल्पकार नाम की संज्ञा प्रदान की और 5 सालों के अथक प्रयासों के बाद 1927 में शिल्पकार नाम को सरकारी मान्यता दिलवाई। जबकि शिल्पकार शब्द का प्रचलन 1911 से प्रारंभ हो गया था

हरिप्रसाद टम्टा जी के अध्यक्षता में वर्ष 1913 में टम्टा समाज सुधार के स्थान पर "शिल्पकार सुधारणी सभा" की स्थापना की गई। जबकि कुमाऊं शिल्पकार सुधारणी सभा 1931 में हुई।  हरिप्रसाद जी के प्रयास से ही सबसे पहले नैनीताल से हल्द्वानी आने वाले लोगों की सुविधा के लिए 1920 में हिल मोटर ट्रांसपोर्ट कंपनी की स्थापना की गई।

शिल्पकार समाज के लोगों में सामाजिक, राजनीतिक व शैक्षणिक चेतना जागृत करने हेतु टम्टा जी ने 1934 में "समता" नामक साप्ताहिक पत्र प्रकाशित किया। इनके कार्यों को देखते हुए ब्रिटिश सरकार ने 1935 में मुंशी जी को 'स्पेशल मजिस्ट्रेट' नियुक्त किया गया तथा "रायबहादुर" की उपाधि से सम्मानित किया। मुंशी जी की लोकप्रियता के कारण टम्टा जी को 1947 में गोंडा जिला उत्तर प्रदेश से विधानसभा का निर्विरोध सदस्य निर्वाचित किया गया और 23 फरवरी 1960 को "उत्तराखंड का अंबेडकर" का स्वर्गवास हो गया

(14) मोहन सिंह मेहता (1897-1988)

मोहन सिंह मेहता उत्तराखंड से जेल जाने वाले प्रथम स्वतंत्रता संग्राम सेनानी  थे। मोहन सिंह मेहता का जन्म 1897 में बागेश्वर जिले के बाज्यूला गांव में हुआ था। इनका संबंध मेहता जमींदर परिवार से था।  इन्होंने कृषि की शिक्षा कानपुर से प्राप्त की थी। राष्ट्रीय आंदोलन के संचालन हेतु डंगोली, गरुड़ में एक क्लब की स्थापना की। सन् 1921 में कुली बेगार आंदोलन में उन्होंने सक्रियता से भाग लिया और इसी वर्ष कत्यूर क्षेत्र में कुमाऊं परिषद की शाखा गठित की। मोहन सिंह मेहता ने कत्यूरी क्षेत्र में लंबे समय से पटवारी द्वारा फसल कटाई के समय अनाज वसूलने वाली प्रचलित अवैध कुप्रथा को कुली बेगार आंदोलन प्रथा के साथ ही समाप्त किया। 

इनके जीवन पर तिलक एवं गांधीजी का विशेष प्रभाव पड़ा था। जिस कारण उन्होंने उत्तराखंड में आर्य अनाथालय, कताई-बुनाई प्रचार केन्द्र (1909), ग्राम सुधार समिति (1933), शिशु पालन समिति (1940) जैसे कई सामाजिक कार्यों के लिए संस्थानों की स्थापना की। 1957 से 1966 तक यह उत्तर प्रदेश विधानसभा के सदस्य रहे और 1988 में इनका निधन हुआ।

(15) इंद्र सिंह नयाल (1902-1994)

इंद्र सिंह नयाल का जन्म 1902 में अल्मोड़ा जिले के बिसौदघाट नामक ग्राम में हुआ था। इन्होंने अपनी प्रारंभिक शिक्षा अल्मोड़ा से प्राप्त की तथा उच्च शिक्षा के लिए इलाहाबाद चले गए। यह स्वतंत्रता सेनानी एवं राजनेता के साथ-साथ एक लेखक एक समाजसेवी तथा गांधीवादी जननायक भी थे। 1920 ईस्वी में उन्होंने इलाहाबाद में विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार कार्यक्रम में भाग लिया और तब से जीवन पर्यंत खाद्य वस्तुओं का प्रयोग करते रहे। उन्होंने 1932 ईस्वी में अल्मोड़ा में अस्पृश्यता उन्मूलन हेतु आयोजित कुमाऊं समाज सुधार सम्मेलन में प्रमुख योगदान दिया। और इसी वर्ष 1932 में अल्मोड़ा में आयोजित कुमाऊं युवक सम्मेलन के अध्यक्ष निर्वाचित हुए। भारत छोड़ो आंदोलन के समय नैनीताल के नवयुवकों में चल रहे राजद्रोह के मुकदमों की पैरवी की। 1955 में खटीमा में थारू हाई स्कूल की स्थापना की। 1973 में "स्वतंत्रता संग्राम में कुमाऊं का योगदान" नामक पुस्तक लिखी। इनकी मृत्यु 14 अगस्त 1984 को हुई थी।

(16) भवानी सिंह रावत (1910-1986)

भवानी सिंह रावत का जन्म 8 अक्टूबर 1910 को दुगड्डा (पौड़ी) के नाथूपुर गांव में हुआ था। चंद्रशेखर आजाद के नेतृत्व वाले "हिंदुस्तान समाजवादी प्रजातंत्रिक संघ" के उत्तराखंड से एकमात्र सदस्य रहे थे। इस संघ द्वारा सन् 1930 में "गाड़ोदिया स्टोर डकैती" हुई थी जिसमें भवानी सिंह रावत भी शामिल सदस्य थे। और भी पुलिस से बचने के लिए आजाद व अन्य साथियों को अपने पैतृक गांव नाथूपुर (दुगड्डा) ले आए। यहां पास के जंगल में आजाद ने पिस्टल की ट्रेनिंग ली। वे चंद्रशेखर आजाद के घनिष्ठ उत्तराखंडी साथी थे। भवानी सिंह रावत ने दुगड्डा में "शहीद मेले" की शुरुआत की जो आज भी लगता है। 6 मई 1986 को रुड़की में रावत जी का निधन हो गया।

(17) महावीर त्यागी (1899-1980)

महावीर त्यागी को "देहरादून का सुल्तान" कहा जाता है। इनका जन्म 1899 में हुआ था। प्राथमिक शिक्षा के बाद यह फौज में भर्ती हो गए प्रथम विश्व युद्ध के दौरान इन्हें ईरान भेजा गया। किंतु राष्ट्रीय विचारों कब व्यक्ति होने के कारण कोर्ट मार्शल कर फौज से निकाल दिया गया। इसके बाद भारत में असहयोग आंदोलन में कूद पड़े । पूरे स्वतंत्र आंदोलन के दौरान ही 11 बार जेल गए और लगभग साढ़े सात वर्ष जेल में भी रहे। सन 1923 से लगातार यह 44 वर्षों तक अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के सदस्य रहे थे। स्वतंत्रता के पश्चात प्रथम आम चुनाव में देहरादून संसदीय क्षेत्र से लोकसभा के लिए निर्वाचित हुए।

(18) सोबन सिंह जीना (1909-1980)

सोबन सिंह जीना का जन्म 4 अगस्त, 1909 में कुमाऊं में हुआ था। ये स्वतंत्रता सेनानी, राजनेता, समाज सुधारक थे तथा विविधि प्रतिभाओं के धनी सोबन सिंह जीना जी ने "कुमाऊं राजपूत परिषद" का गठन किया। इन्हें अंग्रेज सरकार ने "रायबहादुर" की उपाधि प्रदान की। 

सोबान सिंह जीना कुमाऊं में भारतीय जनसंघ के संस्थापक सदस्यों में से एक सदस्य थे। भारतीय जनता पार्टी के गठन के पश्चात ये इसके जिला अध्यक्ष बनाए गए और 1977 में बारामंडल विधानसभा क्षेत्र से चुनाव जीते और पर्वतीय विकास मंत्री बनाए गए। इन्होंने "पताका नामक समाचार पत्र" निकाला था। 30-31 मई 1988 को "उत्तरांचल उत्थान परिषद" का गठन किया। उत्तरांचल उत्थान परिषद गठन करने के 1 वर्ष बाद इनकी 1989 में इनकी मृत्यु हो गई। वर्ष 2020 में उत्तराखंड सरकार ने इनके नाम पर अल्मोड़ा में सोबन सिंह जीना विश्वविद्यालय का गठन किया। 

(19) श्रीदेव सुमन (1916-1944)

श्रीदेव सुमन का जन्म 25 मई 1916 को टिहरी के जौल गांव में हुआ था। इनके पिता का नाम हरिराम बडोनी व माता का नाम तारा देवी था। श्री देव सुमन के बचपन का नाम श्री दत्त था। इनकी शिक्षा टिहरी एवं देहरादून में पूरी हुई थी। हिंदू नेशनल कॉलेज में पढ़ाते हुए उच्च शिक्षा में कई डिग्रियां ली।

सन 1930 ईस्वी में मात्र 14 वर्ष की आयु में इन्होंने नमक सत्याग्रह में भाग लिया जिसके उपरांत 15 दिन के लिए जेल गए । सन् 1937 ईस्वी में श्री देव सुमन जी ने "सुमन सौरभ" नाम से कविताएं प्रकाशित की। सन 1938 में श्रीनगर में आयोजित राजनीतिक सम्मेलन में गढ़वाल के दोनों खंडों की एकता पर जोर देते हुए कहा था कि "यदि गंगा हमारी माता होकर भी हमें आपस में मिलाने की बजाय दो हिस्सों में बांटती है तो हम गंगा को काट देंगे"। श्रीनगर सम्मेलन - 1938 में नेहरू, विजयलक्ष्मी पंडित जैसे बड़े राजनेता शामिल थे।

श्री देव सुमन ने पृथक राज्य की मांग के लिए दिल्ली में 1938 में "गढ़ देश सेवा संघ" की स्थापना की। सुमन के प्रयासों से 23 जनवरी 1939 को देहरादून में "टिहरी राज्य प्रजामंडल" की स्थापना हुई। और स्थापना के दौरान जनता को संबोधित करते हुए कहा कि "यदि हमें मरना ही है तो अपने सिद्धांत और विश्वास की सार्वजनिक घोषणा करते हुए मरना श्रेयस्कर है"

सन् 1942 में प्रजामंडल की सफलता के लिए सेवाग्राम, वर्धा में महात्मा गांधी से मिलने गए थे वापस आने पर टिहरी राज्य की पुलिस ने उन्हें राज्य की सीमा के बाहर निकाल दिया। 27 दिसंबर 1947 को उन्होंने जब पुनः टिहरी में प्रवेश करना चाहा तो 30 दिसंबर 1943 को टिहरी कारागार में बंद कर उन्हें यातनाएं दी जाने लगी और माफी मांगने के लिए बाध्य किया गया। किंतु सुमन ने उत्तर दिया कि "तुम मुझे तोड़ सकते हो मोड़ नहीं सकते"।

21 फरवरी 1944 को श्री देव सुमन पर राजद्रोह का मुकदमा चलाया गया और किसी भी सरकारी वकील की उनकी पैरवी करने की स्वीकृति नहीं दी गई । उन्होंने अपने ऊपर लगे झूठे आरोपों की खिलाफत की और कहा कि सत्य और अहिंसा के सिद्धांत पर विश्वास होने के कारण मैं किसी के प्रति घृणा और द्वैष का भाव नहीं रखता।

29 फरवरी 1944 को उन्होंने जेल कर्मचारियों के दुर्व्यवहार के विरोध में अनशन प्रारंभ किया और राजा के पास तीन प्रस्ताव भेजे।
  1. प्रजामंडल को मान्यता ।
  2. पत्र व्यवहार करने की स्वतंत्रता ।
  3. झूठे मुकदमों की अपील राजा स्वयं सुने ।
साथ में यह भी कहा कि यदि 15 दिन में ही प्रस्तावों का उत्तर ना मिला तो आमरण अनशन प्रारंभ कर दिया जाएगा। और अन्ततः उत्तर ना मिलने पर उन्होंने 3 मई 1944 से अपना आमरण अनशन प्रारंभ किया । उसके पश्चात उनसे कहा गया कि यदि भूख हड़ताल तोड़ दे तो आपको मुक्त कर दिया जाएगा लेकिन उन्होंने अपना अनशन तोड़ने से इंकार कर दिया और टिहरी की स्वतंत्रता के लिए 25 जुलाई 1944 को 84 दिनों की भूख हड़ताल के पश्चात शहीद हो गए। वे अक्सर कहा करते थे "मैं अपने प्राण दे दूंगा किंतु टिहरी राज्य के नागरिक अधिकारों को सामंती शासन के पंजे से कुचलने नहीं दूंगा

(20) हेमवती नंदन बहुगुणा (1919-1989)

हेमवती नंदन बहुगुणा को "धरती पुत्र" के नाम से भी जाना जाता है। कहीं-कहीं इनका "हिमपुत्र" के नाम से भी उल्लेख मिलता है। हेमवती नंदन बहुगुणा जी एक राजनेता के साथ-साथ बहुत अच्छे समाजसेवी भी थे। इनका जन्म 25 अप्रैल 1919 पौड़ी गढ़वाल के बुधाणी गांव में हुआ था। उनका परिवार बाद में उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद जिले में रहने लगा। 1937 में उच्च शिक्षा के लिए यह इलाहाबाद आए और यहां छात्र आंदोलन का नेतृत्व करने लगे। 

बहुगुणा जी का राजनीतिक जीवन 1942 से प्रारंभ होता है। 1942 ईस्वी के भारत छोड़ो आंदोलन में उन्होंने भाग लिया। और अध्ययन के दौरान ही 1945 में जेल गए। इलाहाबाद में मजदूर सभा का गठन कर मजदूर नेता के रूप में विख्यात हुए। उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री चंद्रभानु गुप्त ने इन्हें 'नटवरलाल' नाम दिया था। 

1971 में हेमवती जी पहली बार सांसद बने और 8 नवंबर 1973 को उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने। लेकिन उनका कार्यकाल 4 मार्च 1974 को समाप्त हो गया । 1977 में इंदिरा गांधी ने देश में आपातकाल लगा दिया और पुनः चुनाव कराने की घोषणा की। जिससे हेमवती जी नाराज हुये और आपातकाल की समाप्ति पर बाबू जगजीवन राम के साथ कांग्रेस फॉर डेमोक्रेसी दल (CFD) का गठन किया तथा जनता सरकार में केंद्रीय पेट्रोलियम रसायन मंत्री बने । इस प्रकार उन्हें देश की राजनीति में उत्तराखंड का नाम रोशन किया।  'इंडियनाइज हम' इनकी लिखी चर्चित पुस्तक है‌। उनकी मृत्यु 17 मार्च 1989 क्लीवलैंड, ओहियो, संयुक्त राज्य अमेरिका में हुई।

विजय बहुगुणा - उत्तराखंड के सातवें मुख्यमंत्री 

उत्तराखंड के सातवें मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा हेमवती नंदन बहुगुणा के पुत्र थे। विजय बहुगुणा हेमवती जी की दूसरी पत्नी कमला देवी की पुत्र थे। कमला बहुगुणा राजनीति पट्टू महिला थी वह फूलपुर उत्तर प्रदेश से जनता पार्टी के सदस्य के रूप में लोकसभा के लिए निर्वाचित हुई थी। विजय बहुगुणा का एक भाई शेखर बहुगुणा एवं बहन रीता बहुगुणा भी राजनीति में कदम जमाए हुए हैं। हेमवती जी का प्रथम विवाह श्री नारायण दत्त चंदोला की सुपुत्री धनेश्वरी देवी के साथ हुआ। विजय बहुगुणा के पुत्र सौरव बहुगुणा वर्तमान समय में सितारगंज क्षेत्र से वर्तमान में 2022 के पुष्कर सिंह धामी के मंत्रिमंडल में पशुपालन, मत्स्य पालन, कौशल विकास और रोजगार प्रोटोकॉल और गन्ना विकास मंत्री के रूप में कार्यरत हैं।

(21) इन्द्रमणि बड़ोनी (1925-1994)

इंद्रमणि बडोनी को "उत्तराखंड का गांधी" कहा जाता है। इनका जन्म 24 दिसंबर 1925 को टिहरी के जखोली विकासखंड में हुआ था। इनके पिता का नाम सुरेशानंद बड़ोनी था। इंद्रमणि बडोनी जी देवरिया निर्वाचन क्षेत्र से दो बार उत्तर प्रदेश विधानसभा के सदस्य बने। बड़ोनी जी ऐसे पहले नेता थे जिन्होंने पृथक उत्तराखंड राज्य करने की मांग की। इस मांग को जन समर्थन देने के लिए इंद्र मणि बड़ोनी ने 1979 में "उत्तराखंड क्रांति दल" का गठन किया। 7 अगस्त 1994 को राज्य की मांग को लेकर आमरण अनशन पर बैठ गए थे। 18 अगस्त 1999 को उत्तराखंड के गठन से पूर्व ही उनका देहांत हो गया। क्योंकि इंद्रमणि बडोनी जी कुशल लोक कलाकार एवं चौपला केदार नृत्य के बहुत अच्छे जानकार थे इसलिए इनका जन्म दिवस 24 दिसंबर को "लोक संस्कृति दिवस" के रूप में मनाया जाता है।

(22) डॉ० भक्त दर्शन (1912 - 1991)

भक्त दर्शन का जन्म 12 फरवरी 1912 को पौड़ी जनपद के भौराड़ गांव में हुआ और इनका मूल नाम राजदर्शन रावत था । इनका विवाह 20 वर्ष की उम्र में सावित्री देवी से हुआ । इन्होंने अपनी शिक्षा एम. ए. राजनीतिक शास्त्र से की थी। इलाहाबाद विश्वविद्यालय में गुरुदेव हजारी प्रसाद द्विवेदी के संपर्क में आने के बाद लैंसडाउन 1939 में भैरव दत्त धुलिया के साथ मिलकर "कर्मभूमि पत्रिका" का संपादन किया । फिर उन्होंने प्रयाग से प्रकाशित होने वाले दैनिक भारत में लेखन का कार्य किया। उन्होंने 1952 में लोकसभा चुनाव लड़ा और 4 बार गढ़वाल सीट से जीते । बाद में कानपुर विश्वविद्यालय के कुलपति भी रहे।

प्रमुख घटना -  14 जनवरी 1921 को बद्रीदत्त पांडे के नेतृत्व में कुली बेगार प्रथा का अंत कुली बेगार रजिस्टर को सरयू में बहा दिया गया । इस घटना से भक्त दर्शन अत्यधिक प्रभावित हुए थे। इस घटना के बाद उन्होंने जीवन भर खादी पहनने और विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार करने का निर्णय लिया। 

डॉ. भक्त दर्शन एक राजनेता के साथ-साथ बहुत अच्छे साहित्यकार भी थे। उत्तराखंड साहित्य में इनका महत्वपूर्ण योगदान भी रहा है। 12 वर्षों के प्रयासों के बाद उन्होंने "गढ़वाल की दिवंगत विभूतियां" नामक पुस्तक लिखी। इसके अलावा श्री देव सुमन स्मृति ग्रंथ, कलाविद मुकंदी लाल बैरिस्टर, अमर सिंह रावत व उनके आविष्कार, स्वामी रामतीर्थ स्मृति ग्रंथ। 30 अप्रैल 1931 को जून में यह देवभूमि उत्तराखंड के पंचतत्व में विलीन हो गए।

(23) नारायण दत्त तिवारी (1925 - 2018)

नारायण दत्त तिवारी को "विकास पुरुष" के नाम से भी जाना जाता है। तिवारी जी का जन्म 18 अक्टूबर 1925 को नैनीताल के बल्यूटी गांव में हुआ था। इनके पिता का नाम पूर्णानंद तिवारी था और उन्होंने शिक्षा एम.ए. एल.बी से की थी। 1947 में तिवारी जी विद्यालय के छात्र संघ अध्यक्ष भी बने 1951 - 52 में नारायण दत्त तिवारी पहली बार प्रजा समाजवादी पार्टी के टिकट पर नैनीताल सीट से विधायक बने। 1965 में तिवारी जी कांग्रेस में शामिल हुए यह प्रतिभाशाली व कुशल वक्ता भी रहे। 1969 व 1974 में तिवारी जी काशीपुर से विधायक चुने गए तीन बार तिवारी जी उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री (1976 - 77) (1984 - 85) (1988 - 89) तक  बने।

प्रमुख तथ्य :- 2 मार्च 2002 को उत्तरांचल के प्रथम निर्वाचित मुख्यमंत्री भी बने। 2007 में आंध्र के राज्यपाल भी बने 1986 - 87 तक नारायण दत्त तिवारी केंद्रीय सरकार में विदेश मंत्री भी रहे। कुमाऊं विश्वविद्यालय तथा गढ़वाल विश्वविद्यालय का वास्तविक रहे 1973 तिवारी जी की ही देन है। 18 अक्टूबर 2018  को इनका स्वर्गावास हो गया।

(24) दरबान सिंह नेगी (1883-1950)

1/39 वीं गढ़वाल राइफल्स के दरबान सिंह नेगी उत्तराखंड से विक्टोरिया क्रॉस सम्मान पाने वाले पहले व्यक्ति थे। इनका जन्म 4 मार्च 1883 करबर्तिर गांव में हुआ था। इन्होंने प्रथम विश्व युद्ध के दौरान असाधारण वीरता का परिचय दिया । इन्हें VC साहब भी कहा जाता है। गढ़वाल राइफल्स म्यूजियम का नाम इनके नाम पर रखा गया है। सन् 1950 में इनका स्वर्गावास हो गया था। 

(25) गब्बर सिंह नेगी (1895-1915)

गब्बर सिंह नेगी सबसे कम उम्र में विक्टोरिया क्रॉस से सम्मानित होने वाले उत्तराखंड के प्रथम व्यक्ति (मरणोपरांत) हैं। गब्बर सिंह नेगी का जन्म 21 अप्रैल 1895 में टिहरी गढ़वाल के चंबा में हुआ था। 1913 में 18 वर्ष की उम्र में ब्रिटिश सेना में भर्ती हुए । 10 मार्च 1915 को फ्रांस के न्यूवे चैनल में वीरगति को प्राप्त हुए । गब्बर सिंह नेगी को 20 अप्रैल 1915 को मरणोपरांत सर्वोच्च सैनिक सम्मान विक्टोरिया क्रास से सम्मानित किया । इनकी याद में 21 अप्रैल को प्रतिवर्ष चंबा में मेला आयोजित होता है। 1971 में चंबा में गढ़वाल राइफल्स ने चंबा में इनका स्मृति पटल बनाया।

(26) जयानंद भारती (1881-1952)

गढ़वाल क्षेत्र से "डोला पालकी" कुप्रथा को समाप्त करने का श्रेय जयानंद भारती को जाता है। इनका का जन्म 17 अक्टूबर 1881 पौड़ी गढ़वाल अंकण्डई गांव में हुआ। जयानंद भारती ने स्वामी श्रद्धानंद से भेंट के पश्चात उन्होंने आर्य समाज का अनुसरण किया आर्य समाज से जुड़ने के बाद इन्होंने अपने नाम के आगे पथिक शब्द जुड़ा था। गढ़वाल क्षेत्र में छुआछूत और डोला पालकी कुप्रथाओं को समाप्त करने के लिए इन्होंने लंबा संघर्ष किया। 28 अगस्त 1930 को इन्होंने राजकीय इंटर कॉलेज जहरीखाल में तिरंगा फहराया था। और 6 सितंबर 1932 में गठित ऐतिहासिक पौड़ी कांड में शामिल थे। प्रशासन के सहयोग से नवंबर 1930 में लैंसडाउन में "अमन सभा" की स्थापना की गई थी। जिसका उद्देश्य कांग्रेस का प्रतिपक्ष तैयार कर छावनी को राष्ट्रवादी आंदोलन से बचाना था। अमन सभा में रायबहादुर अनेक वकील, पेंशनर, थोकदार शामिल थे। जयानंद भारती अंतिम दिनों में गंभीर रोग से ग्रस्त से ग्रस्त हो गए थे जिस कारण 71 वर्ष की आयु में 9 सितंबर 1952 को स्वर्गवास हो गया।

(27) रायबहादुर तारा दत्त गैरोला जी (1875-1952)

रायबहादुर तारा दत्त गैरोला जी का जन्म 6 जून 1875 टिहरी के दालदुड्ग गांव में हुआ था। इनके पिता का नाम श्री जलाराम गैरोला था। गैरौला जी पेशे से वकील, लेखक, संपादक थे।
1857 में बरेली कॉलेज से b.a. परीक्षा पास की और टेंपलटन पुरस्कार मिला। 19 अगस्त 1901 को तारादत्त गैरौला जी के प्रयासों से देहरादून में "गढ़वाल हितकारिणी सभा" की स्थापना हुई थी। बाद में इसका नाम गढ़वाल यूनियन पड़ा। गढ़वाल यूनियन के प्रयासों से 1905 में देहरादून से प्रकाशित प्रथम गढ़वाली भाषा का मासिक समाचार पत्र गढ़वाली समाचार का प्रकाशन प्रारंभ हुआ था जो 1952 तक चला।

तारादत्त गैरौला जी गढ़वाल के विख्यात लेखक और साहित्यकार हैं। इनकी प्रमुख रचनाएं इस प्रकार हैं -
  • सदेई (गढ़वाली काव्य) करुण रस प्रधान
  • गढ़वाली कवितावली
  • दी सोंग्स ऑफ दादू
  • हिमालयन फोकलोर
  • ग्लिम्पसेस इनट् दि हिस्ट्री ऑफ गढ़वाल
  • हिमालयन मैजिक
गैरोला जी ने गढ़वाल साहित्य परिषद (1937) की स्थापना में पितांबर दत्त बंडथ्वाल का भरपूर सहयोग किया । गैरोला जी व उनके सहयोगियों द्वारा 1904 में सरोला सभा की स्थापना हुई थी। 27 मई 1940 को गठिया की लंबी बीमारी की वजह से देहांत हो गया।

उत्तराखंड के प्रमुख व्यक्तित्व 

(28) ज्वालादत्त जोशी

ज्वालादत्त जोशी का जन्म अल्मोड़ा में हुआ था। 1886 कांग्रेस अधिवेशन में उन्होंने भाग लिया इसके बाद लगातार चार और अधिवेशन में भाग लिया इलाहाबाद उच्च न्यायालय में कुमाऊ के प्रथम अधिवक्ता रहे हैं। "अल्मोड़ा में कांग्रेस की स्थापना" ज्वालादत्त जोशी, सदानंद सनवाल आदि के योगदान से हुई थी

(29) पूरन चंद्र जोशी

कुमाऊं के सुप्रसिद्ध कामरेड पूरन चंद जोशी का जन्म 1905 अल्मोड़ा के  ग्राम झिझाड़ में हुआ था। ये भारतीय साम्यवादी दल के एक प्रमुख नेता तथा भारत में "साम्यवादी दल" के संस्थापक सदस्यों में से एक थे। श्री जोशी संयुक्त प्रांत किसान और मजदूर दल के मंत्री भी रहे थे।

(30) बच्ची राम आर्य

कर्मकांडी आर्य समाजी पंडित के नाम से प्रसिद्ध बच्ची राम आर्य का जन्म 1909 में हुआ था। इन्हें कुर्मांचल में शिल्पकार उनके "जनेऊ आंदोलन के प्रणेता" कहा जाता है। यह समाजसेवी तथा स्वतंत्रता आन्दोलनकारी हैं। बच्चीराम आर्य ने 1931 में "कुमाऊं शिल्पकार सुधार सभा" का गठन किया। इन्होंने समाज को सही दिशा प्रदान करने के लिए "जलती मशाल एवं ग्राम सुबोध" नामक पुस्तक लिखी।

(31) परिपूर्णानंद पैन्यूली

परिपूर्णानंद का जन्म 1924 में टिहरी के छोड़ गांव में हुआ था। उन्होंने भारत छोड़ो आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभाई और 6 वर्ष तक बंदी जीवन व्यतीत किया जेल से मुक्त होने के बाद यह टिहरी राज्य प्रजामंडल में सम्मिलित हुए। 1947 में इन्हें टिहरी राज्य मंडल का अध्यक्ष नियुक्त किया गया ।  1977 में परमार वंश के अन्तिम राजा मानवेंद्र शाह को पराजित कर सांसद निर्वाचित हुए। पैन्यूली जी ने उत्तराखंड के साहित्य में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। जिनमें से "देशी राज्य और जन आंदोलन", "नेपाल का पुनर्जागरण" और "संसद की संसदीय प्रक्रिया" काफी चर्चित पुस्तक है। 1996 में भारतीय दलित साहित्य अकादमी ने इन्हें डॉ. अंबेडकर अवार्ड देकर सम्मानित किया था।

Related posts :-


टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

उत्तराखंड के प्रमुख व्यक्तित्व एवं स्वतंत्रता सेनानी

उत्तराखंड के प्रमुख व्यक्तित्व उत्तराखंड की सभी परीक्षाओं हेतु उत्तराखंड के प्रमुख व्यक्तित्व एवं स्वतंत्रता सेनानियों का वर्णन 2 भागों में विभाजित करके किया गया है । क्योंकि उत्तराखंड की सभी परीक्षाओं में 3 से 5 मार्क्स का उत्तराखंड के स्वतंत्रता सेनानियों का योगदान अवश्य ही पूछा जाता है। अतः लेख को पूरा अवश्य पढ़ें। दोनों भागों का अध्ययन करने के पश्चात् शार्ट नोट्स पीडीएफ एवं प्रश्नोत्तरी पीडीएफ भी जरूर करें। भाग -01 उत्तराखंड के प्रमुख स्वतंत्रता सेनानी [1] कालू महरा (1831-1906 ई.) कुमाऊं का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम (1857) "उत्तराखंड का प्रथम स्वतंत्रा सेनानी" कालू महरा को कहा जाता है। इनका जन्म सन् 1831 में चंपावत के बिसुंग गांव में हुआ था। इनके पिता का नाम रतिभान सिंह था। कालू महरा ने अवध के नबाब वाजिद अली शाह के कहने पर 1857 की क्रांति के समय "क्रांतिवीर नामक गुप्त संगठन" बनाया था। इस संगठन ने लोहाघाट में अंग्रेजी सैनिक बैरकों पर आग लगा दी. जिससे कुमाऊं में अव्यवस्था व अशांति का माहौल बन गया।  प्रथम स्वतंत्रता संग्राम -1857 के समय कुमाऊं का कमिश्नर हेनरी रैम्

चंद राजवंश : उत्तराखंड का इतिहास

चंद राजवंश का इतिहास पृष्ठभूमि उत्तराखंड में कुणिंद और परमार वंश के बाद सबसे लंबे समय तक शासन करने वाला राजवंश है।  चंद वंश की स्थापना सोमचंद ने 1025 ईसवी के आसपास की थी। वैसे तो तिथियां अभी तक विवादित हैं। लेकिन कत्यूरी वंश के समय आदि गुरु शंकराचार्य  का उत्तराखंड में आगमन हुआ और उसके बाद कन्नौज में महमूद गजनवी के आक्रमण से ज्ञात होता है कि तो लगभग 1025 ईसवी में सोमचंद ने चंपावत में चंद वंश की स्थापना की है। विभिन्न इतिहासकारों ने विभिन्न मत दिए हैं। सवाल यह है कि किसे सच माना जाए ? उत्तराखंड के इतिहास में अजय रावत जी के द्वारा उत्तराखंड की सभी पुस्तकों का विश्लेषण किया गया है। उनके द्वारा दिए गए निष्कर्ष के आधार पर यह कहा जा सकता है । उपयुक्त दिए गए सभी नोट्स प्रतियोगी परीक्षाओं की दृष्टि से सर्वोत्तम उचित है। चंद राजवंश का इतिहास चंद्रवंशी सोमचंद ने उत्तराखंड के कुमाऊं मंडल में लगभग 900 वर्षों तक शासन किया है । जिसमें 60 से अधिक राजाओं का वर्णन है । अब यदि आप सभी राजाओं का अध्ययन करते हैं तो मुमकिन नहीं है कि सभी को याद कर सकें । और अधिकांश राजा ऐसे हैं । जिनका केवल नाम पता है । उनक

परमार वंश - उत्तराखंड का इतिहास (भाग -1)

उत्तराखंड का इतिहास History of Uttarakhand भाग -1 परमार वंश का इतिहास उत्तराखंड में सर्वाधिक विवादित और मतभेद पूर्ण रहा है। जो परमार वंश के इतिहास को कठिन बनाता है परंतु विभिन्न इतिहासकारों की पुस्तकों का गहन विश्लेषण करके तथा पुस्तक उत्तराखंड का राजनैतिक इतिहास (अजय रावत) को मुख्य आधार मानकर परमार वंश के संपूर्ण नोट्स प्रस्तुत लेख में तैयार किए गए हैं। उत्तराखंड के गढ़वाल मंडल में 688 ईसवी से 1947 ईसवी तक शासकों ने शासन किया है (बैकेट के अनुसार)।  गढ़वाल में परमार वंश का शासन सबसे अधिक रहा।   जिसमें लगभग 12 शासकों का अध्ययन विस्तारपूर्वक दो भागों में विभाजित करके करेंगे और अंत में लेख से संबंधित प्रश्नों का भी अध्ययन करेंगे। परमार वंश (गढ़वाल मंडल) (भाग -1) छठी सदी में हर्षवर्धन की मृत्यु के पश्चात संपूर्ण उत्तर भारत में भारी उथल-पुथल हुई । देश में कहीं भी कोई बड़ी महाशक्ति नहीं बची थी । जो सभी प्रांतों पर नियंत्रण स्थापित कर सके। बड़े-बड़े जनपदों के साथ छोटे-छोटे प्रांत भी स्वतंत्रता की घोषणा करने लगे। कन्नौज से सुदूर उत्तर में स्थित उत्तराखंड की पहाड़ियों में भी कुछ ऐसा ही हुआ। उत्

उत्तराखंड में भूमि बंदोबस्त का इतिहास

  भूमि बंदोबस्त व्यवस्था         उत्तराखंड का इतिहास भूमि बंदोबस्त आवश्यकता क्यों ? जब देश में उद्योगों का विकास नहीं हुआ था तो समस्त अर्थव्यवस्था कृषि पर निर्भर थी। उस समय राजा को सर्वाधिक कर की प्राप्ति कृषि से होती थी। अतः भू राजस्व आय प्राप्त करने के लिए भूमि बंदोबस्त व्यवस्था लागू की जाती थी । दरअसल जब भी कोई राजवंश का अंत होता है तब एक नया राजवंश नयी बंदोबस्ती लाता है।  हालांकि ब्रिटिश शासन से पहले सभी शासकों ने मनुस्मृति में उल्लेखित भूमि बंदोबस्त व्यवस्था का प्रयोग किया था । ब्रिटिश काल के प्रारंभिक समय में पहला भूमि बंदोबस्त 1815 में लाया गया। तब से लेकर अब तक कुल 12 भूमि बंदोबस्त उत्तराखंड में हो चुके हैं। हालांकि गोरखाओ द्वारा सन 1812 में भी भूमि बंदोबस्त का कार्य किया गया था। लेकिन गोरखाओं द्वारा लागू बन्दोबस्त को अंग्रेजों ने स्वीकार नहीं किया। ब्रिटिश काल में भूमि को कुमाऊं में थात कहा जाता था। और कृषक को थातवान कहा जाता था। जहां पूरे भारत में स्थायी बंदोबस्त, रैयतवाड़ी बंदोबस्त और महालवाड़ी बंदोबस्त व्यवस्था लागू थी। वही ब्रिटिश अधिकारियों ने कुमाऊं के भू-राजनैतिक महत्

उत्तराखंड की जनजातियों से संबंधित प्रश्न (उत्तराखंड प्रश्नोत्तरी -14)

उत्तराखंड प्रश्नोत्तरी -14 उत्तराखंड की प्रमुख जनजातियां वर्ष 1965 में केंद्र सरकार ने जनजातियों की पहचान के लिए लोकर समिति का गठन किया। लोकर समिति की सिफारिश पर 1967 में उत्तराखंड की 5 जनजातियों थारू, जौनसारी, भोटिया, बोक्सा, और राजी को एसटी (ST) का दर्जा मिला । राज्य की मात्र 2 जनजातियों को आदिम जनजाति का दर्जा प्राप्त है । सर्वप्रथम राज्य की राजी जनजाति को आदिम जनजाति का दर्जा मिला। बोक्सा जनजाति को 1981 में आदिम जनजाति का दर्जा प्राप्त हुआ था । राज्य में सर्वाधिक आबादी थारू जनजाति तथा सबसे कम आबादी राज्यों की रहती है। 2011 की जनगणना के अनुसार राज्य की कुल एसटी आबादी 2,91,903 है। जुलाई 2001 से राज्य सेवाओं में अनुसूचित जन जातियों को 4% आरक्षण प्राप्त है। उत्तराखंड की जनजातियों से संबंधित प्रश्न विशेष सूचना :- लेख में दिए गए अधिकांश प्रश्न समूह-ग की पुरानी परीक्षाओं में पूछे गए हैं। और कुछ प्रश्न वर्तमान परीक्षाओं को देखते हुए उत्तराखंड की जनजातियों से संबंधित 25+ प्रश्न तैयार किए गए हैं। जो आगामी परीक्षाओं के लिए महत्वपूर्ण साबित होंगे। बता दें की उत्तराखंड के 40 प्रश्नों में से 2

Uttrakhand current affairs in Hindi (May 2023)

Uttrakhand current affairs (MAY 2023) देवभूमि उत्तराखंड द्वारा आपको प्रतिमाह के महत्वपूर्ण करेंट अफेयर्स उपलब्ध कराए जाते हैं। जो आगामी परीक्षाओं में शत् प्रतिशत आने की संभावना रखते हैं। विशेषतौर पर किसी भी प्रकार की जॉब करने वाले परीक्षार्थियों के लिए सभी करेंट अफेयर्स महत्वपूर्ण साबित हो सकते हैं। उत्तराखंड करेंट अफेयर्स 2023 की पीडीएफ फाइल प्राप्त करने के लिए संपर्क करें।  उत्तराखंड करेंट अफेयर्स 2023 ( मई ) (1) हाल ही में तुंगनाथ मंदिर को राष्ट्रीय स्मारक घोषित किया गया है। तुंगनाथ मंदिर उत्तराखंड के किस जनपद में स्थित है। (a) चमोली  (b) उत्तरकाशी  (c) रुद्रप्रयाग  (d) पिथौरागढ़  व्याख्या :- तुंगनाथ मंदिर उत्तराखंड के गढ़वाल मंडल के रुद्रप्रयाग जिले में स्थित है। तुंगनाथ मंदिर समुद्र तल से 3640 मीटर (12800 फीट) की ऊंचाई पर स्थित एशिया का सर्वाधिक ऊंचाई पर स्थित शिवालय हैं। उत्तराखंड के पंच केदारों में से तृतीय केदार तुंगनाथ मंदिर का निर्माण कत्यूरी शासकों ने लगभग 8वीं सदी में करवाया था। हाल ही में इस मंदिर को राष्ट्रीय महत्त्व स्मारक घोषित करने के लिए केंद्र सरकार ने 27 मार्च 2023

ब्रिटिश कुमाऊं कमिश्नर : उत्तराखंड

ब्रिटिश कुमाऊं कमिश्नर उत्तराखंड 1815 में गोरखों को पराजित करने के पश्चात उत्तराखंड में ईस्ट इंडिया कंपनी के माध्यम से ब्रिटिश शासन प्रारंभ हुआ। उत्तराखंड में अंग्रेजों की विजय के बाद कुमाऊं पर ब्रिटिश सरकार का शासन स्थापित हो गया और गढ़वाल मंडल को दो भागों में विभाजित किया गया। ब्रिटिश गढ़वाल और टिहरी गढ़वाल। अंग्रेजों ने अलकनंदा नदी का पश्चिमी भू-भाग पर परमार वंश के 55वें शासक सुदर्शन शाह को दे दिया। जहां सुदर्शन शाह ने टिहरी को नई राजधानी बनाकर टिहरी वंश की स्थापना की । वहीं दूसरी तरफ अलकनंदा नदी के पूर्वी भू-भाग पर अंग्रेजों का अधिकार हो गया। जिसे अंग्रेजों ने ब्रिटिश गढ़वाल नाम दिया। उत्तराखंड में ब्रिटिश शासन - 1815 ब्रिटिश सरकार कुमाऊं के भू-राजनीतिक महत्व को देखते हुए 1815 में कुमाऊं पर गैर-विनियमित क्षेत्र के रूप में शासन स्थापित किया अर्थात इस क्षेत्र में बंगाल प्रेसिडेंसी के अधिनियम पूर्ण रुप से लागू नहीं किए गए। कुछ को आंशिक रूप से प्रभावी किया गया तथा लेकिन अधिकांश नियम स्थानीय अधिकारियों को अपनी सुविधानुसार प्रभावी करने की अनुमति दी गई। गैर-विनियमित प्रांतों के जिला प्रमु