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एसडीजी रिपोर्ट 2023-24 (उत्तराखंड को मिला पहला स्थान)

सतत विकास लक्ष्य (एसडीजी) रिपोर्ट 2023-24 रिपोर्ट जारी करने की तिथि - 12 जुलाई 2024 रिपोर्ट जारी कर्त्ता - नीति आयोग  वैश्विक जारी कर्त्ता - संयुक्त राष्ट्र  भारत में उत्तराखंड को सतत विकास लक्ष्य (एसडीजी) रिपोर्ट 2023-24 में पहला स्थान प्राप्त हुआ है।  12 जुलाई 2024 को नीति आयोग द्वारा सतत विकास लक्ष्य (एसडीजी) रिपोर्ट 2023-24 जारी की गई है। यह रिपोर्ट भारत के 35 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के प्रदर्शन का मूल्यांकन करती है। उत्तराखंड और केरल राज्य ने 79 अंकों के साथ शीर्ष स्थान हासिल किया, जबकि दूसरे स्थान पर तमिलनाडु (78 अंक) और तीसरे स्थान पर गोवा (77 अंक) रहा। प्रथम स्थान - उत्तराखंड व केरल दूसरा स्थान - तमिलनाडु  तीसरा स्थान - गोवा  उत्तराखंड ने शिक्षा, स्वास्थ्य, स्वच्छता, ऊर्जा, और बुनियादी ढांचे जैसे कई लक्ष्यों में उल्लेखनीय प्रगति की है। सतत विकास लक्ष्य (एसडीजी) क्या है? एसडीजी का आशय सतत विकास लक्ष्य (Sustainable Development Goals) से है। यह 17 वैश्विक लक्ष्य हैं जिन्हें 2030 तक प्राप्त करने का लक्ष्य रखा गया है। इन लक्ष्यों को संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा 2015 में अप

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भाग -01

उत्तराखंड के प्रमुख स्वतंत्रता सेनानी



[1] कालू महरा (1831-1906 ई.)

कुमाऊं का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम (1857)

"उत्तराखंड का प्रथम स्वतंत्रा सेनानी" कालू महरा को कहा जाता है। इनका जन्म सन् 1831 में चंपावत के बिसुंग गांव में हुआ था। इनके पिता का नाम रतिभान सिंह था। कालू महरा ने अवध के नबाब वाजिद अली शाह के कहने पर 1857 की क्रांति के समय "क्रांतिवीर नामक गुप्त संगठन" बनाया था। इस संगठन ने लोहाघाट में अंग्रेजी सैनिक बैरकों पर आग लगा दी. जिससे कुमाऊं में अव्यवस्था व अशांति का माहौल बन गया। 

प्रथम स्वतंत्रता संग्राम -1857 के समय कुमाऊं का कमिश्नर हेनरी रैम्जे था। इस घटना की खबर रैम्जे को होने पर उसने चम्पावत में सैन्य टुकड़ी भेजी। कालू महरा के विश्वासपात्र खुशाल सिंह को पराजित किया तथा अनेकों क्रांतिकारियों को मौत के घाट उतार दिया। कालू महरा ने इस घटना के बाद अल्मोड़ा कूच किया। ढौर नामक स्थान पर क्रांतिकारियों के साथ पहुंचने पर रात्रि में उन्होंने बैलों के सीगों पर मशालें बांध दी। इससे भीड़ की संख्या सैकड़ों में ज्ञात हुई । अंग्रेजों ने इस भीड़ को देखकर सामान बाॅंधना शुरू कर दिया था, और परिवारों को नैनीताल भेजने लगे थे। लेकिन क्रांतिकारी अल्मोड़ा पहुंचने पर अंग्रेजी सेना के सामने ज्यादा देर टिक नहीं सके और अनेक क्रांतिकारी शहीद हो गए। उनके साथी आनंद सिंह व बिशन सिंह भी मारे गए। कालू महरा भागकर नेपाल सीमा की तरफ गए । कुमाऊं का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम समाप्त हो गया। बाद में कालू महरा ने समर्पण कर दिया। अदालत में कार्यवाही चल रही थी कि सैकड़ों लोग ढोल नगाड़ों के साथ अल्मोड़ा की तरफ आने लगे जिससे भयभीत होकर कालू महरा को जेल से रिहा कर दिया गया। 1906 में खाटखुटुम नामक स्थान पर एकांतवास करते कालू महरा का निधन हो गया।

[2] बद्रीदत्त पाण्डे (1882-1965)

बद्रीनाथ पांडे को "कुमाऊं केसरी" के उपनाम से जाना जाता है। स्वाधीनता संग्राम के दौरान वे 5 बार जेल गए अपने जेल प्रवास में उन्होंने "कुमाऊं का इतिहास पुस्तक" को लिखा। बद्रीदत्त पांडे जी का जन्म 1882 में हरिद्वार के कनखल में हुआ था। किंतु इनका मूल निवास एवं शिक्षा स्थल अल्मोड़ा था। 1913 से वे अल्मोड़ा से प्रकाशित अल्मोड़ा अखबार के संपादक बने। अंग्रेजी शासन के प्रति तीखे और व्यंग्यात्मक लेखों के कारण तत्कालीन डिप्टी कमिश्नर लोमस ने अल्मोड़ा अखबार को सन 1918 में बंद करा दिया। इसके बाद उन्होंने अल्मोड़ा से 'शक्ति सप्ताहिक पत्रिका' का प्रकाशन शुरू कर दिया। बद्रीदत्त पांडे ने कुमाऊं में कुली बेगार, कुली उतार व कुली बर्दायश आदि प्रथाओं के विरुद्ध सफल आंदोलन चलाया था जिस कारण उन्हें कुर्मांचल केसरी कहा जाता है। बद्रीदत्त पांडे 1955 में लोकसभा सदस्य निर्वाचित हुए थे तथा 13 जनवरी सन 1965 को उनका निधन हुआ था।

[3] हरगोविंद पंत (1885-1957)

हरगोविंद पंत को "अल्मोड़ा कांग्रेस की रीढ़" कहा जाता है। भारत छोड़ो आंदोलन के समय अल्मोड़ा में सबसे पहले इन्हीं को नजरबंद किया गया था। हरगोविंद पंत का जन्म 19 मई 1885 को चितई गांव अल्मोड़ा में हुआ था। इन्होंने अपनी शिक्षा अल्मोड़ा एवं इलाहाबाद में की थी। इलाहाबाद में अध्ययन करते हुए 1905 में बनारस कांग्रेस में स्वयंसेवक का कार्य किया था जिसमें वे गोविंद बल्लभ पंत के साथ शामिल हुए। पेशे से वकील हर गोविंद पंत उत्तराखंड में विशेषकर कुमाऊं में कांग्रेस की स्थापना करने वाले नेताओं में से एक थे। कुली बेगार आंदोलन में उन्होंने मुख्य भूमिका निभाई । 1923 ईस्वी में प्रांतीय काउंसिल के सदस्य भी रहे।

हरगोविंद पंत ने कुमाऊं के कुलीन ब्राह्मणों द्वारा हल न चलाने की प्रथा को समाप्त किया। सन् 1928 में बागेश्वर में उन्होंने स्वयं हल चलाकर इस प्रथा को तोड़ा। शीतलाखेत में सिद्ध आश्रम नामक संस्था की स्थापना की। भगीरथ पांडे के साथ मिलकर ताड़ीखेत में प्रेम विद्यालय की स्थापना की। इन सब के अलावा 1950-56 तक बद्रीनाथ मंदिर कमेटी के अध्यक्ष रहे।

[4] बैरिस्टर मुकुंदीलाल

मुकुंदीलाल का जन्म 1885 चमोली के पाटली गांव में हुआ । यह पेशे से वकील एवं विविध क्षेत्रों में निपुण थे। इन्हें स्वतंत्रता सेनानी लेखक भी कहा जाता है। इनकी प्रारंभिक शिक्षा घर पर ही हुई थी। उच्च शिक्षा पौड़ी, अल्मोड़ा, देहरादून, कोलकाता व इलाहाबाद में प्राप्त की थी। विश्वम्वर दत्त चंदोला की सिफारिश पर दानवीर व्यवसायी घनानंद खंडूरी के वित्तीय भार पर बैरस्ट्री पढ़ने इंग्लैंड गए। इंग्लैंड से 1913 से 1919 के बीच कानून की शिक्षा प्राप्त की थी। कानून की पढ़ाई के दौरान उनका लोकमान्य तिलक से परिचय हुआ। और राजनीतिक सक्रियता में वृद्धि हुई। परिणाम स्वरूप इंग्लैंड से लौटने पर सन 1919 में इन्हें गिरफ्तार करके नैनी (इलाहाबाद) जेल में डाल दिया गया।

मुकुंदी लाल ने लैंसडाउन में वकालत की शुरुआत की । 1938 में टिहरी नरेश नरेंद्र शाह ने उन्हें टिहरी राज्य हाईकोर्ट का जज नियुक्त किया । सन्  1926 में वे स्वराज दल के टिकट पर गढ़वाल से चुनाव जीते और प्रांतीय काउंसिल के सदस्य बने। प्रांतीय काउंसिल के उपाध्यक्ष भी बने। पेशावर कांड के आंदोलनकारियों चंद्रसिंह गढ़वाली एवं अन्य का मुकदमा भी उन्होंने ही लड़ा था। 1962 से 1967 तक उन्होंने लैंसडाउन विधानसभा क्षेत्र का प्रतिनिधित्व किया। इसके बाद उन्होंने सक्रिय राजनीति से संन्यास ले लिया। मुकंदी लाल द्वारा लैंसडाउन से 1922 में प्रसिद्ध पत्रिका "तरुण कुमाऊं अखबार" का प्रकाशन किया गया था ।

राजनीति को त्यागने के बाद अपना जीवन गढ़वाली साहित्य और कला के पुनरुत्थान में लगा दिया। गढ़वाल चित्रकला शैली के प्रसिद्ध चित्रकार मौलाराम के चित्रों को खोज कर उन्हें कला जगत में विशेष पहचान दिलाई। वर्ष 1969 "गढ़वाल पेंटिंग्स" नाम से गढ़वाली चित्रकला का संग्रह कर प्रकाशित किया। रुक्मिणी मंगल नामक पुस्तक 1972 में ललित कला अकादमी के सहयोग से प्रकाशित हुई। इनके कला प्रेम को देखते हुए डॉ हजारी प्रसाद द्विवेदी जी ने लिखा था "सदा कार्य में निरंतर ओ, रहते हुए विशाल। चित्रकला के पारखी, परम मुकुंदीलाल।"

 हेमकुंड यात्रा के बाद मुकुंदी लाल ने सिक्ख धर्म अपनाया। बैरिस्टर मुकुंदी लाल का निधन 10 जनवरी 1982 को हुआ था।

[5] खुशीराम आर्या (1886-1971)

खुशीराम आर्य उत्तराखंड राज्य के प्रथम दलित विधायक थे। इनका जन्म 13 दिसंबर 1886 को नैनीताल के हल्दुचौड़ गांव में हुआ था। वे आर्यसमाजी की विचारधारा के व्यक्ति थे उन्होंने दलितों में व्याप्त को प्रथाओं जैसे - बाल विवाह, मदिरापान छुआछूत आदि की समाप्ति के लिए संपूर्ण कुमाऊं क्षेत्र में जागरूकता फैलाया। खुशीराम आर्य ने दलितों के उत्थान के लिए "शिल्पकार सुधारिणी सभा" का गठन किया। और दलितों को शिल्पकार नाम प्रदान करने में अग्रणी रहे।

[6] गोविंद बल्लभ पंत (1887-1961 ई.)

उत्तराखंड के "हिमालय पुत्र" गोविंद बल्लभ पंत का जन्म 10 सितंबर सन् 1887 के खूंट गांव, अल्मोड़ा में हुआ था। इनका जन्मदिन "उत्तराखंड गौरव दिवस" के रूप में मनाया जाता है। इनके पिता का नाम मनोरथ पंत था। इनकी शिक्षा अल्मोड़ा एवं इलाहाबाद में हुई थी और यह पेशे से वकील थे। इन्होंने अल्मोड़ा में वकालत आरंभ की। गोविंद बल्लभ पंत द्वारा प्रथम मुकदमा "कुंजबिहारी (1912)" का लड़ा गया। गोविंद बल्लभ पंत ने सन् 1914 में काशी नागरी प्रचारिणी सभा की शाखा के रूप में काशीपुर में प्रेम सभा की स्थापना की। 1914 में ही उदयराज हिंदू हाई स्कूल की स्थापना की। 

गोविंद बल्लभ पंत सन् 1916 में राष्ट्रीय आंदोलन के प्रचार प्रसार हेतु "कुमाऊं परिषद" की स्थापना की । 1918 काशीपुर में खद्दर आश्रम एवं विधवा आश्रम की स्थापना की थी। (राज्य की सबसे पुरानी सूती मिल भी काशीपुर में स्थित है)। नैनीताल में नमक कानून तोड़ने के अपराध में 1930 में 6 माह की जेल यात्रा भी की थी। व्यक्तिगत सत्याग्रह भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान भी वह जेल में रहे। प्रांतीय काउंसिल में 1923-24 में सदस्य चुने गए। और 1934 में अखिल भारतीय संसदीय बोर्ड के सदस्य बने। इनके नेतृत्व में संयुक्त प्रांत में मंत्रिमंडल का सृजन किया गया। 1937 में संयुक्त प्रांत के मुख्यमंत्री बने। और भारत को स्वतंत्र होने के पश्चात उत्तर प्रदेश के प्रथम मुख्यमंत्री बने। संयुक्त प्रांत (उत्तर प्रदेश) के वर्ष 1946-54 तक वे मुख्यमंत्री रहे। गोविंद बल्लभ पंत को 1957 को भारत रत्न से सम्मानित किया गया। 1955-61 देश के गृह मंत्री रहे। 

(न्यायालय में खद्दर की सफेद टोपी उतारने को कहने पर पंत ने कहा था, "मैं न्यायालय से बाहर जा सकता हूं लेकिन टोपी नहीं उतार सकता।" यह जिम कार्बेट के निजी वकील भी थे)।

17 नवंबर 1960 ईस्वी में नेहरू जी ने पंतनगर में देश का पहला कृषि विश्वविद्यालय की स्थापना की। और 1972 ईस्वी में विश्वविद्यालय का नाम बदलकर गोविंद बल्लभ पंत नाम रखा गया। गोविंद बल्लभ पंत की मृत्यु 1961 ईस्वी मृत्यु हुई और जवाहर लाल नेहरू ने पंत के लिए कहा था कि "हिमालय की धूल में पैदा होने वाला व्यक्ति हिमालय जैसा महान था"। और साथ ही नेहरू जी ने पंत जी को "हिमालय पुत्र" की उपाधि दी थी।  (2016 में 129 वी जयंती से उत्तराखंड गौरव दिवस प्रारंभ किया गया था। इनका निधन 7 मार्च 1961 को हुआ था।)

[7] श्री हर्ष देव ओली (1890-1940)

चंपावत के खेतीखान में जन्मे श्री हर्षदेव ओली को "काली कुमाऊं का शेर" कहा जाता है। क्योंकि इन्होंने अंग्रेजी शासन के विरुद्ध स्वदेशी प्रचार व विदेशी बहिष्कार आंदोलन को काली कुमाऊं में प्रचारित किया था। इनका जन्म 4 मार्च 1890 गोसनी गांव में हुआ था तथा निधन 1940 में हुआ। सर्वप्रथम मायावती आश्रम से जुडकर प्रबुद्ध भारत हेतु कार्य किया।  इन्होंने अल्मोड़ा से शिक्षा प्राप्त करते हुए 1905 में बंग भंग एवं स्वदेशी आंदोलन में भाग लिया।

श्री हर्षदेव ओली के राजनैतिक गुरु मोतीलाल नेहरू थे।ओली की मुलाकात पं. मोतीलाल नेहरु से लखनऊ अधिवेशन के दौरान सन् 1916 में  हुई। ओली "इंडिपेंडेंट अखबार" के उप संपादक भी रहे थे। इनके द्वारा 9 अगस्त, 1930 को देवीधुरा मेले में प्रभावशाली ऐतिहासिक भाषण दिया गया। जिससे कुमाऊं की जनता में आजादी के प्रति एक उमंग जागी। इन्हें "उत्तराखंड का मुसोलिनी" भी कहा जाता है। 

[8] वीर चंद्र सिंह गढ़वाली

वीर चंद्र सिंह गढ़वाली का जन्म 25 दिसंबर 1891 में पौड़ी के रोणैसेर गांव में हुआ था। इनका वास्तविक नाम चंद्र सिंह भंडारी था। और इनके पिता का नाम जलोथ सिंह था। चंद्र सिंह गढ़वाली पेशे से गढ़वाल राइफल्स में सैनिक थे। किंतु 23 अप्रैल 1930 को "पेशावर कांड" नामक एक महत्वपूर्ण घटना घटी जिसने गढ़वाली को भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन का नायक बना दिया। इस दिन पश्चिमोत्तर प्रांत के पेशावर में सीमांत गांधी के नेतृत्व में आजादी के संघर्ष हेतु प्रदर्शन एवं सत्याग्रह हेतु पठान शाहीबाग में एकत्रित हो रहे थे । अंग्रेजी सेना पठानों को प्रदर्शन एवं सत्याग्रह करने से रोकने के लिए तैयार थी। इस प्रदर्शन को रोकने हेतु गढ़वाल राइफल्स की 2/18 बटालियन नियुक्ति की गई थी । जिसका नेतृत्व चंद्र सिंह गढ़वाली कर रहे थे । पठानों का आंदोलन शांतिपूर्ण था अंग्रेज अधिकारी द्वारा गोली चलाने का आदेश दिए जाने पर भी गढ़वाल राइफल्स के जवानों ने चंद्र सिंह गढ़वाली के नेतृत्व में हाथों में गोली चलाने से कहते हुए इंकार कर दिया है कि "हम हिंदुस्तान की रक्षा के लिए फौज में भर्ती हुए हैं अपने भाइयों पर गोली चलाने के लिए नहीं"। परिणामस्वरूप समस्त जवानों का कोर्ट मार्शल किया गया। चंद्र सिंह गढ़वाली और उनके साथियों को कैद की सजा हुई। पेशावर कांड के आंदोलन के सिपाहियों का मुकदमा बैरिस्टर मुकंदी लाल द्वारा लड़ा गया। चंद्र सिंह गढ़वाली को आजीवन कारावास एवं 16 को लंबा कठोर कारावास की सजा हुई कुल 39 व्यक्तियों का कोर्ट मार्शल नौकरी से निकाला गया।

11 साल 3 महीने 18 दिन जेल जीवन बिताने के बाद वीर चंद्र सिंह गढ़वाली को 26 दिसंबर 1941 में कारागार से छोड़ा गया। बरेली, नैनीताल, लखनऊ, अल्मोड़ा और देहरादून की जेलों में गढ़वाली ने यातनाएं झेली । विभिन्न जेलों में रहते हुए नैनी जेल इलाहाबाद में उनकी भेंट क्रांतिकारी राज बंधुओं से हुई जिन्होंने उन्हें बड़े भाई की संज्ञा भी दी। लखनऊ जेल में नेताजी सुभाष चंद्र बोस से भेंट हुई थी। गढ़वाली ने 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में सक्रिय रूप से भाग लिया था । 1942 में पुणे जेल गए तथा 1945 में जेल से रिहा हो गए किंतु गढ़वाल प्रवेश की अनुमति नहीं दी गई। गांधी जी ने उन्हें पवनार आश्रम में बुलाकर "गढ़वाली" नाम से सम्मानित किया । और वीर चंद्र सिंह गढ़वाली के बारे में महात्मा गांधी ने कहा था कि "मुझे एक चंद्र सिंह और मिल जाता तो देश कब का स्वतंत्र हो जाता" । 1 अक्टूबर 1979 को 87 वर्ष की अवस्था में गढ़वाली का निधन हो गया। 

[9] ज्योतिराम कांडपाल (1893 - 1938)

कुमाऊं में गांधीवादी सिद्धांतों व आदर्शों के प्रचार प्रसार में अपना संपूर्ण जीवन समर्पित करने वाले ज्योतिराम कांडपाल का जन्म 1892 ईस्वी में अल्मोड़ा के पैठणा गांव में हुआ था। उन्होंने प्रारंभिक शिक्षा चौकोट (अल्मोड़ा) के स्याल्दे स्कूल से प्राप्त की थी। तत्पश्चात अध्यापक के व्यवसाय करते हुए पिछड़े क्षेत्र के चौकोट के जन जागरण के कार्य में लग गए। 

सन् 1929 ई० में गांधीजी की कुमाऊं यात्रा के अवसर पर ज्योतिराम कांडपाल गांधी जी से बहुत प्रभावित हुए और गांधीजी को सहयोग देने के विद्यालय से 1 वर्ष का अवकाश लेकर साबरमती आश्रम में चले गए। साबरमती आश्रम में पहुंचकर उन्होंने हिंदी साहित्य का अच्छा ज्ञान प्राप्त कर लिया और अध्यात्म की ओर उन्मुख हो गए।

ज्योतिराम कांडपाल ने सन् 1930 ईस्वी में नमक कानून तोड़ने के लिए 'दांडी यात्रा' में भाग लिया। ज्योतिराम कांडपाल के अलावा पैठाणा गांव के भैरवदत्त जोशी और देहरादून के खड़ग सिंह बहादुर ने साबरमती आश्रम से दांडी तक की ऐतिहासिक यात्रा में भाग लिया। साबरमती से महात्मा गांधी के साथ नमक कानून तोड़ने के लिए अलग 78 लोग चुने गए थे इनर सत्याग्रह में उत्तराखंड से ये तीन सत्याग्रह शामिल हुए। नमक कानून तोड़ने के साथ ही भारत में सन् 1930 में सविनय अवज्ञा आंदोलन शुरू हो गया।  

पंडित ज्योतिराम कांडपाल ने चौकोट क्षेत्र में रचनात्मक कार्यों में, खादी के प्रचार में स्थान जनसाधारण को स्वावलम्बी बनाने के उद्देश्य "देघाट में उद्योग मंदिर" की स्थापना की। देघाट उद्योग मंदिर में खादी प्रचार के लिए तकलियों और चरखों का सफल अभियान उन्होंने चलाया। किन्तु देघाट जन-जागरण का केंद्र स्थल होने के कारण सन् 1932 ई० देघाट उद्योग मंदिर पर सरकार ने रोक लगा दी।

[10] राम सिंह धौनी (1893-1930)

राम सिंह धौनी का जन्म 24 फरवरी, 1893 को अल्मोड़ा जिले के बिनौला गांव में हुआ था जो तल्लासालम पट्टी के निकट स्थित है। ऐसा माना जाता है कि देश में सर्वप्रथम "जय हिंद" का नारा राम सिंह धौनी ने दिया था। 

धौनी जयपुर राज्य के फतेहपुर में रामचंद्र नेवटिया हाई स्कूल में सहायक अध्यापक एवं हेड मास्टर रहे। उन्होंने 1921 में फतेहपुर में साहित्य समिति की स्थापना की और बंधु नामक समाचार पत्र निकाला। फतेहपुर में ही युवक सभा तथा छात्र सभा का गठन किया। बंबई में कुर्मांचल वासियों हेतु "हिमालय पर्वतीय संघ" नामक संगठन स्थापित किया। राम सिंह धोनी 1925 में शक्ति समाचार के भी संपादक रहे थे। इन्होंने हिंदी साहित्य सभा का भी गठन किया। चेचक एवं टायफायड के कारण 12 नवंबर 1930 में निधन हो गया। सन् 1935 में इनकी स्मृति में श्री राम सिंह धौनी आश्रम की स्थापना सालम में की गई।

[11] अनुसूया प्रसाद बहुगुणा (1894-1943)

अनुसूया प्रसाद को "गढ केसरी" के उपनाम से भी जाना जाता है। अनुसूया प्रसाद का जन्म 18 फरवरी 1894 को गोपेश्वर में मंडल घाटी के प्रसिद्ध अनुसूया देवी मंदिर में हुआ। इस मंदिर के नाम पर ही इनका नाम भी अनुसूया रखा गया। अनुसूया की प्रारंभिक शिक्षा नंदप्रयाग में हुई। जिसके बाद आगे की शिक्षा के लिए वह पौड़ी और अल्मोड़ा भी गए। सन् 1914 में उन्होंने इलाहाबाद के म्योर सेंट्रल कॉलेज से बी.एस.सी. और एल.एल.बी. की डिग्री प्राप्त की। सन् 1934 में जब तत्कालीन वायसराय वेलिंगटन की पत्नी 'गौचर' में हवाई जहाज से उतरी तब अनुसूया प्रसाद बहुगुणा ने ही उनका स्वागत किया। 1937 के चुनाव में संयुक्त प्रांत की विधान परिषद में गढ़वाल सीट से चुने गए। 

अनुसूया प्रसाद को गढ़ केसरी कहलाए जाने का मुख्य कारण यह है कि सन् 1921 में जब कुमाऊ के बागेश्वर जिले में कुली बेगार को खत्म करने के लिए आंदोलन जारी था तब कंकोड़ाखाल गांव में कुली बेगार को खत्म करने के लिए आंदोलन की शुरुआत हुई। (कंकोड़ाखाल गांव रुद्रप्रयाग शहर से करीब 32 किलोमीटर की दूरी पर एक गांव है। उस समय यह गांव ब्रिटिश गढ़वाल क्षेत्र में आता था।) जब आंदोलन से आस-पास के गांव के लोग जुड़े तो आंदोलनकारियों की संख्या सैकड़ों में हो गई। ब्रिटिश सरकार जब इनसे बात करने पहुंची तो गांव वालों ने रात के अंधेरे में ही गांव से अनुसूया प्रसाद को बाहर निकाल दिया। इसके बाद ब्रिटिश सरकार ने इन पर अत्यधिक प्रताड़ित किया। किंतु इस गांव में उन्होंने आंदोलन की नींव रख दी थी जिस कारण इन्हें 'गढ़ केसरी' कहा जाता है।

असहयोग आंदोलन और सविनय अवज्ञा आंदोलन दोनों में अनुसूया प्रसाद बहुगुणा ने बढ़ चढ़कर भाग लिया। सविनय अवज्ञा आंदोलन के दौरान उन्हें जेल भी जाना पड़ा। व्यक्तिगत सत्याग्रह के दौरान अनुसूया प्रसाद बहुगुणा एक बार फिर जेल गए। लगातार स्वास्थ्य खराब रहने के कारण 23 मार्च 1943 के दिन अनुसूया प्रसाद बहुगुणा की मृत्यु हो गई।

[12] विक्टर मोहन जोशी (1896-1940)

विक्टर मोहन जोशी का जन्म 1 जनवरी 1896 को नैनीताल में हुआ था। इनके पिता का नाम जयदत्त जोशी था। जयदत्त अंग्रेजी संस्कृति से अत्यधिक प्रभावित थे इसलिए उन्होंने ईसाई‌ धर्म अपना लिया था। अतः इनका नाम विक्टर जोसेफ रखा गया। मोहन जोशी ने 1920 को प्रयाग से क्रिश्चियन नेशनलिस्ट नामक अंग्रेजी पत्र प्रारंभ किया। मोहन जोशी ने सन् 1930 अल्मोड़ा से "स्वाधीन प्रजा" नामक समाचार पत्र का प्रकाशन किया। इसके अलावा विक्टर मोहन जोशी 1921 में शक्ति के संपादक भी रहे थे।

कुमाऊं में हुए हर आंदोलन में श्री जोशी की भूमिका देखने को मिलती है। इन्होंने अल्मोड़ा मे क्रिश्चियन फ्रेंड्स एसोसिएशन की स्थापना की और बाद में इसका नाम "क्रिश्चयन यंग पीपुल सोसाइटी" नाम रखा गया। बागेश्वर में स्वराज मंदिर की स्थापना की। 1928 में बागेश्वर में खद्दर की प्रदर्शनी आयोजित की। अन्ततः मानसिक रोग से ग्रसित होकर 4 अक्टूबर, 1940 इनका देहांत हो गया।

Source - यूकेपीडिया (भगवान सिंह धामी), उत्तराखंड का समग्र राजनीतिक इतिहास (अजय रावत), उत्तराखंड वन लाइनर (बी. एस. नेगी), उत्तराखंड का राजनीतिक सामाजिक एवं सांस्कृतिक इतिहास (घनश्याम जोशी)

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टिप्पणियाँ

  1. बहुत ही दुख की बात है कि इसमें स्वतंत्रता सैनानी स्व. राम प्रसाद नौटियाल जी नाम नही है।

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  2. unka bhi hai bhaiya ....aap next page to padiye ...yeh jo freedom fighter hain date of birth ke according hain.

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चंद राजवंश का इतिहास पृष्ठभूमि उत्तराखंड में कुणिंद और परमार वंश के बाद सबसे लंबे समय तक शासन करने वाला राजवंश है।  चंद वंश की स्थापना सोमचंद ने 1025 ईसवी के आसपास की थी। वैसे तो तिथियां अभी तक विवादित हैं। लेकिन कत्यूरी वंश के समय आदि गुरु शंकराचार्य  का उत्तराखंड में आगमन हुआ और उसके बाद कन्नौज में महमूद गजनवी के आक्रमण से ज्ञात होता है कि तो लगभग 1025 ईसवी में सोमचंद ने चंपावत में चंद वंश की स्थापना की है। विभिन्न इतिहासकारों ने विभिन्न मत दिए हैं। सवाल यह है कि किसे सच माना जाए ? उत्तराखंड के इतिहास में अजय रावत जी के द्वारा उत्तराखंड की सभी पुस्तकों का विश्लेषण किया गया है। उनके द्वारा दिए गए निष्कर्ष के आधार पर यह कहा जा सकता है । उपयुक्त दिए गए सभी नोट्स प्रतियोगी परीक्षाओं की दृष्टि से सर्वोत्तम उचित है। चंद राजवंश का इतिहास चंद्रवंशी सोमचंद ने उत्तराखंड के कुमाऊं मंडल में लगभग 900 वर्षों तक शासन किया है । जिसमें 60 से अधिक राजाओं का वर्णन है । अब यदि आप सभी राजाओं का अध्ययन करते हैं तो मुमकिन नहीं है कि सभी को याद कर सकें । और अधिकांश राजा ऐसे हैं । जिनका केवल नाम पता है । उनक

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  भूमि बंदोबस्त व्यवस्था         उत्तराखंड का इतिहास भूमि बंदोबस्त आवश्यकता क्यों ? जब देश में उद्योगों का विकास नहीं हुआ था तो समस्त अर्थव्यवस्था कृषि पर निर्भर थी। उस समय राजा को सर्वाधिक कर की प्राप्ति कृषि से होती थी। अतः भू राजस्व आय प्राप्त करने के लिए भूमि बंदोबस्त व्यवस्था लागू की जाती थी । दरअसल जब भी कोई राजवंश का अंत होता है तब एक नया राजवंश नयी बंदोबस्ती लाता है।  हालांकि ब्रिटिश शासन से पहले सभी शासकों ने मनुस्मृति में उल्लेखित भूमि बंदोबस्त व्यवस्था का प्रयोग किया था । ब्रिटिश काल के प्रारंभिक समय में पहला भूमि बंदोबस्त 1815 में लाया गया। तब से लेकर अब तक कुल 12 भूमि बंदोबस्त उत्तराखंड में हो चुके हैं। हालांकि गोरखाओ द्वारा सन 1812 में भी भूमि बंदोबस्त का कार्य किया गया था। लेकिन गोरखाओं द्वारा लागू बन्दोबस्त को अंग्रेजों ने स्वीकार नहीं किया। ब्रिटिश काल में भूमि को कुमाऊं में थात कहा जाता था। और कृषक को थातवान कहा जाता था। जहां पूरे भारत में स्थायी बंदोबस्त, रैयतवाड़ी बंदोबस्त और महालवाड़ी बंदोबस्त व्यवस्था लागू थी। वही ब्रिटिश अधिकारियों ने कुमाऊं के भू-राजनैतिक महत्

ब्रिटिश कुमाऊं कमिश्नर : उत्तराखंड

ब्रिटिश कुमाऊं कमिश्नर उत्तराखंड 1815 में गोरखों को पराजित करने के पश्चात उत्तराखंड में ईस्ट इंडिया कंपनी के माध्यम से ब्रिटिश शासन प्रारंभ हुआ। उत्तराखंड में अंग्रेजों की विजय के बाद कुमाऊं पर ब्रिटिश सरकार का शासन स्थापित हो गया और गढ़वाल मंडल को दो भागों में विभाजित किया गया। ब्रिटिश गढ़वाल और टिहरी गढ़वाल। अंग्रेजों ने अलकनंदा नदी का पश्चिमी भू-भाग पर परमार वंश के 55वें शासक सुदर्शन शाह को दे दिया। जहां सुदर्शन शाह ने टिहरी को नई राजधानी बनाकर टिहरी वंश की स्थापना की । वहीं दूसरी तरफ अलकनंदा नदी के पूर्वी भू-भाग पर अंग्रेजों का अधिकार हो गया। जिसे अंग्रेजों ने ब्रिटिश गढ़वाल नाम दिया। उत्तराखंड में ब्रिटिश शासन - 1815 ब्रिटिश सरकार कुमाऊं के भू-राजनीतिक महत्व को देखते हुए 1815 में कुमाऊं पर गैर-विनियमित क्षेत्र के रूप में शासन स्थापित किया अर्थात इस क्षेत्र में बंगाल प्रेसिडेंसी के अधिनियम पूर्ण रुप से लागू नहीं किए गए। कुछ को आंशिक रूप से प्रभावी किया गया तथा लेकिन अधिकांश नियम स्थानीय अधिकारियों को अपनी सुविधानुसार प्रभावी करने की अनुमति दी गई। गैर-विनियमित प्रांतों के जिला प्रमु

उत्तराखंड की जनजातियों से संबंधित प्रश्न (उत्तराखंड प्रश्नोत्तरी -14)

उत्तराखंड प्रश्नोत्तरी -14 उत्तराखंड की प्रमुख जनजातियां वर्ष 1965 में केंद्र सरकार ने जनजातियों की पहचान के लिए लोकर समिति का गठन किया। लोकर समिति की सिफारिश पर 1967 में उत्तराखंड की 5 जनजातियों थारू, जौनसारी, भोटिया, बोक्सा, और राजी को एसटी (ST) का दर्जा मिला । राज्य की मात्र 2 जनजातियों को आदिम जनजाति का दर्जा प्राप्त है । सर्वप्रथम राज्य की राजी जनजाति को आदिम जनजाति का दर्जा मिला। बोक्सा जनजाति को 1981 में आदिम जनजाति का दर्जा प्राप्त हुआ था । राज्य में सर्वाधिक आबादी थारू जनजाति तथा सबसे कम आबादी राज्यों की रहती है। 2011 की जनगणना के अनुसार राज्य की कुल एसटी आबादी 2,91,903 है। जुलाई 2001 से राज्य सेवाओं में अनुसूचित जन जातियों को 4% आरक्षण प्राप्त है। उत्तराखंड की जनजातियों से संबंधित प्रश्न विशेष सूचना :- लेख में दिए गए अधिकांश प्रश्न समूह-ग की पुरानी परीक्षाओं में पूछे गए हैं। और कुछ प्रश्न वर्तमान परीक्षाओं को देखते हुए उत्तराखंड की जनजातियों से संबंधित 25+ प्रश्न तैयार किए गए हैं। जो आगामी परीक्षाओं के लिए महत्वपूर्ण साबित होंगे। बता दें की उत्तराखंड के 40 प्रश्नों में से 2

Uttrakhand current affairs in Hindi (May 2023)

Uttrakhand current affairs (MAY 2023) देवभूमि उत्तराखंड द्वारा आपको प्रतिमाह के महत्वपूर्ण करेंट अफेयर्स उपलब्ध कराए जाते हैं। जो आगामी परीक्षाओं में शत् प्रतिशत आने की संभावना रखते हैं। विशेषतौर पर किसी भी प्रकार की जॉब करने वाले परीक्षार्थियों के लिए सभी करेंट अफेयर्स महत्वपूर्ण साबित हो सकते हैं। उत्तराखंड करेंट अफेयर्स 2023 की पीडीएफ फाइल प्राप्त करने के लिए संपर्क करें।  उत्तराखंड करेंट अफेयर्स 2023 ( मई ) (1) हाल ही में तुंगनाथ मंदिर को राष्ट्रीय स्मारक घोषित किया गया है। तुंगनाथ मंदिर उत्तराखंड के किस जनपद में स्थित है। (a) चमोली  (b) उत्तरकाशी  (c) रुद्रप्रयाग  (d) पिथौरागढ़  व्याख्या :- तुंगनाथ मंदिर उत्तराखंड के गढ़वाल मंडल के रुद्रप्रयाग जिले में स्थित है। तुंगनाथ मंदिर समुद्र तल से 3640 मीटर (12800 फीट) की ऊंचाई पर स्थित एशिया का सर्वाधिक ऊंचाई पर स्थित शिवालय हैं। उत्तराखंड के पंच केदारों में से तृतीय केदार तुंगनाथ मंदिर का निर्माण कत्यूरी शासकों ने लगभग 8वीं सदी में करवाया था। हाल ही में इस मंदिर को राष्ट्रीय महत्त्व स्मारक घोषित करने के लिए केंद्र सरकार ने 27 मार्च 2023