सामाजिक विकास
वृद्धा आश्रम व्यवस्था : पक्ष विपक्ष
आप घर में एक पार्टी कर रहे हो । सभी दोस्त और रिश्तेदार एंजॉय कर रहें हो । इतने में एक बूढा व्यक्ति आए और गाली देना शुरू कर दे या घर से भगाने लगे । हो सकता है लाठी भी मारे तो आप क्या करेंगे?
तनाव का मुख्य कारण
यह लेख है उन बूढ़े माता-पिता के बच्चों के लिए जो अपने बूढ़े मां बाप को वृद्धाश्रम आश्रम छोड़ देते हैं, और बाहरी दुनिया उनको जलील करती है और केवल उन्हीं को गलत बताती है । सबसे ज्यादा आलोचना उनके रिश्तेदार करते हैं। कभी-कभी यही वजह तनाव का कारण भी बनती है और अच्छे-अच्छे रिश्तो में दरार आ जाती है फिर सारा इल्जाम घर की बहू पर आ जाता है।
बात दरअसल यह है कि वृद्ध आश्रम व्यवस्था जो समाज मैं बहुत पहले से चलती आ रही है । वह आज के समय में कितनी सही है या गलत? आज इस बात पर विस्तार पूर्वक बात करेंगे ।बहुत सारे संस्कारी परिवार इस व्यवस्था को गलत मानते हैं ।क्योंकि उनको संस्कार में यही सिखाया जाता है कि हमारे बड़े बूढ़े बुजुर्ग सही हो या गलत कोई भी उनसे बहस नहीं करेगा। ज्यादा बोल दो तो कह देते हैं "वह ज्यादा जिए हैं या तुम" उन्हें जिंदगी का अनुभव है । और गलत बात पर भी चुप्पी साध लेते हैं। एक प्रकार से आप परिवार में हो ! तो गुलाम हो । यदि आपके विचारों की कद्र नहीं है लेकिन बूढ़े तो बूढे़ होते हैं । सबसे ज्यादा दिक्कत तब आती है जैसे-जैसे इंसान बूढा होता है । अक्सर आपने सुना ही होगा। एक उम्र के बाद इंसान मे बचपना भी आने लगता है अर्थात बुजुर्ग इंसान बच्चे जैसा रोल अदा करते है । जैसे- एक बच्चा बचपन में जिद्दी होता है और माता-पिता को खूब परेशान करता है ठीक उसी तरह बुजुर्ग भी करते हैं। अब आप जरा सोचिए जब बच्चा बहुत जिद करता है और रोता है तो आप क्या करते हैं?
समस्या तब ज्यादा आती है जब बूढ़े व्यक्ति शिक्षित नहीं होते और फिर समाज में हो रहे परिवर्तन के अनुकूल परिवर्तन नहीं कर पाते हैं । क्योंकि अशिक्षित होने से बाहरी दुनिया का कोई ज्ञान तो होता नहीं है। और बूढ़ा होने के बाद चारदीवारी में जिंदगी काटने लगते है शायद इसी कारण से चिड़चिड़े हो जाते हैं । परिवार के सदस्य भी दूरी बनाने लगते हैं। इस तरह अकेलापन सताने लगता है। और वही बात उनकी राय की आती है तो वही बूढ़े जमाने की बातें और पुरानी राय तो उनके बच्चे इग्नोर करने लग जाते हैं । इस तरह उनका परिवार में रहना नगण्य हो जाता है । फिर इस तरह शुरू होती है, टोका टाकी । जिसका जवाब देने में सभी कतराते हैं । जहां बुजुर्ग लोग अशिक्षित हैं तो शिक्षित बुजुर्ग भी कुछ कम नहीं है यदि उनका परिवार में बस चलता है तो वह सोचते हैं सब उनके अनुसार चले जो कि संभव नहीं है।
आश्रम व्यवस्था : जाबालोपनिषद
प्राचीन समय में मानव जीवन को चार आश्रम में चार आश्रम में वर्गीकृत किया गया था । जो कि जब जाबालोपनिषद से लिया गया था । जिसमें मनुष्य के जीवन काल को 100 वर्षों का माना था और 25 वर्षों के अंतराल में विभाजित किया था। ब्रह्मचर्य, गृहस्थ , वानप्रस्थ और सन्यास।
(1) ब्रह्मचर्य आश्रम
ब्रह्मचर्य के अनुसार जब बच्चा जन्म लेता है तो 25 वर्षों तक ज्ञान पाने का अधिकार रखता है। और आज भी कुछ वैसा ही है । जब कोई बच्चा 25 वर्ष का हो जाता है यदि वह अनुशासित पूर्वक ज्ञान ग्रहण करता है तो निश्चय ही ज्ञानी हो सकता है वैसे ज्ञान की कोई सीमा नहीं है।
(2) गृहस्थ आश्रम
गृहस्थ के अनुसार 25 वर्ष के बाद शादी हो जानी चाहिए ।जिसमें परिवार की जिम्मेदारी आ जाती है। ब्रह्मचर्य से प्राप्त ज्ञान से आजीविका चला सकता है । यहां पर किसी पर भी निर्भर न रहकर पुत्र पुत्री का पालन भी सुखी पूर्वक कर सकता है। और यह कार्य पुत्र के 25 वर्ष होने तक ही करता है और यह शायद ठीक है क्योंकि उसके बाद पिता आजाद हो जाता है और परिवार के कामों में आड़े नहीं आता है।
(3) वानप्रस्थ आश्रम
वानप्रस्थ के अनुसार वन की ओर जाना होता था। पहले 50 वर्ष के बाद मनुष्य जंगल में तप किया करते थे और जड़ी बूटियों की खोज करते थे । और उनके फायदे और नुकसान ताड़ पत्र पर लिख देते थे । बहुत सारे धर्म ग्रंथ और उपनिषद नालंदा विश्वविद्यालय में आग लग जाने के कारण जल गए थे।
(4) संयास आश्रम
सन्यास के अनुसार 75 वर्ष के बाद मनुष्य को परिवार की मोह माया छोड़ कर सन्यासी जीवन बिताना होता था । भिक्षा के द्वारा जीवन यापन करते थे । और 50+25 वर्षों में प्राप्त जान को लोगों तक पहुंचाते थे।
अगर हम भारतीय प्राचीन व्यवस्था का अनुसरण करते हैं तो काफी उचित नजर आती है क्योंकि इसमें किसी भी प्रकार का क्लेश, ईर्ष्या और लालच का कोई स्थान नहीं था। सभी मनुष्य को अपनी अपनी जिम्मेदारियां दी गई थी । अर्थात यदि आप पुत्र हैं तो ज्ञान प्राप्त करो। पिता है तो परिवार का पालन करो । और आप दादाजी हैं तो दुनिया को ज्ञान दो।
निष्कर्ष
उपयुक्त लेख द्वारा यह बताने का प्रयास किया गया है कि कहीं ना कहीं रूढ़िवादी बुजुर्ग परिवार में क्लेश और दुख को उत्पन्न कर देते हैं, और परिवार बिखरने लगता है। जिसमे बदनामी सिर्फ जो बुजुर्ग के परिवार में बहुऐं होती हैं जिनके ऊपर बहुत सारी जिम्मेदारियां होती हैं दोषी उन्हें बताया जाता है । और ज्यादा से ज्यादा पुत्र को नालायक बताया जाता है। जबकि उस बुजुर्ग का व्यवहार कैसा है उसकी बात कोई नहीं करता । कभी-कभी कुछ पुत्र कामचोर या फिर जिम्मेदारी नहीं उठा पाते हैं तो वहीं पति-पत्नी की लड़ाई अधिक होती है । जिस बीच जब गुस्सा उतारने की बात आती है तो बुजुर्ग पर ही उतार दिया जाता है । जो बुजुर्ग सहनशील है वह आज भी परिवार के साथ सुखी पूर्वक जीवन व्यतीत कर रहे हैं और जो असहनशील हैं वह वृद्ध आश्रम में सुखी पूर्वक जीवन जी रहे हैं। एक तरफ कहा जाए तो सही दोनों ही अपनी अपनी जगह ठीक हैं लेकिन यदि आप घर के बुजुर्गों को वृद्ध आश्रम भेज भी देते हैं तो आपका कर्तव्य बनता है कि उनकी रहन-सहन व्यवस्था और समय-समय पर यह जानकारी लें कि वह खुश है या नहीं। अंतिम शब्दों में यह कहना चाहूंगा कि यदि किसी परिवार का बुजुर्ग वृद्ध आश्रम चला जाता है तो किसी पर भी इल्जाम ना लगाएं । उन्हें भी पूर्ण रूप से स्वाभिमानी जीवन जीने का हक है यहां जिंदगी के साथ तालमेल होना बहुत जरूरी है।
विशेष तथ्य
वर्तमान समय में हमारा देश सर्वश्रेष्ठ होता । क्योंकि आश्रम व्यवस्था के चलते हमारे बुजुर्गों ने बहुत सारे ताड़-पत्र और पांडुलिपि या वानप्रस्थ आश्रम के तहत जंगलों में गुरु के समीप बैठ कर लिखी थी। उपनिषदों को रचा गया था। भारत में ही सबसे पहला विश्वविद्यालय तक्षशिला था और गुप्त वंश के सम्राट कुमार गुप्त ने पाटलिपुत्र में नालंदा विश्वविद्यालय की स्थापना की । चौदवीं शताब्दी में बख्तियार खिलजी ने पाटलिपुत्र में आक्रमण किया और नालंदा विश्वविद्यालय में आग लगा दी जिसमें हजारों धर्म ग्रंथ, पांडुलिपियों और ताड़ पत्र आग में नष्ट हो गए।
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vishesh tatb
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