भूमि बंदोबस्त व्यवस्था
"जब जड़ ही कमजोर है तो पेड़ तो कम फल देगा ही"।
क्या आपने कभी सोचा है भारत के दक्षिणी राज्य अधिक विकसित क्यों है? और उत्तर भारत के राज्य पिछड़े हुए क्यों है? जबकि पूरे भारत को आजादी एक साथ मिली थी। उत्तर प्रदेश, बिहार और बंगाल सबसे अधिक पिछड़े हैं । एक समय भारत की मुख्य राजधानी रहे हैं । पाटलिपुत्र जो मगध साम्राज्य की राजधानी थी जो नदियों के दोआब क्षेत्र से घिरा हुआ था (सोन नदी, चंपा नदी, गंगा नदी) सबसे अधिक उपजाऊ वाला क्षेत्र था। कन्नौज जो गुप्त काल और हर्षवर्धन काल के समय प्रसिद्ध थे और दिल्ली को पाने के लिए अनेक युद्ध हुए। वर्तमान में सबसे अधिक पिछड़ा गये हैं । भारत के सबसे गरीब राज्यों में बिहार और उत्तर प्रदेश शामिल है। सारी कहानी जुड़ी है इतिहास से । जो सबसे अधिक रोमांचकारी है यह सब देने अंग्रेजों की जिन्होंने शासन व्यवस्था बनाएं रखने के लिए, जो भी हथकंडे अपनाने थे सभी अपना लिए और जब देश पूरी तरह बर्बाद हो गया, तो कुछ चुनिंदा लोगों के हाथों छोड़ गए।
बात उन दिनों की है जब देश में कृषकों के लिए कृषि क्षेत्र के आंकड़े जारी हुए थे । अंग्रेजों ने स्वयं के लाभ के लिए भूमि बंदोबस्त नीति अपनाई थी। जिसके तीन चरण थे-
(1) स्थाई बंदोबस्त या जमीदारी व्यवस्था
(2) रैयतवाड़ी व्यवस्था
(3) महालवाड़ी व्यवस्था
सन 1928-29 मे कृषको से संबंधित कृषि क्षेत्र के आंकड़े जारी किए गए। जिसमें स्थाई बंदोबस्त के तहत ब्रिटिश भारत के 19% भाग पर यह व्यवस्था लागू की गई। जो बंगाल, बिहार उड़ीसा, उत्तर प्रदेश और बनारस आदि क्षेत्र शामिल थे। वहीं 52% कृषि क्षेत्र में रैयतवाड़ी व्यवस्था लागू की गई। जिसमे मद्रास प्रेसिडेंसी (कर्नाटक, तमिलनाडु, मुंबई) अर्थात दक्षिण भारत के अधिकांश राज्य शामिल किए गए। महालवाड़ी बंदोबस्त में ब्रिटिश भारत के 29% भाग पर यह व्यवस्था लागू की गई। जिसमे मध्य प्रांत, आगरा और पंजाब शामिल किया गया था। अब प्रश्न तो मन में जरूर उठा होगा कि भूमि बंदोबस्त क्या है और हम इसे क्यों पढ़ रहे हैं? (
उत्तराखंड में भूमि बंदोबस्त व्यवस्था)
भूमि बंदोबस्त क्या है ?
यह एक प्रकार से सरकार के द्वारा कृषि पर राजस्व निर्धारण करने का एक उपाय था। जैसा कि आप सभी जानते हैं कि 1764 में बक्सर के युद्ध के बाद अंग्रेजों का शासन प्रारंभ हो चुका था। शासन व्यवस्था बनाए रखने के लिए कुशल प्रशासन और कुशल सेना की आवश्यकता थी । और सेना में अधिकारी रखने के लिए धन की आवश्यकता होती है। उस समय भारत में आय का मुख्य स्रोत कृषि था। कृषि से उत्पादित वस्तुओं का ही व्यापार होता था। जिससे आय प्राप्त होती थी। कोई बड़ा उद्योग और कारखाना फैक्ट्री नहीं थी। इसलिए आवश्यक था कि भूमि का बंदोबस्त किया जाए। और अधिक से अधिक लाभ कमाया जाए। जिसके तहत स्थाई बंदोबस्त का आरंभ लॉर्ड कार्नवालिस(1786-93) में बंगाल में सन 1793 में किया था । इसके अनुसार लॉर्ड कार्नवालिस की पद्धति में मध्यस्थों और बिचौलियों को भूमिका स्वामी घोषित कर दिया गया। दूसरी ओर स्वतंत्र किसानों को राहत के रूप में परिवर्तित कर दिया गया । और सामुदायिक संपत्ति को जमीदारों के निजी स्वामित्व में रखा गया। भूमि को पहली बार विक्रय योग्य बना दिया गया।
जमीदारी व्यवस्था (स्थाई बंदोबस्त)
स्थाई बंदोबस्त के तहत जमीदारों को जमीन का मालिक बना दिया गया। इसका अर्थ था कि अब जमीन खरीदी बेची जा सकती थी । 1793 से पहले जमीन पर केवल खेती होती थी जमीन का कोई मूल्य नहीं था। अंग्रेजों की कोशिश थी कि पूंजीवाद को बढ़ावा दिया जाए साथ ही भारतीय समाज में स्वामी भक्त समुदाय का निर्माण किया जाए। स्थाई बंदोबस्त व्यवस्था में भू राजस्व दर निश्चित कर दिया गया। जिसके भविष्य में बढ़ने का कोई प्रावधान नहीं था। इससे राजस्व आय में आर्थिक स्थिरता आई।
| इस बंदोबस्त की सबसे बड़ी कमी यह थी कि यहां सबसे अधिक फायदा जो कुछ नहीं करते थे। बिचौलिए, मध्यस्त अर्थात जमीदार उनको भारी मात्रा में लाभ हुआ । और किसानों का सबसे अधिक शोषण हुआ और जितना अधिक फसल उपजाते थे उतना अधिक कर देना पड़ता था। जिस कारण कृषि के विकास में उत्साह की कमी नजर आई। और वह केवल जीविका चलाने के लिए ही कृषि पर निर्भर हो गए । इस व्यवस्था में कृषकों की कुल उपज का 40% ही मिलता था सरकार यहां 45% और बिचौलिए 15% कमीशन ले जाते थे या व्यवस्था उत्तर प्रदेश बिहार बंगाल और बनारस में लागू थी।
रैयतवाड़ी व्यवस्था
रैयतवाड़ी व्यवस्था एक प्रकार से जमीदारी प्रथा का सुधार था । जो टॉमस मुनरो द्वारा मद्रास प्रेसीडेंसी तमिलनाडु कर्नाटक मुंबई में 1820 में लाया गया। यूं तो 1992 में ही रीड द्वारा रैयतवाड़ी व्यवस्था का प्रयोग शुरु हो चुका था। इस व्यवस्था का मूल आधार सीधे करार था। अर्थात सरकारी कर्मचारी सीधे कृषकों से कर वसूल सकते थे। इसके अंतर्गत फसल की लागत निकालने के बाद 50% भू राजस्व वसूला जाता था । इस व्यवस्था का मुख्य उद्देश्य था कि कृषिको को कृषि विकास के लिए उत्साहित करना। जिसके लिए कृषकों को स्वतंत्र छोड़ा गया। कहीं ना कहीं इसमें भी थोड़ी बहुत कमी थी। कर अधिक होने से कृषक फसल लगाने के लिए साहूकारों और महाजनों व्यापारियों से ब्याज पर पैसे लिया करते थे । और इस तरह वह लोन के दलदल में फंस जाते थे। इसमें राजस्व निर्धारण एक निश्चित समय 20 से 30 वर्षों के लिए होता था।
महालवाड़ी व्यवस्था
जहां स्थाई बंदोबस्त में व्यक्ति विशेष की जमीन की मात्रा एवं गुणवत्ता के आधार पर राजस्व का निर्धारण किया जाता था। महालवाड़ी व्यवस्था के तहत लगान का निर्धारण महाल या संपूर्ण गांव की उपज के आधार पर किया जाता था। जिसमें गांव के मुखिया द्वारा सरकार को कर की अदायगी की जाती थी। महालवाड़ी व्यवस्था सर्वप्रथम "हॉल्ट मैकेंजी" द्वारा लाई गई और 1822 में लागू की गई थी। एक प्रकार से रैयतवाड़ी व्यवस्था के समान ही थी। इसमें भी राजस्व का निर्धारण 20 से 30 वर्षों के लिए किया जाता था जो मुख्यतः मध्य प्रांत आगरा और पंजाब आदि क्षेत्र में लागू की गई थी।
भूमि बंदोबस्त का प्रभाव
जमीदारी, रैयतवारी और महलवारी व्यवस्था में केवल भूमि कर निर्धारण या संग्रहण से संबंधित ही नहीं थी। इन व्यवस्थाओं ने भविष्य में अंग्रेजों की ही नहीं बल्कि भारत की भी रूपरेखा तय की थी। जहां-जहां जमीदारी प्रथा रही वे सभी क्षेत्र जमीदारों के शोषण से असहाय हो गए थे । कृषि करने का उत्साह समाप्त हो गया था। संपूर्ण भूमि पर जमीदारों का कब्जा हो गया था जिसमें सरकार को एक निश्चित दर पर कर अदा करने के लिए जिम्मेदार थे। और वह राजस्व की डर से अधिक कर लेते थे। जिस कारण चुनिंदा जमीदार धनवान हो गए और अंग्रेजों के विश्वासपात्र बन गए । और तो और विदेशों में भी व्यापार स्थापित कर लिया । वहीं स्थानीय किसान की हालत बदतर होते गए और जमीदारी प्रथा ने इतना शोषण किया। जिससे उत्तर भारत की जड़ जो कृषि पर निर्भर थे । उसको कमजोर कर दिया। इसीलिए कहा गया "जड़ ही कमजोर है तो पेड़ तो फल कम देगा ही"। जिस कारण यूपी, बिहार और बंगाल अन्य राज्यों से पिछड़ गए।
दूसरे प्रांतों में महालवारी और रैयतवाड़ी व्यवस्था थी। जिनमें किसानों को थोड़ी बहुत स्वतंत्रता थी। जिसमें किसानों से सरकार प्रत्यक्ष रुप से राजस्व वसूलती थी इस व्यवस्था में राजस्व कर अधिक होने से अगली फसल उगाने के लिए धन की कमी हो जाती थी। और नई फसल उगाने के लिए उसे ऋण लेना पड़ता था जिस कारण किसान साहूकार और महाजन के चंगुल में फंस जाते थे। इसमें सरकार के द्वारा किए कर की दर एक निश्चित समय के लिए कर दी गई थी । फसल की कुल लागत निकालने के बाद 50% कर के रूप में सरकार को दिया जाता था। इस व्यवस्था ने किसान को अधिक पैदावार करने के लिए प्रेरित किया। और नए नए प्रयोगों के साथ कृषि का विस्तार किया । इसका फायदा यह हुआ कि उनके कृषि मे तकनीकी परिवर्तन हुए। बैंकों की स्थापना के बाद साहूकार महाजनों और सूदखोरों से भी मुक्ति मिल गई। मध्य प्रांत, पंजाब जहां महालवाड़ी व्यवस्था थी तो वहीं दक्षिण भारत में रैयतवाड़ी व्यवस्था थी। उन्हें विकसित होने का सुनहरा मौका मिल गया । उन्होंने इस अवसर का निश्चय ही लाभ उठाया और आजादी के बाद भूमि पर स्वामित्व मिल गया । उत्तर भारत में जो जमीन पर जमीदारों का कब्जा था। उसके लिए चकबंदी लाई गई और यह भू सुधार का पहला चरण था जिसका जमीदारों ने पूर्णतया विरोध किया और भू सुधार का पहला चरण असफल रहा । भूमि सुधार की प्रक्रिया सही ढंग से नहीं होने के कारण और जनसंख्या के दबाव के कारण यह क्षेत्र विकसित नहीं हो पाया। अधिकांश क्षेत्र आज भी जमीदारों के पास ही हैं और यूपी बिहार की आधी से अधिक आबादी 2 हेक्टेयर से कम क्षेत्र की जोत में ही सीमित रह गई है।
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भू-सुधार के बारे में पूर्ण जानकारी के लिए भूमि सुधार पार्ट - 3 को अवश्य देखें। जिसने भूमि सुधार के तीनों चरणों का विस्तार पूर्वक वर्णन किया गया है। और यदि हमारे लेख आपको पसंद आते हैं तो अधिक से अधिक शेयर कीजिए।
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Very nice.....thanku
जवाब देंहटाएंAwesome lines
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