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भूमि सुधार (पार्ट- 3)
भू-सुधार असफल क्यों हुआ?
भारत के स्वतंत्र होने के समय देश की व्यवस्था के अंतर्गत विभिन्न भू-राजस्व पद्धतियां प्रचलित थी । जमींदारी प्रथा, महालवाड़ी प्रथा और रैयतवाडी प्रथा। यह ऐसी भूमि बंदोबस्त व्यवस्था थी जिसने 200 वर्षों तक किसानों का शोषण किया और कमजोर बना कर रखा। और यहीं से धनी वर्ग का निर्माण हुआ जो अंग्रेजों ने अपने स्वार्थ के लिए बनाया था । और स्वतंत्रता के बाद भी शोषण किसानों पर कम नहीं हुआ। हालांकि सरकार ने भू-सुधार के लिए विभिन्न कदम उठाए ।जैसे- चकबंदी और भूमि का पुनर्वितरण, भूमिहीनों को भूमि प्रदान करना आदि । 1935 में ही कांग्रेस सरकार ने कह दिया था कि जब देश आजाद होगा तो सबसे पहले भू-सुधार किया जाएगा। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद सरकार का पहला कदम था। कि बिचौलियों का उन्मूलन जिसके तहत सुधार को दो चरणों में लागू किया गया।
भू-सुधार का पहला चरण(phase -1)
स्वतंत्रता के ठीक बाद भूमि का पुनः वितरण प्रारंभ हुआ। सभी अर्थव्यवस्था औद्योगीकरण से पहले कृषि पर आधारित थी ।सिर्फ उनकी समय सीमा अलग-अलग थी। जब देश में लोकतंत्र स्थापित होने लगा तो सवाल कृषि सुधारों को लेकर था। क्योंकि कृषि पर आधारित अर्थव्यवस्था में भूमि अधिकांश लोगों के लिए आजीविका का साधन थी। इसलिए इसमें सुधार अति आवश्यक था भूमि सुधार के नियम उद्देश्यों की पूर्ति के लिए निम्न कार्य किए।
- भारतीय कृषि की अनेक कमियों पर कार्य किया जैसे- भूमि पर मालिकाना हक, भूमि उत्तराधिकार, काश्तकारों को न्याय, बिचौलियों का उन्मूलन, नई संस्थाओं का निर्माण और जोत क्षेत्र का आकार आदि उद्देश्यों को शामिल किया।
- एक लोकतांत्रिक देश का प्रथम उद्देश्य होता है कि देश को कल्याणकारी बनाना। सामाजिक और आर्थिक असमानता को दूर करके एक समान देश का विकास करना। आजादी के समय 80% किसान भूमि पर आश्रित थे, जिसमें 50% किसान श्रमिक के रूप में जमींदारों के खेतों में काम करते थे या फिर किराये पर खेती करते थे।
- भूमि सुधार का तीसरा उद्देश्य था- की भूमि का आधुनिकरण करके देश को आत्मनिर्भर बनाना साथ ही साथ कुपोषण और खाद्यान्न की कमी को दूर करना।
सरकार द्वारा उठाए गए कदम
भूमि सुधार के उद्देश्य को पूरा करने के लिए सरकार द्वारा निम्न कदम उठाए गए।
- मध्यस्थों को पूर्ण तरह समाप्त कर दिया गया । जिसमें जमींदारी, महालवाड़ी और रैयतवाड़ी प्रथा शामिल थी। अर्थात अब बिचौलियों और मध्यस्थ लगान नहीं लेंगे और ना ही भूमि पर किसी प्रकार का पर अधिकार रहेगा।
- काश्तकारों के प्रति उदार रवैया अपनाया जाएगा। जोतदारों को दिए जाने वाले लगान का अनुपात 55% से 20 से 25% तक कर दिया।
- जो काश्तकार बटाई पर जमीन लेते थे उनके लिए नियम कानून बनाए और सरकारी संस्थाओं की स्थापना की।
- बहुत सारे काश्तकारों को भूमि में स्वामित्व का अधिकार दे दिया गया। ज्यादातर रैयतवाड़ी व्यवस्था के अंतर्गत काश्तकारों को तुरंत लाभ मिला । जोकि पूरे भारत के 52% भाग में रैयतवारी भूमि व्यवस्था चल रही थी।
- जमीदारों के अंतर्गत काश्तकारों के लिए जमीदारों से भूमि छीनकर भूमि का पुनः वितरण कराया गया ।जिसके लिए पूरे भारत में सन 1958 को चकबंदी योजना लागू की गई । जबकि उत्तर प्रदेश में चकबंदी योजना का प्रारंभ सन 1954 में मुजफ्फरनगर की कैराना तहसील व सुल्तानपुर जिले में सफल परीक्षण किया जा चुका था।( चकबंदी क्या है?)
- सहकारी कृषि की व्यवस्था सामाजिक आर्थिक व नैतिक आधार पर की गई । जिसका सबसे ज्यादा लाभ जमीदारों को मिला। क्षतिपूर्ति के सिद्धांत के तहत उत्तर प्रदेश के बहुत सारी जमीदार चकबंदी से बच गए।
प्रथम चरण में भूमि सुधार असफल क्यों हुआ?
भूमि सुधार के असफल होने के निम्न कारण थे।
- भू सुधार प्रक्रिया विफल होने का मुख्य कारण राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी रही है। तभी भू- सुधार सफल नहीं हो सका। सारे नेताओं ने आपस में धांधली की और खुद की बड़ी-बड़ी कोटियॉ बनवाई।
- दूसरा कारण था कि भारतीय किसान भूमि को सामाजिक प्रतिष्ठा तथा पहचान का प्रतीक मानते थे। जिस कारण वह उपलब्ध भूमि को बांटना नहीं चाहते थे और ना ही उनमें कोई सुधार करना चाहते थे। चकबंदी योजना से उन्हें डर लगा रहता था की सरकार उनकी भूमि छीन ना ले।
- भारतीय प्रजातांत्रिक व्यवस्था में भ्रष्टाचार शुरुआत से ही चरम स्तर पर था। जिस कारण कृषि सुधार के लिए कुशल शासक के नेतृत्व की कमी रही। और थोड़ा बहुत सुधार हुआ भी तो जो ताकतवर जमीदार थे। भूमि सुधार उन्हीं के पक्ष में गया ना कि भूमिहीन किसानों के।
- कहीं ना कहीं हरित क्रांति ने भी भूमि सुधार के लिए समस्या खड़ी कर दी । क्योंकि हरित क्रांति बड़े जोत वाले खेतों पर निर्भर थी जहां किसी बड़े भूखंड पर किसी व्यक्ति विशेष का अधिकार हो जिसमें उत्पादन को बढ़ाया जा सके क्योंकि उस समय देश में खाद्यान्न आने की भारी कमी थी।
- उच्च वर्ग के भूस्वामियों ने भू-सुधार का जमकर विरोध किया । जहां रैयतवाड़ी व्यवस्था थी । वहां तो किसानों को भूमि का स्वामित्व आसानी से मिल गया। लेकिन जमीदारी प्रथा वाले क्षेत्र कहीं ना कहीं संघर्ष करते रह गए।
- देश मे खाद्यान्न की कमी के कारण और अंतरराष्ट्रीय दबाव के कारण विश्व बैंक के सुझाव पर हरित क्रांति पर ज्यादा फोकस किया गया और भू सुधार को एक तरफ कर दिया गया।
भू-सुधार - दूसरा चरण
भूमि सुधार के दूसरे चरण में आधुनिकरण पर विशेष फोकस किया गया । सन् 1991 में LPG ( उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण) के अपनाने से अर्थव्यवस्था में तेजी आ चुकी थी। अतः जरूरी था कि भू-विकास किया जाए । भू सुधार में पट्टा भूमि अधिनियम जो 1895 से लागू था, उसमें सुधार किए गए और भूमि अधिग्रहण कानून(1894) में भी सुधार किए गए।खाद्यान्न मुद्दे और विश्व पर संगठन के अनुसार कार्य प्रारंभ किया गया है। जिसके तहत भूमि को सावधानी से मानचित्रण किया गया है । जमीन के पट्टे के अंतर्गत पारदर्शी और प्रभावी नीति लागू की गई । राष्ट्रीय भूमि रिकॉर्ड आधुनिकरण कार्यक्रम 2008 में शुरू हुआ। इसका उद्देश्य 12वीं योजना के अंत तक जमीन के रिकार्डों का नवीनीकरण और डिजिटलीकरण करना था। पट्टेदारो और जमीन मालिकों का अनिवार्य पंजीकरण और उनकी सुरक्षा प्रदान करना । साल 2015 में नई केंद्र सरकार द्वारा एक नया भूमि विधेयक (भूमि अधिग्रहण पुनर्वास और अपना में पारदर्शिता और न्याय संगत क्षतिपूर्ति का अधिकार कानून 2015) प्रस्तावित किया गया । जिसका लक्ष्य 2013 के भूमि कानून की कमियों को दूर करना था ।जिसमें महत्ववपूर्ण प्रावधान प्रदान किए गए ।
- भूमि पर मालिकाना हक देने के बजाय सरकारी भूमि को पट्टे पर देने की बात को स्वीकार किया। इससे मालिकाना हक मौजूदा किसानों के पास रहेगा। जिसे भूमिहीन किसानों को भूमि मिल जाएगी और बेरोजगारी में कमी आएगी साथ ही साथ किसान को एक नियमित आय का जरिया प्राप्त होगा ।
- भूमि को पट्टे में देने से भूमि अधिग्रहण की समस्या में कमी आएगी। क्योंकि जब भी सरकार को कुछ बनाना होता है तो किसान भूमि अधिग्रहण का विरोध करते हैं जिससे कोई भी योजना सफल होने में एक लंबा समय लग जाता है।
- उत्तराखंड में 2016 से पट्टे की भूमि पर पूर्ण स्वामित्व करने की व्यवस्था की गई है जिसके कार्य वर्तमान में भी चल रहे हैं। मार्च 2019 में अवैध कब्जे वाली भूमि को पंजीकरण कराने का अंतिम महीना था।
निष्कर्ष
भारत में भू-सुधार वृहद् स्तर पर लागू किया गया है। लेकिन भूमि सुधारों के विशेषज्ञों द्वारा एक असफल कोशिश माना जाता है । इसे विशेषज्ञों द्वारा इतिहास की सबसे जटिल सामाजिक-आर्थिक समस्या माना जाता है । भूमि सुधार के आंकड़े उत्साहजनक नहीं थे। क्योंकि भूमि सुधार चरण-1 के अंतर्गत सिर्फ 1.10 करोड़ काश्तकारों को 1.40 करोड़ हेक्टेयर कृषि उपयोग भूमि आवंटित की गई थी। और जमीदारों की स्वामित्व वाली भूमि को सिर्फ 2% ही वितरण किया गया। इस प्रकार पूरे भारत में कुल भूमि 6% ही आवंटित हो सकी। जोकि सकारात्मक सामाजिक-आर्थिक प्रभाव के अनुसार नगण्य थी। दूसरा भूमि सुधार की असफलता के कारण ही हरित क्रांति की शुरुआत 1960 के दशक में प्रारंभ की गई थी। जिसकी शुरुआत एमएस स्वामीनाथन ने की थी सरकार ने उत्पादकता बढ़ाने पर बल दिया । क्योंकि भूमि सुधार इस उद्देश्य को पूरा नहीं कर सका।
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स्रोत: भारतीय अर्थव्यवस्था (रमेश सिंह)
Very nice article
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