सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

पंडित नैन सिंह रावत का जीवन परिचय

 पंडित नैन सिंह रावत  पंडित नैन सिंह रावत (1830-1895) एक महान खोजकर्ता थे। वे हिमालय और मध्य एशिया के क्षेत्र में अंग्रेज़ों के लिए सर्वे करने वाले पहले भारतीयों में से एक थे।  आज जिला शिक्षा एवं प्रशिक्षण संस्थान पिथौरागढ़ (डीडीहाट) में उनकी 194वीं जयंती के उपलक्ष्य में राज्य स्तरीय कार्यक्रम आयोजित किया जा रहा है। जिसमें उत्तराखंड के महान इतिहासकार व लेखक श्री शेखर पाठक जी के साथ राज्य शैक्षिक अनुसंधान एवं प्रशिक्षण परिषद की निदेशक श्रीमती वन्दना गर्ब्याल जी और पिथौरागढ़ जिले के जिलाधिकारी श्री विनोद गिरी गोस्वामी जी उपस्थित रहेंगे। जीवन परिचय  पंडित नैन सिंह रावत का जन्म 1830 में उत्तराखंड के कुमाऊं क्षेत्र में मिलन गांव में हुआ था । उन्होंने अपने अनुभवों और अवलोकनों को डायरी में रिकॉर्ड किया और साथ ही उन्होंने अपनी पहली देसी अंदाज में सर्वेक्षण ज्ञान की पुस्तिका लिखी, जिसका नाम अक्षांश दर्पण (1871) था । अपने चचेरे भाई किशन सिंह और अन्य अनुवेषकों के साथ अनेक अभियान किए। उनके अभियानों से प्राप्त रिकॉर्ड के आधार पर उन्होंने बताया कि सांगपो नदी ही ब्रह्मपुत्र है।  पंडित नैन सिंह जी के

कत्यूरी राजवंश : उत्तराखंड का इतिहास (भाग-2)

 कत्यूरी राजवंश का इतिहास

                         (भाग - 2)

कत्यूरी राजवंश का भौगोलिक विस्तार

कत्यूरी राजवंश की प्रारंभिक राजधानी जोशीमठ ( चमोली ) में थी। कत्यूरी नरेशों का राज्य चमोली के पश्चिम में सतलुज नदी के तट से लेकर दक्षिण के मैदान तक फैला था। पूरब में भारत तिब्बत की सीमा पर कुछ गांव तक सीमित था। वर्तमान काशीपुर, पीलीभीत और संपूर्ण रूहेलखंड उनके शासन के अंतर्गत आते थे।

राजनैतिक व्यवस्था

मौर्य वंश की भांति ही कत्यूरी नरेश ने प्रशासन व्यवस्था बनाए रखने के लिए महत्वपूर्ण पद नियुक्त किए थे।

  • राजा ने सीमाओं की सुरक्षा के लिए प्रांतपाल नियुक्त किया था। ताकि बाहरी आक्रमणों से सुरक्षा मिल सके। और सीमाओं में होने वाली गतिविधियों की सूचना अति शीघ्र प्राप्त हो । 
  • जैसे कि कत्यूरी राजवंश ने पहाड़ों पर शासन व्यवस्था स्थापित की थी। तो जरूरी था उसके क्षेत्र में सभी पहाड़ों की रक्षा की जाए । इसके लिए प्रत्येक पहाड़ पर घटृपाल नियुक्त किए थे ।
  • इसके अलावा सड़क परिवहन की सुविधाएं बनाए रखने के लिए वर्मपाल पद स्थापित किया । वर्मपाल सीमावर्ती मार्गो से आने-जाने वाले प्रत्येक व्यक्ति पर कड़ी निगाह रखता था ।

 प्रशासनिक व्यवस्था

 कत्यूरी राजाओं की उपाधि रजबार थी। राजा राज्य में सर्वोपरि शासक होता था। और सुव्यवस्थित राज्य को चलाने के लिए "उपरिक"  नियुक्त करता था। (उपरिक अर्थात वर्तमान समय के राज्यपाल  ) । जनपद को प्रांतों में विभाजित किया गया था। और प्रांतों को जिलों में जिन्हें विषय कहा जाता था। विषय के संचालक को विषयपति कहते थे। कत्यूरी शासन को पांच विषयों (ज़िलों) में विभाजित किया गया था।

  1. कार्तिकेयपुर विषय - चमोली जिले वाला क्षेत्र
  2. टंकणपुर विषय - अलकनंदा भागीरथी संगम से उत्तर वाला क्षेत्र
  3. अंतरराग विषय - भागीरथी तथा अलकनंदा के मध्यवर्ती वाला क्षेत्र
  4. एशाल विषय -  भागीरथी तथा यमुना वाला क्षेत्र
  5. मायापुरहाट - हरिद्वार के निकटवर्ती भाबर क्षेत्र

कत्यूरी प्रशासन में तहसील स्तर की प्रशासनिक इकाई को "कर्मांत" कहा जाता था।

                पांडुकेश्वर दान पत्र तथा सुभिक्षराज लेख के अनुसार कत्यूरी वंश के प्रशासनिक संरचना के तहत् तहसील स्तर की प्रशासनिक इकाई को 'कर्मांत' कहा जाता था । कत्यूरी शासन में प्रांतों को विषयों (जिलों) में विभाजित किया गया था। विषयों को प्रशासनिक दृष्टि से छोटी इकाइयां कर्मांत में विभाजित किया गया था। कत्यूरी अभिलेखों एवं ताम्रपत्रों में प्रशासनिक संरचना तथा अधिकारियों का उल्लेख मिलता है।

पुलिस व्यवस्था

किसी भी राज्य व शासक को शांति एवं सुव्यवस्था बनाए रखने के लिए एक पुलिस विभाग बनाना ही पड़ता है। ऐसे ही सुव्यवस्था कत्यूरी के ताम्रपत्रों में उल्लेख है जिसमें विभाग के अधिकारियों का नाम और पद लिखा है।

दांण्डिक (खडि्ग़क) - राज्य तथा जनता की सुरक्षा का दायित्व

दोषापराधिक - अपराधियों को पकड़ने वाला (दरोगा)

चोरोद्धरणिक - चोर डाकू को पकड़ने वाला सिपाही

दुःसाध्यसाधनिक - गुप्तचर विभाग

दण्डपाशिक या महादण्डनायक - पुलिस विभाग के प्रमुख एवं सर्वोच्च अधिकारी

सैन्य व्यवस्था 

कत्यूरी वीर वाहिनी अपने शौर्य व सफलताओं के लिए जग - प्रसिद्ध थे। इसी के बल पर 300 से अधिक वर्षों तक उत्तराखंड पर शासन किया। इसका मुख्य श्रेय सेना को जाता है । सेना को चार भागों में विभाजित किया था

  1. पदातिक - पैदल सैनिकों के सर्वोच्च अधिकारी को "गोल्मिक" कहा जाता था।
  2. अश्वारोही - अश्वों  की सेना के सर्वोच्च अधिकारी को "अश्बबलाधिकृत" कहा जाता था।
  3. गजारोही - हाथियों की सेना के सर्वोच्च अधिकारी को "हस्तीबलाधिकृत" कहते थे।
  4. उष्ट्रारोही - ऊंटों की सेना के सर्वोच्च अधिकारी को "उष्ट्राबलाधिकृृत" कहते थे।

आर्थिक स्थिति

कर व्यवस्था

किसी भी राज्य की आय का मुख्य साधन कर होता है। कत्यूरी शासकों ने आय प्राप्त करने के लिए नरपति पद की नियुक्ति की थी । "नरपति" सीमा पर कर की वसूली करता था। अजनबी लोगों की जांच पड़ताल करता था। इसके अतिरिक्त "भोगपति" व "शौल्किक" नामक अधिकारी राज्य के अंदर शुल्क व कर वसूला करते थे।

कृषि व्यवस्था

कृषि की उन्नति का उत्थान के लिए क्षेत्रपाल के पद की नियुक्ति की गई थी जिसका कार्य वर्तमान पटवारी के रूप में होता था। भूमिका मापना और सहायता प्राप्त करना आदि कार्य क्षेत्रपाल करता थाा। कत्यूरी शासन में द्रोणाबापम (पाथा) व नालीबापम (२ सेेेर) भूमि का उल्लेख हैै। आज भी उत्तराखंड में द्रोणबापम और नाली पाथा का प्रयोग करते हैं।

खनिज वन संपदा

पहाड़ों में सबसे बड़ी संपत्ति खनिज और वन संपदा को माना जाता है। खनिज व वनों की रक्षा के लिए खण्डपति (खण्डरक्षास्थाधिपति) की पद व्यवस्था की गयी थी। इसके अतिरिक्त उद्योग व व्यापार की देखरेख भी इसी को प्रदान की गई।

धार्मिक एवं सांस्कृतिक व्यवस्था

कत्यूरी राजवंश की प्रमुख भाषा संस्कृत थी । जबकि आम बोलचाल की भाषा पाली थी। कत्यूरी राज्य में अधिकांश हिंदू धर्म के अनुयायी थे। और कुछ क्षेत्रों में बौद्ध धर्म और जैन धर्म के लोग बसे हुए थे। कत्यूरी शासन के अंतर्गत बौद्ध तथा जैन मतावलंबियों को अपने मत के अनुसरण की एवं प्रचार की पूर्ण अनुमति दी। कत्यूरी भगवान शिव के उपासक थे। कत्यूरी वंश का शासक ललितसूरदेव कट्टर ब्राह्मण धर्मावलंबी था। कत्यूरी शासकों ने साम्राज्य विस्तार के साथ स्थापत्य कला पर विशेष ध्यान दिया। और अनेकों मंदिर एक विशेष शैली से बनवाए । जिसे इतिहास में कत्यूरी शैली के नाम से जाना गया। प्रारंभिक समय में कत्यूरी शैली को नागर शैली कहा गया।

  • नरसिंह मंदिर (जोशीमठ) --  वसंतनदेव द्वारा - कत्यूर शैली
  • जागेश्वर धाम (अल्मोड़ा) नटराज मंदिर , दुर्गा मंदिर, लकुलिश मंदिर और महेशमंदिनी मंदिर  --- इष्टगणदेव द्वारा - कत्यूर शैली
  • बैजनाथ मंदिर (बागेश्वर) - भू-देव द्वारा  -  नागर शैली/कत्यूर शैली
  • कटारमल सूर्य मंदिर (अल्मोड़ा) - कटारमल देव (उत्तरवर्ती कत्यूर शासक) 
इनके अलावा गंगोत्री (उत्तरकाशी), यमनोत्री (उत्तरकाशी , केदारनाथ मंदिर ( रूद्रप्रयाग) भी कत्यूर शैली में बनाए गए थे।

आज भी उत्तराखंड के पोखरी, सुकोलो, बोनी, रुमा, बोहरा गांव, (ताडी़खेत) , धनियाकोट आदि गांवों में कत्यूरी के वंशज निवास करते हैं ।

कत्यूर राजवंश से संबंधित प्रश्न 

(1) कत्यूरी राजाओं/ कार्तिकेयपुर राजाओं की राजभाषा क्या थी?
(a) अपभ्रंश
(b) पाली
(c) संस्कृत
(d) प्राकृत

(2) कत्यूरी वंश के प्रथम राजा वसंतनदेव ने कौन सी उपाधि धारण की थी ?
(a) चक्रवर्ती
(b) गरुड़ा 
(c) परम भट्ठारक महाराजधिराज
(d) बारह अवतार

(3) कत्यूरी वंश का में कौन सा शासक था जो कट्टर ब्राह्मण धर्मावलंबी था ?
(a) ब्रह्मदेव 
(b) भूदेव 
(c) ललितसूर् देव
(d) त्रिभुवनराज देव

(4) कत्यूरी राजवंश में "गौल्मिक" शब्द किसके लिए प्रयुक्त किया जाता था ?
 (a) अश्वारोही
(b) पदातिक
(c) गजारोही
(d) उष्ट्रारोही

(5) कत्यूरी राजवंश में "भोगपति" व  "शौल्किक"  का क्या कार्य होता था ?

(a) राज्य तथा जनता की सुरक्षा का दायित्व।
 (b) गुप्त सूचनाओं का पता लगाना ।
(c) कर वसूलना ।
(d) पहाड़ों की रक्षा करना।

Answer - (1)c, (2)c, (3)c, (4)b, (5)c


यदि आपको दी गई जानकारी से संतुष्ट है। तो अधिक से अधिक लोगों तक शेयर करें। इसके अतिरिक्त उपयुक्त वंश के short notes प्राप्त करना चाहते हैं तो कमेंट करें। और उत्तराखंड का पूरा इतिहास पढ़ना चाहते हैं तो website follow करें। पहला भाग-1 देखने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें।

Sources : उत्तराखंड का इतिहास (अजय रावत )

Related post :-





टिप्पणियाँ

एक टिप्पणी भेजें

If you have any doubts.
Please let me now.

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

ब्रिटिश कुमाऊं कमिश्नर : उत्तराखंड

ब्रिटिश कुमाऊं कमिश्नर उत्तराखंड 1815 में गोरखों को पराजित करने के पश्चात उत्तराखंड में ईस्ट इंडिया कंपनी के माध्यम से ब्रिटिश शासन प्रारंभ हुआ। उत्तराखंड में अंग्रेजों की विजय के बाद कुमाऊं पर ब्रिटिश सरकार का शासन स्थापित हो गया और गढ़वाल मंडल को दो भागों में विभाजित किया गया। ब्रिटिश गढ़वाल और टिहरी गढ़वाल। अंग्रेजों ने अलकनंदा नदी का पश्चिमी भू-भाग पर परमार वंश के 55वें शासक सुदर्शन शाह को दे दिया। जहां सुदर्शन शाह ने टिहरी को नई राजधानी बनाकर टिहरी वंश की स्थापना की । वहीं दूसरी तरफ अलकनंदा नदी के पूर्वी भू-भाग पर अंग्रेजों का अधिकार हो गया। जिसे अंग्रेजों ने ब्रिटिश गढ़वाल नाम दिया। उत्तराखंड में ब्रिटिश शासन - 1815 ब्रिटिश सरकार कुमाऊं के भू-राजनीतिक महत्व को देखते हुए 1815 में कुमाऊं पर गैर-विनियमित क्षेत्र के रूप में शासन स्थापित किया अर्थात इस क्षेत्र में बंगाल प्रेसिडेंसी के अधिनियम पूर्ण रुप से लागू नहीं किए गए। कुछ को आंशिक रूप से प्रभावी किया गया तथा लेकिन अधिकांश नियम स्थानीय अधिकारियों को अपनी सुविधानुसार प्रभावी करने की अनुमति दी गई। गैर-विनियमित प्रांतों के जिला प्रमु

परमार वंश - उत्तराखंड का इतिहास (भाग -1)

उत्तराखंड का इतिहास History of Uttarakhand भाग -1 परमार वंश का इतिहास उत्तराखंड में सर्वाधिक विवादित और मतभेद पूर्ण रहा है। जो परमार वंश के इतिहास को कठिन बनाता है परंतु विभिन्न इतिहासकारों की पुस्तकों का गहन विश्लेषण करके तथा पुस्तक उत्तराखंड का राजनैतिक इतिहास (अजय रावत) को मुख्य आधार मानकर परमार वंश के संपूर्ण नोट्स प्रस्तुत लेख में तैयार किए गए हैं। उत्तराखंड के गढ़वाल मंडल में 688 ईसवी से 1947 ईसवी तक शासकों ने शासन किया है (बैकेट के अनुसार)।  गढ़वाल में परमार वंश का शासन सबसे अधिक रहा।   जिसमें लगभग 12 शासकों का अध्ययन विस्तारपूर्वक दो भागों में विभाजित करके करेंगे और अंत में लेख से संबंधित प्रश्नों का भी अध्ययन करेंगे। परमार वंश (गढ़वाल मंडल) (भाग -1) छठी सदी में हर्षवर्धन की मृत्यु के पश्चात संपूर्ण उत्तर भारत में भारी उथल-पुथल हुई । देश में कहीं भी कोई बड़ी महाशक्ति नहीं बची थी । जो सभी प्रांतों पर नियंत्रण स्थापित कर सके। बड़े-बड़े जनपदों के साथ छोटे-छोटे प्रांत भी स्वतंत्रता की घोषणा करने लगे। कन्नौज से सुदूर उत्तर में स्थित उत्तराखंड की पहाड़ियों में भी कुछ ऐसा ही हुआ। उत्

उत्तराखंड में भूमि बंदोबस्त का इतिहास

  भूमि बंदोबस्त व्यवस्था         उत्तराखंड का इतिहास भूमि बंदोबस्त आवश्यकता क्यों ? जब देश में उद्योगों का विकास नहीं हुआ था तो समस्त अर्थव्यवस्था कृषि पर निर्भर थी। उस समय राजा को सर्वाधिक कर की प्राप्ति कृषि से होती थी। अतः भू राजस्व आय प्राप्त करने के लिए भूमि बंदोबस्त व्यवस्था लागू की जाती थी । दरअसल जब भी कोई राजवंश का अंत होता है तब एक नया राजवंश नयी बंदोबस्ती लाता है।  हालांकि ब्रिटिश शासन से पहले सभी शासकों ने मनुस्मृति में उल्लेखित भूमि बंदोबस्त व्यवस्था का प्रयोग किया था । ब्रिटिश काल के प्रारंभिक समय में पहला भूमि बंदोबस्त 1815 में लाया गया। तब से लेकर अब तक कुल 12 भूमि बंदोबस्त उत्तराखंड में हो चुके हैं। हालांकि गोरखाओ द्वारा सन 1812 में भी भूमि बंदोबस्त का कार्य किया गया था। लेकिन गोरखाओं द्वारा लागू बन्दोबस्त को अंग्रेजों ने स्वीकार नहीं किया। ब्रिटिश काल में भूमि को कुमाऊं में थात कहा जाता था। और कृषक को थातवान कहा जाता था। जहां पूरे भारत में स्थायी बंदोबस्त, रैयतवाड़ी बंदोबस्त और महालवाड़ी बंदोबस्त व्यवस्था लागू थी। वही ब्रिटिश अधिकारियों ने कुमाऊं के भू-राजनैतिक महत्

चंद राजवंश : उत्तराखंड का इतिहास

चंद राजवंश का इतिहास पृष्ठभूमि उत्तराखंड में कुणिंद और परमार वंश के बाद सबसे लंबे समय तक शासन करने वाला राजवंश है।  चंद वंश की स्थापना सोमचंद ने 1025 ईसवी के आसपास की थी। वैसे तो तिथियां अभी तक विवादित हैं। लेकिन कत्यूरी वंश के समय आदि गुरु शंकराचार्य  का उत्तराखंड में आगमन हुआ और उसके बाद कन्नौज में महमूद गजनवी के आक्रमण से ज्ञात होता है कि तो लगभग 1025 ईसवी में सोमचंद ने चंपावत में चंद वंश की स्थापना की है। विभिन्न इतिहासकारों ने विभिन्न मत दिए हैं। सवाल यह है कि किसे सच माना जाए ? उत्तराखंड के इतिहास में अजय रावत जी के द्वारा उत्तराखंड की सभी पुस्तकों का विश्लेषण किया गया है। उनके द्वारा दिए गए निष्कर्ष के आधार पर यह कहा जा सकता है । उपयुक्त दिए गए सभी नोट्स प्रतियोगी परीक्षाओं की दृष्टि से सर्वोत्तम उचित है। चंद राजवंश का इतिहास चंद्रवंशी सोमचंद ने उत्तराखंड के कुमाऊं मंडल में लगभग 900 वर्षों तक शासन किया है । जिसमें 60 से अधिक राजाओं का वर्णन है । अब यदि आप सभी राजाओं का अध्ययन करते हैं तो मुमकिन नहीं है कि सभी को याद कर सकें । और अधिकांश राजा ऐसे हैं । जिनका केवल नाम पता है । उनक

भारत की जनगणना 2011 से संबंधित महत्वपूर्ण प्रश्न (भाग -01)

भारत की जनगणना 2011 मित्रों वर्तमान परीक्षाओं को पास करने के लिए रखने से बात नहीं बनेगी अब चाहे वह इतिहास भूगोल हो या हमारे भारत की जनगणना हो अगर हम रटते हैं तो बहुत सारे तथ्यों को रटना पड़ेगा जिनको याद रखना संभव नहीं है कोशिश कीजिए समझ लीजिए और एक दूसरे से रिलेट कीजिए। आज हम 2011 की जनगणना के सभी तथ्यों को समझाने की कोशिश करेंगे। यहां प्रत्येक बिन्दु का भौगोलिक कारण उल्लेख करना संभव नहीं है। इसलिए जब आप भारत की जनगणना के नोट्स तैयार करें तो भौगोलिक कारणों पर विचार अवश्य करें जैसे अगर किसी की जनसंख्या अधिक है तो क्यों है ?, अगर किसी की साक्षरता दर अधिक है तो क्यों है? अगर आप इस तरह करेंगे तो शत-प्रतिशत है कि आप लंबे समय तक इन चीजों को याद रख पाएंगे साथ ही उनसे संबंधित अन्य तथ्य को भी आपको याद रख सकेंगे ।  भारत की जनगणना (भाग -01) वर्ष 2011 में भारत की 15वीं जनगणना की गई थी। 2011 की जनगणना के अनुसार भारत का कुल क्षेत्रफल 32,87,263 वर्ग किलोमीटर था तथा भारत की कुल आबादी 121,08,54,922 (121 करोड़) थी। जिसमें पुरुषों की जनसंख्या 62.32 करोड़ एवं महिलाओं की 51.47 करोड़ थी। जनसंख्या की दृष्टि

उत्तराखंड की जनजातियों से संबंधित प्रश्न (उत्तराखंड प्रश्नोत्तरी -14)

उत्तराखंड प्रश्नोत्तरी -14 उत्तराखंड की प्रमुख जनजातियां वर्ष 1965 में केंद्र सरकार ने जनजातियों की पहचान के लिए लोकर समिति का गठन किया। लोकर समिति की सिफारिश पर 1967 में उत्तराखंड की 5 जनजातियों थारू, जौनसारी, भोटिया, बोक्सा, और राजी को एसटी (ST) का दर्जा मिला । राज्य की मात्र 2 जनजातियों को आदिम जनजाति का दर्जा प्राप्त है । सर्वप्रथम राज्य की राजी जनजाति को आदिम जनजाति का दर्जा मिला। बोक्सा जनजाति को 1981 में आदिम जनजाति का दर्जा प्राप्त हुआ था । राज्य में सर्वाधिक आबादी थारू जनजाति तथा सबसे कम आबादी राज्यों की रहती है। 2011 की जनगणना के अनुसार राज्य की कुल एसटी आबादी 2,91,903 है। जुलाई 2001 से राज्य सेवाओं में अनुसूचित जन जातियों को 4% आरक्षण प्राप्त है। उत्तराखंड की जनजातियों से संबंधित प्रश्न विशेष सूचना :- लेख में दिए गए अधिकांश प्रश्न समूह-ग की पुरानी परीक्षाओं में पूछे गए हैं। और कुछ प्रश्न वर्तमान परीक्षाओं को देखते हुए उत्तराखंड की जनजातियों से संबंधित 25+ प्रश्न तैयार किए गए हैं। जो आगामी परीक्षाओं के लिए महत्वपूर्ण साबित होंगे। बता दें की उत्तराखंड के 40 प्रश्नों में से 2

उत्तराखंड की प्रमुख योजनाएं

उत्तराखंड की प्रमुख योजनाऐं उत्तराखंड की टॉप 10 सबसे महत्वपूर्ण योजना उपयुक्त लेख में उत्तराखंड की प्रमुख योजनाओं की व्याख्या की गई है। जो उत्तराखंड की आगामी परीक्षाओं के लिए अत्यधिक महत्वपूर्ण साबित हो सकती हैं। अतः लेख को अन्त तक जरूर पढ़ें व उनसे संबंधित प्रश्नों के उत्तर दें ।  (1) मुख्यमंत्री आंचल अमृत योजना उत्तराखंड में महिला सशक्तिकरण एवं बाल विकास मंत्रालय द्वारा संचालित ‘मुख्यमंत्री आँचल अमृत योजना’ का शुभारंभ 7 मार्च 2019 को किया गया। हाल ही में उत्तराखंड के मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने देहरादून में आयोजित एक कार्यक्रम में प्रतिभाग करते हुए ‘मुख्यमंत्री आँचल अमृत योजना’ का पुन: शुभारंभ किया। मुख्यमंत्री ने 11 बच्चों को दूध वितरित कर योजना का शुभारंभ किया। जिस कारण यह योजना प्रतियोगी परीक्षा की दृष्टि से अत्यधिक हो जाती है। उद्देश्य मुख्यमंत्री ने कहा कि योजना का पुन: शुभारंभ होने से बच्चों के विकास एवं उन्हें पर्याप्त पोषण मिलने में बड़ी मदद मिलेगी। उन्होंने कहा कि जिस प्रकार माँ का आँचल बच्चे का धूपछाँव से बचाव करता है, उसी प्रकार ‘आँचल अमृत योजना’ बच्चों में कुपोषण को द